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हिंदू धर्म की पहेलियां - ( भाग ८९ )  लेखक -  डॉ. भीमराव आम्बेडकर

II

     अब कृष्ण के संबंध में।

     वह महाभारत के नायक हैं। वास्तव में तो महाभारत का मुख्यतः संबंध कौरव ओर पाण्डवों से है। यह उस युद्ध की कहानी है, जो दोनों पक्षों ने अपने पूर्वजों के राज्य पर अधिकार प्राप्त करने के लिए किया । वही मुख्य चरित्र होने चाहिए। परन्तु वे नहीं हैं। इस महाकाव्य के नायक कृष्ण हैं। यह थोड़े आश्चर्य की बात है। परन्तु इससे भी आश्चर्यजनक यह हो सकता है कि वे कौरव पाण्डवों के समकालीन ही न हों। कृष्ण पाण्डवों के मित्र थे और उनका अपना साम्राज्य था । कृष्ण कंस के शत्रु थे। उसका भी साम्राज्य था। यह सम्भव नहीं लगता कि दोनों राज्य साथ-साथ विद्यमान थे। महाभारत में ऐसा कहीं प्रतीत नहीं होता कि दोनों राज्यों के बीच कोई सम्पर्क थे। बाद में कृष्ण को इस नाटक में और बड़ी भूमिका देने के लिए कृष्ण और पाण्डवों की कहानियों को मिश्रित कर दिया गया। इन दोनों कहानियों को जोड़ने का करिश्मा व्यास का था, जिसमें कृष्ण को गौरवान्वित करने के लिए उन्हें सबके ऊपर बैठा दिया।

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     व्यास ने कृष्ण को मानवों में देवता बना दिया। इसी कारण उन्हें महाभारत का नायक बना दिया गया। क्या कृष्ण सचमुच भगवान कहलाने योग्य हैं? उनकी सक्षिप्त जीवनी से इस प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा। कृष्ण भाद्रपद की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि में मथुरा में पैदा हुए थे। उनके पिता यदुवंश के वसुदेव थे। उनकी माता देवक की पुत्री देवकी थीं जो मथुरा के राजा उग्रसेन का भाई था। उग्रसेन की पत्नी के सौभराज द्रुमिल दानव के साथ अवैध संबंध थे। उसी का जारज पुत्र कंस था। एक प्रकार से वह देवकी का भाई था। कंस ने उग्रसेन की बंदी बनाकर राज्य पर अधिकार कर लिया। नारद अथवा देववानी से यह आकाशवाणी सुनकर कि देवकी की आठवीं संतान वध करेगी कंस ने देवकी और उसके पति को बंदी बना लिया और उनकी छह संतानों को जन्म लेते ही मार डाला। सातवीं संतान को देवकी के गर्भ से वसुदेव की दूसरी रानी रोहिणी के गर्भ में चमत्कारी ढंग से छोड़ दिया। जब आठवीं संतान कृष्ण ने जन्म लिया तो उनके पिता उन्हें चुपके से ले गए जहाँ ब्रज में नंद और यशोदा रहते थे। दैवी बालक को पार पहुँचाने के लिए यमुना का पानी उतर गया। नागराज अनन्त ने अपना फन फैलाकर वर्षा से उनकी रक्षा की। पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार वसुदेव ने नंद की नवजात कन्या योगेन्द्र अथवा योगमाया से उन्हें बदल लिया और अपना आठवां शिशु बताकर कंस को सौंप दिया परन्तु वह बालिका आकाश में उड़ गई और कहा कि नंद और यशोदा के यहां पल रहा बालक कृष्ण उसका संहार करेगा। इसके बाद कंस ने बालक कृष्ण की हत्या के लगातार असफल प्रयत्न किए। इस उद्देश्य से उसने विभिन्न रूपों में कई असुर ब्रज में भेजे । कृष्ण की बाल लीलाओं के संबंध में पुराणों में इन असुरों का संहार और सामान्य बालक के लिए असंभव वीरता प्रदर्शन कृष्ण की महिमा बढ़ाने के उद्देश्य से किया गया है। इनमें कुछ का महाभारत में भी उल्लेख है। जैसी कि आशा की जा सकती है, विद्वान इन वर्णनों से असहमत हैं। हम उनमें से कुछ का ही उल्लेख करते हैं जिन्हें पारवर्ती विद्वानों ने माना है।

