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महा - परिनिर्वाण - भगवान बुद्ध और उनका धम्म  (भाग ११८)  - लेखक -  डॉ. भीमराव आम्बेडकर

तीसरा भाग : महा - परिनिर्वाण

१. उत्तराधिकारी की नियुक्ति

१. एक समय भगवान् बुद्ध शाक्यों में चारिका कर रहे थे । उस समय वे धनुर्धारी नामक शाक्य परिवार के आम्रवन में ठहरे हुए थे

२. उस समय पावा में निगण्ठनाथ पुत्र (महावीर) का देहान्त हुए थोडा ही समय हुआ था । उसकी मृत्यु पर निर्गन्ध (जैन) लोगों में आपस में झगडा हो गया । वे दो दलों में विभक्त होकर परस्पर एक दुसरे को शब्द रुपी वाणों से बींधने लगे ।

Bhagwan Buddh ka mahaparinirvan - Bhagwan Buddha aur Unka Dhamma - Written by dr Bhimrao Ramji Ambedkar

३. अब चुन्द श्रामणेर पावा में वर्षावास समाप्त कर आनन्द स्थविर से मिलने आया । उस ने सूचना दी । “निगण्ठनाथ पुत्र का अभी पावा में शरीरान्त हो गया है । उस की मृत्यु हो जाने पर निर्ग्रन्थ लोगों में आपस मे झगडा हो गया है । वे दों दलों में विभक्त हो गये है । एक दूसरें को परस्पर शब्द रुपी वाणों से बींधते हैं । इसका कारण यही है कि उनका कोई शास्ता नहीं रहा ।”

 ४. तब आनन्द स्थविर ने कहा-- “चुन्द ! यह तथागत के ध्यान में लाने लायक एक महत्वपूर्ण विषय है । हम उनके पास चले और यह बात बता दे ।"

५. "बहुत अच्छा," चुन्द ने कहा ।

६. तब आनन्द और चुन्द दोनो मिलकर तथागत के पास पहुंचे और अभिवादन कर तथागत को निगण्ठनाथ पुत्र की मृत्यु की सूचना दी और साथ ही आग्रहपूर्वक निवेदन किया कि तथागत अपना कोई उत्तराधिकारीनियुक्त कर दें ।

७. चुन्द कि बात सुनी तो तथागत ने उत्तर दिया! “चुन्द! विचार करो कि लोग में एक शास्ता उत्पन्न होता है अर्हत, सम्यक्,समबुद्ध, यदि वह सद्धम्म की देशना करता है, जो सु- आख्यात है, जो प्रभावशाली पथ-प्रदर्शक है, जो शान्ति की ओर ले जाता है; लेकिन यदि उसके श्रावक सद्धम्म में सम्यक् प्रतिष्ठित नहीं हुए हैं, यदि वह सद्धम्म उस शास्ता के न रहने पर उनका त्राण नहीं कर सकता । तो.....

८. "तो हे चुन्द ! ऐसे शास्ता का न रहना उसके श्रावकों के लिये भी बड़े दुःख की बात है और उसके धम्म के लिये बड़ा खतरा है । ९. लेकिन चुन्द । जब लोक में एक ऐसा शास्ता उत्पन्न हुआ हो जो अर्हत् हो, जो सम्यक् समबुद्ध हो, जिसने सद्धम्म की देशना की हो, जिसका सद्धर्म सु-आख्यात हो, जो सद्धम्म प्रभावशाली पथ-प्रदर्शक हो, जो शान्ति की ओर ले जाता है, और जहाँ श्राव सद्धम्म में सम्यकरूप से प्रतिष्ठित हो गये हो और जब शास्ता के न रहने पर भी वह सद्धम्म उन श्रावको को सम्यक् रूप से प्रकट रहता हो तो.......

१०. “तो चुन्द! ऐसे शास्ता का न रहना उसके श्रावको के लिये दुःख बात नहीं हैं । तब किसी उत्तराधिकारी की क्या आवश्यकता है?"

११. जब आनन्द ने एक दूसरे अवसर पर भी यही बात दोहराई तो तथागत ने कहा-- “आनन्द ! क्या दो भिक्षु भी तुम्हे ऐसे दिखाई देते है, जिनका धम्म के विषय में एक मत न हो?”