     इनमें से प्रथम है पूतना वध । वह कंस के यहां धाय थी और कंस ने उसे हरिवंश (पुराण) के अनुसार एक गिद्धनी के रूप में भेजा था। भागवत के अनुसार वह एक सुंदरी के भेष में गई थी। उसने कृष्ण को दूध पिलाने के बहाने अपने विषयुक्त स्तन उनके मुँह में डाल दिए। उन्होंने उसके स्तनों को इतने जोर से चूसा कि उसके प्राण ही खींच लिए और वह धराशायी हो गई ।

     केवल तीन मास होने पर ही एक अन्य आश्चर्य कर दिखाया । यह एक शकट अथवा गाड़ी को तोड़ना था, जिसमें अनेक बर्तन लदे हुए थे। उनमें दूध-दही भरा था और लदी हुई गाड़ी उन पर चढ़ गई। 'हरिवंश' के अनुसार शकट कंस द्वारा भेजा गया असुर था, जिसे उन्हें कुचलने के लिए भेजा गया था। बहरहाल, यशोदा ने कृष्ण को गाड़ी के नीचे लिटा दिया और यमुना में स्नान करने चली गई। जब वह लौटकर आई तो बताया गया कि कृष्ण ने ठोकर मारकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए जो भूमि पर बिखरे पड़े थे । भयभीत यशोदा इससे आश्चर्यचकित रह गई। उसने अनहोनी टालने के लिए पूजा कराई।

     जब कृष्ण की हत्या के लिए पूतना और शकट के प्रयत्न विफल हो गए तो कंस ने अपना एक और दूत तृणव्रत भेजा । वह एक पक्षी के रूप में आया और उन्हें उड़ाकर आकाश में ले गया। कृष्ण तब मात्र एक वर्ष के थे परन्तु तृणव्रत निष्प्राण होकर धरती पर गिर पड़ा। कृष्ण उसकी गर्दन कसकर पकड़े हुए थे।

     अगला चमत्कार दो अर्जुन वृक्षों को उखाड़ना था, जो पास-पास खड़े थे। ये दोनों यक्षों के शरीर थे, जो शापवश वृक्ष बन गए थे और जिन्हें कृष्ण ने शापमुक्त किया । जब कृष्ण घुटनों के बल चलने लगे और नित नया उत्पात करने लगे तो यशोदा ने एक रस्सी लेकर उन्हें ओखली से बांध दिया जो भयानक शोर करते हुए गिर पड़ी, और कृष्ण को आंच भी न आई। यह सब देखकर नंद भयभीत हो गए और ब्रज छोड़कर अन्यत्र जाने का विचार करने लगे। जब वह ऐसा विचार कर रहे थे, भेड़ियों ने आतंक मचा दिया। वे पशुओं को उठाकर ले जाते थे। पूरी अव्यवस्था फैला दी। इससे उन खानाबदोशों ने ब्रज छोड़ने का इरादा कर लिया और वे सुंदर स्थान वृंदावन में चले आए। तब कृष्ण मात्र सात वर्ष के थे।

     नए स्थान पर आकर, कृष्ण ने अनेक असुरों का संहार किया। उनमें से एक अरिष्ट था जो एक वृषभ के रूप में आया। दूसरा था - केशिन, जिसने घोड़े का रूप धरा। पांच अन्य थे, वृत्रासुर, वकासुर, अघासुर, भोमासुर और संखासुर और अंत में यक्ष। इन सबसे महत्वपूर्ण था कालिया, सर्पों का राजा, जो अपने परिवार सहित यमुना की एक दह में रहता था और जिसने यमुना का जल दूषित कर दिया था। एक दिन कृष्ण कालिया के फन पर चढ़ गए और इतने जोर से नाचे कि उसने खून का वमन किया। कृष्ण उसे मार ही डालते परन्तु नाग-परिवार के अनुनय-विनय पर उन्होंने उसे छोड़ दिया और अन्यत्र जाने दिया ।

     कालिया विजय के पश्चात् वस्त्रहरण की घटना आती है, जो कृष्णोपासकों और पौराणिक प्रशंसकों के लिए एक धर्म-संकट है। पूरा वर्णन इतना अश्लील है कि उसका संकेत मात्र भी देना कठिन है क्योंकि वह सुपाठ्य नहीं है। परन्तु हम उसे यथासंभव शिष्ट रूप में उद्धृत कर रहे हैं जिससे कि कृष्ण के जीवन की झांकी मिल सके। देश के कुछ भागों में प्रचलित रीतियों के अनुसार कुछ गोपियां यमुना के किनारे वस्त्र छोड़कर नदी में नहा रही थीं। कृष्ण ने उनके कपड़े उठा लिये और नदी के किनारे एक वृक्ष पर चढ़ गए। जब उन्होंने अपने वस्त्र मांगे तो उन्होंने उस समय तक वस्त्र देने से इंकार कर दिया जब तक अपने वस्त्र लेने वे वृक्ष तक स्वयं चल कर न आएं। जब वे आ गईं तो कृष्ण प्रसन्न हुए और वस्त्र लौटा दिए । यह कथा भागवत में है।

     कृष्ण की दूसरी महिमा गोवर्धन पर्वत उठाना है। गोप वर्षा के देवता इन्द्र की वार्षिक पूजा की तैयारी कर रहे थे। उसके लिए भारी आयोजन हो रहा था। कृष्ण ने कहा कि “वे तो चरवाहे हैं, कृषक नहीं हैं, उनका वास्तविक देवता गौधन है, पर्वत और जंगल हैं, उन्हें इनकी ही पूजा करनी चाहिए । इन्द्र ऐसे देवता ही नहीं, जो वर्षा कराते हैं।” गोप मान गए और इन्द्र की पूजा के स्थान पर नाच-गाकर गोवर्धन पर्वत की पूजा की, जो गुरुओं का पालक है। इन्द्र को तो इससे क्रुध होना ही था और उन्हें दण्ड देने के लिए सात दिन तक रात-दिन वर्षा की। कृष्ण झुके नहीं। कृष्ण ने पर्वत को उखाड़ लिया और गांव के ऊपर छतरी की तरह तान दिया और इन्द्र के कोप से होने वाली वर्षा से होने वाली बर्बादी से पशुओं और गायों को बचा लिया। मैं पहले भी अपने प्रथम व्याख्यान में इन्द्र और ऋग्वेद के कृष्ण और बाद में शतपथ ब्राह्मण के कृष्ण और विष्णु के बीच का वैमनस्य वर्णित कर चुका हूं।

     कृष्ण की युवावस्था में रासलीला के माध्यम से वृंदावन की गोपिकाओं के साथ उनके अवैध संबंधों की भरमार है। इस लीला में स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के हाथों में हाथ डालकर नृत्य करते हैं। देश की कुछ वन्य जनजातियों में यह नृत्य अब भी प्रचलित है। यह कहा गया है कि कृष्ण वृन्दावन की युवा गोपियों के साथ प्राय: इस नृत्य के साथ मनोविनोद किया करते थे। विष्णु पुराण, हरिवंश पुराण और भागवत में ऐसे नृत्य का वर्णन है। इन सब लेखकों ने यह समझाने की चेष्टा की है कि कृष्ण के प्रति गोपिकाओं का प्रेम भक्तिभाव के कारण था, उसमें वासना रंच मात्र भी नहीं है। अन्य व्यक्तियों के विषय में इन्हीं लेखकों ने इसे अत्यधिक निंदित बताया है। ऐसे दृश्य, समय और ऋतु में मधुर संगीत के बीच स्त्रियों का मेल नृत्य और कृष्ण तथा उनकी कामुकता और उनके हावभावों की सामान्य मनोवृत्ति पर सब सहमत हैं। परन्तु विष्णु पुराण में कुछ हद तक शिष्टता है। वैसे कहीं-कहीं वह भी विचलित हो जाता है, 'हरिवंश' में स्पष्ट रूप से अशिष्टता है परन्तु भागवत तो नितांत अशोभनीय है।