१२. "नहीं, लेकिन जो तथागत के आस-पास हैं, हो सकता है कि वे तथागत के मरने के बाद विनय के सम्बन्ध मे, संघ के नियमो के संबंध मे विवाद खड़ा कर दें और ऐसा विवाद बहुत से लोगों के दुःख के लिये होगा; बहुत लोंगों के अहित के लिये होगा ।”

१३. “आनन्द! 'विनय ' सम्बन्धी विवाद, भिक्षुओ के नियमो के सम्बन्ध में विवाद बहुत महत्व के नहीं है, लेकिन हो सकता है कि भिक्षु संघ में 'धम्म' को लेकर भी विवाद उठ खड़ा हो यह सचमुच चिन्ता की बात होगी ।

१४. “लेकिन 'धम्म'  सम्बन्धी विवादों के विषय में कोई 'डिक्टेटर' कुछ नहीं कर सकता । और एक उत्तराधिकारी भी यदि 'डिक्टेटर' नहीं बनता तो कर क्या सकता हैं?

१५. “धम्म सम्बन्धी विवादों का निर्णय किसी डिक्टेटर का विषय नही है ।

१६. “किसी भी विवाद के बारे में स्वयं संघ को ही निर्णय करना होगा । संघ को इकट्ठे होकर विचार करना चाहिये और जब तक किसी निर्णय पर न पहुंचा जाये तब तक उस सम्बन्ध मे अच्छी तरह ऊहापोह करनी चाहिये, और बाद में उस निर्णय को स्वीकार करना चाहिये ।

१७. “विवादो का निर्णय बहुमत से होना चाहिये । उत्तराधिकारी की नियुक्ति इसका इलाज नही है ।"

 

२. अंतिम धम्म दीक्षा

१. उस समय सुभद्र परिव्राजक कुसीनारा में ठहरा हुआ था । सुभद्र परिव्राजक ने सूना" कहा जाता है कि आज की ही रात पिछले पहर में तथागत परिनिर्वाण को प्राप्त होंगे ।"तब सुभद्र परिव्राजक के मन मे आया ।

२. “मैंने सुना कुछ दूसरे वयोवृद्ध परिव्राजको से--गुरु ओं तथा शिष्यों से कि लोक में तथागत, अर्हत, सम्यक्, समबुद्ध रोज रोज जन्म ग्रहण नहीं करते । और आज ही रात के पिछले पहर को श्रमण गौतम का परिनिर्वाण हो जायगा । अब मेरे मन में एक सन्देह में पैदा हुआ है । मुझे श्रमण गौतम पर विश्वास है कि वह मुझे ऐसा उपदेश दे सकते है जिससे मेरे सन्देह की निवृत्ति हो जाय ।”

३. तब सुभद्र परिव्राजक छोटी सडक से मल्लो के शाल वन पहुंचा । वह वहाँ गया, जहाँ आनन्द स्थविर थे और बोला- आनन्द स्थविर ! जरा देर के लिये तथागत का दर्शन कर पाता । '

४. उसके ऐसा कहने पर आनन्द स्थविर ने सुभद्र परिव्राजक को कहा- "सुभद्र! अब रहने दो । सुभद्र ! अब तथागत को कष्ट मत दो । सुभद्र! तथागत विश्राम कर रहे है और बहुत थके है।"

५. सुभद्र परिव्राजक ने दूसरी और तीसरी बार भी अपनी बात दोहराई । तीनों बार आनन्द स्थविर ने सुभद्र परिव्राजक को एक ही उत्तर दिया ।

६. आनन्द स्थविर और सुभद्र परिव्राजक के बीच की बात-चीत को तथागत ने सुना लिया । उन्होंने आनन्द स्थविर को सम्बोधित करके कहा- “आनन्द! सुभद्र को मत रोको । सुभद्र को तथागत का दर्शन कर लेने दो । सुभद्र जो भी प्रश्न मुझ से करेगा वह मुझ से कुछ जानने के लिये ही करेगा, मुझे कष्ट देने के लिये नहीं करेगा । जो कुछ मै उसे उत्तर में कहूँगा, उसे भी वह शीघ्र ही समझ लेगा । '

७. तब आनन्द स्थविर ने सुभद्र परिव्राजक को कहा - "सुभद्र ! भीतर जाओ । तथागत ने तुम्हे अनुमति दे दी है ।”

८. तब सुभद्र परिव्राजक तथागत के समीप पहुंचा, अभिवादन किया किया और स्वास्थ समाचार पूछ कर एक ओर बैठ गया । इस प्रकार बैठे हुए सुभद्र परिव्राजक ने तथागत से प्रश्न किया