     इस सब दुष्कर्मों से बढ़कर कृष्ण के जीवन में राधा नामक गोपी के बीच अवैध संबंधों की कहानी है ब्रह्मवैवर्त पुराण में इन अवैध संबंधों का चित्रण है। रुक्मिणी कृष्ण की ब्याहता और भार्या है। राधा का विवाह . से हुआ था। कृष्ण ने अपनी विवाहिता पत्नी रुक्मिणी को त्याग दिया और किसी अन्य की पत्नी के साथ खुल्लमखुल्ला रहने लगे।

     कृष्ण एक योद्धा भी थे और बाल्यकाल से ही राजनीतिज्ञ भी । उस समय उनकी आयु बारह वर्ष बताई जाती है। उनका प्रत्येक कार्य, चाहे युद्ध हो अथवा राजनीति, सब अनैतिक था। उनका सर्वप्रथम कार्य अपने मामा कंस की हत्या था। इसके लिए 'हत्या' शब्द कोई कठोर अभिव्यक्ति नहीं है। कंस ने यद्यपि उन्हें बार-बार क्रोध दिलाया तो भी उसे उन्होंने युद्ध में अथवा द्वंद्व में पराजित नहीं किया । आख्यान इस प्रकार है कि वृंदावन में कृष्ण की वीरताओं को सुनकर कंस आशंकित हो उठा और उसने निश्चय किया कि एक प्रदर्शन युद्ध में उसका वध किया जाए। इसी के अनुसार उसने धर्मयुद्ध का आयोजन किया जिसे धनुष यज्ञ कहा गया। उसने कृष्ण, बलराम और उनके साथी गोपों को इसके लिए आमंत्रित किया। कृष्ण का एक अनुषंगी परन्तु कंस का एक अधिकारी अक्रूर दोनों भाइयों को मथुरा लाने के लिए भेजा गया। वे सब कंस वध के लिए कटिबद्ध थे। उसने उन्हें और अन्य यादवों को उकसाया कि वे मथुरा चलें। दोनों भाइयों ने एक षडयंत्र रचा। मथुरा आने पर उन्होंने साधारण गोपों के वस्त्र त्यागकर अच्छे वस्त्र धारण करना चाहा और कंस के धोबी से वस्त्र मांगे, जो उन्हें गलियारे में मिल गया था। उस धोबी ने उनके साथ अशिष्टता दिखाई। उन्होंने उसे मार डाला और मनचाहे वस्त्र ले लिए। तब वे कुब्जा से मिले, जो एक कुबड़ी स्त्री थी और कंस के यहां इत्रफरोश (गंधी ) थी। उनके अनुरोध पर उसने उनका चंदनलेपन किया। इसके बदले में कृष्ण ने उसका कूबड़ ठीक कर दिया। भागवत में कहा गया है कि कृष्ण उससे अक्सर बराबर मिलने जाते। उनके मिलन को भागवत में चारित्रिक हीनता की कोटि का बताया गया है। फिर भी उस समय कुब्जा के चंदनलेपन से सुगंधित, सुदामा नामक माली से हार पहनकर यज्ञशाला में घुस गए और जिस ध नुष को यज्ञ के लिए रखा गया था, वह तोड़ डाला। भयभीत कंस ने कुबलयापीड नामक हाथी को उन्हें कुचलने के लिए भेजा। कृष्ण ने हाथी का वध कर दिया और मल्लशाला में घुस गए। वहां दोनों भाइयों ने कंस के विख्यात मल्लयोद्धा चाणूर, मुष्टिक, तोशालक और आंध्रा से सामना किया। चाणूर और तोशालक का संहार कृष्ण ने किया और शेष दो को बलराम ने मौत के घाट उतार दिया। कृष्ण वध की अपने योजना से विचलित होकर कंस ने दोनों भाइयों और उनके साथियों को खदेड़ने के आदेश दिए। उसने कहा, “ इनके पशु जब्त कर लो और वसुदेव, नंद और उग्रसेन का वध कर दो।" इसे सुनकर कृष्ण मंच पर आ गए जहां कंस बैठा था। उसके बाल पकड़ उसे नीचे खींच लिया और धरती पर गिरा कर उसका वध कर दिया। कंस की बिलखती रानियों को सांत्वना देकर उसका राजकीय ढंग से दाह संस्कार कराया। उग्रसेन ने उन्हें राज सौंपना चाहा। उन्होंने इंकार कर दिया। उसी को राजा बनाया और उसके छिपे हुए संबंधियों को मथुरा बुला लिया।

     कृष्ण का दूसरा संग्राम कालयवन और जरासंध से हुआ जो मगध का राजा था। जरासंध कंस का दामाद था। जब उसने कृष्ण द्वारा कंस वध का समाचार सुना तो वह मथुरा पर चढ़ गया। कहा जाता है कि उसने सत्रह बार मथुरा पर आक्रमण किया परन्तु प्रत्येक बार उसे कृष्ण ने मार भगाया। अगले आक्रमण को और विनाशकारी समझकर मथुरा त्याग कृष्ण यादवों को लेकर गुजरात प्रायद्वीप के द्वारका चले गए। यादवों के मथुरा चले जाने पर जरासंध के कहने पर कालयवन ने मथुरा को घेर लिया। जब वह निशस्त्र कृष्ण का पीछा कर रहा था तो मुचुकंद के नेत्रों से निकली ज्वाला से आक्रमणकारी भस्म हो गया। जो गुफा में सो रहा था और जिसे कालयवन ने कृष्ण समझकर उस पर आघात किया था। कृष्ण ने कालयवन की सेना को परास्त कर दिया किन्तु जब वे लूट का माल लेकर भाग रहे थे तो जरासंध ने घेर लिया। वे एक पहाड़ी पर चढ़ गए और वहां से कूदकर द्वारिका की तरफ भाग गए।