९. “श्रमण गौतम! ये जितने भी श्रमण ब्राह्मण हैं, जिन के पीछे जमात है, जो गणाचार्य हैं, जो प्रसिद्ध है, जो मतों के संस्थापक के रुप में ज्ञात हैं 'जिन्हें जनता धर्मात्मा मानती है जैसे पूर्णकाश्यप, मक्खली गोशाल, अजित केशकम्बली पकुध कच्चायन, सञ्जय, वेलट्ठी-पुत्र तथा निगण्ठ- नाथ पुत्र- इन सब ने जैसा वे कहते है, अपने आपसे सत्य ज्ञान प्राप्त किया है वा नही किया ? क्या उनमें से किसी ने नहीं किया? अथवा किसी ने किया है और किसी ने नहीं किया?"

१०. “सुभद्र! इस चक्कर में मत - पडो, कि किसी ने भी ज्ञान प्राप्त किया है वा नहीं किया? मैं तुम्हें धम्म का उपदेश देता हूँ । इसे ध्यान से सुनो । इधर चित्त दो । मै कहता हूँ ।”

११. “भगवान् । बहुत अच्छा कह सुभद्र परिव्राजक ने तथागत की ओर ध्यान दिया । तब तथागत ने कहा:--

१२. “सुभद्र-जिस धम्म- विनय (मत) में आर्य अष्टांगिक मार्ग नही है, उसमें कोई श्रमण भी नहीं हैं । जिस धम्म-विनय (मत) में आर्यअष्टांगिक मार्ग है उसी में श्रमण भी है।

१३. “सुभद्र ! तथागत के धम्म - विनय (मत) में आर्य अष्टांगिक मार्ग है । इसलिए तथागत के धम्म - विनय में श्रमण भी हैं श्रोतापन्न, सकृदागामी, अनागामी तथा अर्हत है । दूसरे मत श्रमणों से शून्य हैं । लेकिन हे सुभद्र! यदि इस धम्म-विनय में सम्यक् जीवी होंगे तो संसार कभी अर्हतों से शून्य न होगा ?

१४. “उन्तीस वर्ष की आयु में मैं कल्याण पथ का पथिक बना ।

१५. “सुभद्र! अब पचास वर्ष से अधिक हो गये हैं जबसे मैं सद्धम्म का पक्ष ग्रहण किये हूँ ।”

१६. तथागत के ऐसा कहने पर सुभद्र परिव्राजक बोला--अद्भुत है श्रमण गौतम! अद्भुत है श्रमण गौतम!

१७. जैसे कोई फेंके हुए को फिर प्रतिष्ठीत कर दे, अथवा ढके को उघाड दे, अथवा पथ भ्रष्ट को मार्ग दिखा दे अथवा अन्धेरे में प्रदीप प्रज्वलीत कर दे ताकि आँख वाले देख सकें ।

१८. “इसी प्रकार तथागत ने मुझे सत्य का ज्ञान करा दिया । इसलिये मैं बुद्ध, धम्म तथा संघ की शरण ग्रहण करता हूँ ।”

१९. “सुभद्र! जो कोई पहले किसी दूसरे धर्म में दीक्षित रहा हो, यदि संघ में प्रविष्ट होना चाहता है तो उसे चार महीने प्रतीक्षा करनी पडती है ।"

२०. “यदि यह नियम हैं, तो मैं प्रतीक्षा करने के लिए तैयार हूँ ।"

२१. “लेकिन तथागत ने कहा– 'आदमी आदमी में भेद भी होता है ।' उन्होने आनन्द को बुलाकर कहा-- 'आनन्द ! सुभद्र को संघ में दाखिल कर लो।'

२२. 'बहुत अच्छा', कह आनन्द ने तथागत की आज्ञा स्वीकार की ।

२३. और तब सुभद्र परिव्राजक ने आनन्द स्थविर को कहा - 'आनन्द ! तुम्हारा बडा लाभ है । आनन्द ! तुम्हारा बडा सुलाभ है । आनन्द! तुम बड़े भाग्यवान हो, तुम्हें तथागत ने स्वंय अपने हाथ से भिक्षु संघ में दीक्षित किया है, धम्म-जल से अभिसिंचित किया है।"

२४. आनन्द स्थविर का उत्तर था - 'सुभद्र! तुम्हारे बारे में भी तो यही सत्य है ।”

२५. इस प्रकार तथागत की अनुज्ञा से सुभद्र परिव्राजक भिक्षु संघ में सम्मिलित हुआ । स्वयं तथागत द्वारा दीक्षित वह तथागत का अंतिम श्रावक था ।



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