     अब कृष्ण का प्रथम विवाह हुआ। उन्होंने विदर्भराज, भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी से विवाह किया । रुक्मिणी का पिता जरासंध के कहने पर कृष्ण के फुफेरे भाई चेदि  राज, शिशुपाल से उसका विवाह रचा रहा था । परन्तु भावरों के एक दिन पूर्व ही रुक्मिणी का हरण कर लिया गया। भागवत का कथन है कि रुक्मिणी को कृष्ण से प्रेम हो गया था और उन्होंने कृष्ण को एक प्रेमपत्र लिखा था। यह सत्य नहीं लगता क्योंकि कृष्ण रुक्मिणी के सच्चे और आस्थावान पति नहीं थे। धीरे-धीरे रुक्मिणी की सौतों की कतार बढ़ती गई और वह संख्या सोलह हजार एक सौ साठ हो गई। उनकी संतान की संख्या एक लाख अस्सी हजार थी। उनकी पटरानियां भी आठ थीं, सत्यभामा, जाम्बवती, कालिन्दी, मित्रबिंदा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा । शेष सोलह हजार एक सौ के साथ एक ही दिन विवाह किया था। वे प्रागज्योतिष के राजा नरक की पत्नियां थीं, जिसका कृष्ण ने इन्द्र के आह्वान पर वध कर दिया था, नरक उनकी मां के कुण्डल ले आया था। युद्ध के पश्चात् जब कृष्ण सत्यभामा के साथ स्वर्ग में इन्द्र के पास गए तो उनकी पत्नी को पारिजात वृक्ष भा गया। अपनी पत्नी का मन रखने के लिए कृष्ण को उसी वैदिक देवता से युद्ध करना पड़ा, जिसकी उन्होंने सहायता की थी परन्तु भगवान के अवतार से लोहा लेना बहुत कठिन था। इसलिए इन्द्र को पारिजात वृक्ष देना पड़ा जो द्वारिका में लगा दिया गया। उन्होंने आठ पटरानियों से किस प्रकार विवाह किया, यह भी बड़ी रोचक कथा है। रुक्मिणी से उन्होंने कैसे विवाह किया, यह तो बताया जा चुका है। सत्यभामा सत्राजित की पुत्री थी, जो एक यादव राजा था और जिसने डरकर अपनी कन्या का विवाह कृष्ण से कर दिया था। जाम्बवती एक ऋक्ष प्रधान जाम्बवान की कन्या थी, जो यादवों से एक बहुमूल्य मणि लेकर भाग गया था और लम्बी लड़ाई के बाद उसने पराजित होकर अपनी कन्या उन्हें दे दी थी। कालिन्दी ने कृष्ण से विवाह करने के लिए अनेक तपस्याएं कीं और अंत में सफल रही। मित्रबिंदा कृष्ण की फुफेरी बहन थी और उसे स्वयंवर में जीतकर उन्होंने विवाह किया। सत्या अयोध्या के राजा नग्नजित की पुत्री थी। उन्होंने वीरता दिखाकर और कई बिगड़ैल बैलों को एक साथ मार कर नग्नजित की कन्या से विवाह हुआ। भद्रा उनकी फुफेरी बहन थी और उससे उनका विवाह सामान्य परिस्थितियों में हुआ। लक्ष्मणा मद्र देश के राजा बृहतसेन की पुत्री थी, जिसे उन्होंने स्वयंवर में प्राप्त किया था।

     सुभद्रा के साथ अर्जुन के विवाह में कृष्ण की भूमिका पढ़ने योग्य है, जो बलराम की सहोदर और कृष्ण की सौतेली बहन थी । अर्जुन अपनी यात्रा के समय तीर्थस्थान प्रभास पहुंचे। कृष्ण ने रैवतक पर्वत पर उनकी अगवानी की। वहां वह सुभद्रा पर अनुरक्त हो गया और कृष्ण से पूछा । यह उसे कैसे मिले? कृष्ण ने उसे परामर्श किया कि वह एक वीर क्षत्रिय की तरह स्वयंवर से पूर्व ही उसका हरण कर ले। पहले तो यादव इस कृत्य पर उबल पड़े परंतु जब उन्हें कृष्ण ने समझाया कि अर्जुन सुभद्रा का उत्तम पति होगा और उसका हरण करके अर्जुन ने कुछ अनुहोनी भी नहीं की है तो वे मान गए। और वे कर भी क्या सकते थे? कृष्ण ने सामान्य जन की भांति केवल तर्क ही नहीं दिए थे, बल्कि स्वयं ऐसा करके उदाहरण प्रस्तुत कर चुके थे।

     यह भी जानने योग्य तथ्य है कि कृष्ण ने जरासंध और शिशुपाल से कैसे जान छुड़ाई जिसने युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में विघ्न डाला था । जरासंध ने रुद्र की बलि चढ़ाने के लिए अनेक राजाओं को बंदी बना रखा था। जब तक उसका वध न किया जाता और बंदी राजा मुक्त न कर लिए जाते, फिर युधिष्ठिर की अधीनता स्वीकार करने न आते तो उनका चक्रवर्ती सम्राट होने का दावा पूर्ण न होता। इसलिए कृष्ण ने भीम और अर्जुन को साथ लेकर जरासंध की राजधानी राजगृह को प्रस्थान किया और उसे चुनौती दी कि वह इनमें से किसी एक के भी साथ द्वंद्वयुद्ध कर ले। कोई क्षत्रिय और जरासंध जेसा ऐसी चुनौती को अस्वीकार नहीं कर सकता था। उसने प्रतिद्वंद्वी के हाथों अपने वध का अनुमान लगाकर अपने पुत्र सहदेव को अपना उत्तराधिकारी चुना और भीम से लड़ने की घोषणा की। मल्लयुद्ध तेरह दिन तक चलता रहा और अंत में जरासंध का दुःखद वध हुआ। जरासंध के पुत्र सहदेव को गद्दी पर बैठाकर और मुक्त किए राजाओं को युधिष्ठिर के यज्ञ में उपस्थित होने के लिए आमंत्रित करके कृष्ण मित्रों सहित इन्द्रप्रस्थ चले आए।

     समय पर राजसूय का आयोजन हुआ। उत्सव से सम्बद्ध अनेक रीतियों में से ब्राह्मणों के चरण धोने का कार्य कृष्ण को सौंपा गया। महाभारत में अपेक्षाकृत आधुनिकता का यह स्पष्ट संकेत था। प्राचीन काल में यद्यपि ब्राह्मणों की क्षत्रियों पर श्रेष्ठता स्थापित हो चुकी थी किन्तु क्षत्रिय उन्हें ऐसा सम्मान नहीं देते थे। बहरहाल, जब यज्ञ समाप्त हो गया और सभा में उपस्थित राजाओं, पुरोहितों और अन्यों को सम्मिलित करने का समय आया तो अग्र सभासद कौन बने? यह प्रश्न उठा । युधिष्ठिर ने जब भीष्म से पूछा तो उन्होंने परामर्श दिया कि सर्वप्रथम कृष्ण का सम्मान किया जाए । तदनुसार युधिष्ठिर के कहने पर सहदेव ने कृष्ण का सम्मान करने के लिए अर्घ्य चढ़ाया और उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया। इससे शिशुपाल भड़क उठा। उसने कृष्ण को प्रथम सभासद बनाए जाने को चुनौती देते हुए, अपने लम्बे भाषण में पाण्डवों को अपशब्द कहे और कृष्ण को लताड़ा कि उन्होंने सम्मान को स्वीकार कर अनाधिकृत कर्म किया। इसके पश्चात् भीष्म उठे और उन्होंने कृष्ण के कार्यों और उपलब्धियों का उल्लेख करते हुए उनके देवत्व का वर्णन किया। शिशुपाल फिर उठ खड़ा हुआ । भीष्म की एक-एक बात का खण्डन करते हुए कृष्ण को भरपूर गालियां दीं। कृष्ण की हाल ही की जीवनियों में कृष्ण और ब्रज बालिकाओं के संबंधों का कोई प्रसंग नहीं है जिनको शिशुपाल ने उछाला। नए जीवनीकारों का स्पष्ट संकेत है कि विभिन्न पुराणों की कथाओं को वे स्वीकार नहीं करते। बहरहाल, शिशुपाल के वक्तव्य के अंत में भीष्म फिर उठे और उन्होंने देखा कि युधिष्ठिर शिशुपाल और उनके सहयोगियों से आशंकित हैं कि कहीं वे उत्सव में बाधा न डाले । इसलिए उन्होंने चेताया कि यदि वे अपना वध चाहते हैं तो कृष्ण को चुनौती दें और उस दैवी पुरुष से युद्ध कर ले। इस पर शिशुपाल ने कृष्ण को चुनौती दी और कृष्ण के अनेक कुकर्मों का बखान किया। तब कृष्ण ने कहा “ अपनी बुआ को दिए गए वचनानुसार मैंने शिशुपाल की एक सौ गालियों के लिए उसे क्षमा कर दिया है परन्तु अब जो अपशब्द उसने भरी सभा में मेरे विरुद्ध बोले हैं, उनके लिए मैं उसे क्षमा नहीं करूंगा। मैं आप सबके सामने इसका वध करता हूं।” उन्होंने अपना सुदर्शन चक्र चलाया और शिशुपाल का सिर काट दिया।

     अब महाभारत युद्ध में कृष्ण के कारनामे देखें। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:

     1. जब कृष्ण के मित्र सात्यिकी पर सोमदत्त पुत्र भूरिश्रवा भारी पड़ रहा था तो कृष्ण ने अर्जुन को उकसाया कि उसकी भुजा काट दे । इस प्रकार भूरिश्रवा का वध करने के लिए सात्यिकी का रास्ता साफ कर दिया।

     2. जब सात कौरव महारथियों ने अभिमन्यु को घेर कर मार डाला और अर्जुन ने प्रण किया कि यदि वह सूर्यास्त से पूर्व उन सातों के सरगना जयद्रथ का वध नहीं कर देंगे तो अग्नि में कूदकर प्राण दे देंगे। जब सूर्यास्त का समय था और जयद्रथ जीवित बच गया तो कृष्ण ने माया से सूर्य को छिपा दिया। इस पर जयद्रथ बाहर आ गया तो कृष्ण ने माया हटा ली और सूर्य निकल आया और अर्जुन ने जयद्रथ का वध कर दिया।

     3. जब द्रोण धर्मयुद्ध में पराजित नहीं हो रहे थे तो कृष्ण ने उन्हें अधर्म युद्ध में पराजित कराया। यदि उनके शस्त्र रखवा दिए जाएं तो उन्हें सरलता से समाप्त किया जा सकता है। यह तभी सम्भव है जब उनसे कहा जाए कि उनका पुत्र अश्वत्थामा मारा गया। भीम ने बताए तरीके के अनुसार अश्वत्थामा नामक हाथी को मार डाला। द्रोण यह सुनकर निराश तो हुए किन्तु उन्हें विश्वास नहीं आया। इस अवसर पर अनेक ऋषियों ने उन पर दबाव डाला कि वे शस्त्र डाल दें और ब्रह्म में ध्यान लगाकर स्वर्गगमन करें। इस पर उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर से अपने पुत्र के विषय में सही सूचना लेनी चाही। जब कृष्ण ने देखा कि युधिष्ठिर झूठ बोलने को तैयार नहीं हैं तो उन्होंने उन्हें बहुत समझाया। इसी दौरान उन्होंने असत्य भाषण का औचत्य वशिष्ठ स्मृति का उदाहरण देते हुए बताया- “ विवाह में, प्रेम में, मृत्यु, भय के समय सर्वस्व विनाश की आशंका पर और जब ब्राह्मण का हित दाव पर हो तो इन पांच अवसरों पर असत्य भाषण पाप नहीं है। "

     युधिष्ठिर का संशय दूर हो गया और उन्होंने कहा " अश्वत्थामा मारा गया है। " फिर दबे स्वर से कहा, “ हाथी या पुरुष" ( नरो व कुंजर), वाक्य का अंतिम भाग द्रोण नहीं सुन पाए। वे पूरी तरह टूट गए और भीम की ललकार सुनकर उन्हें विश्वास हो गया। उन्होंने हथियार डाल दिए और जब वे समाधिस्थ थे तो धृष्टद्युम्न ने उनका वध कर दिया।

4. जब भीम द्वैपायन सरोवर पर दुर्योधन से कठिन युद्ध कर रहे थे और उस पर पार पाने में असफल थे तो कृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से बताया कि वे उसकी जंघाओं पर प्रहार करें। तगड़ी के नीचे वार करना वर्जित होता था, यदि अधर्म युद्ध से उसकी जंघाएं न तोड़ी जातीं तो दुर्योधन का वध नहीं हो सकता था। कृष्ण ने वहीं प्रहार कराया।

     कृष्ण का देहावसान उनके चरित्र पर प्रकाश डालता है। कृष्ण का देहांत द्वारिका के राजा के रूप में हुआ। द्वारका कैसी थी और उनका निधन कैसे हुआ ?

     द्वारका की स्थापना करते समय कृष्ण ने वहां हजारों पतिताओं को बसाया। 'हरिवंश' कहता है- “हे शूरवीर! दैत्यों की नगरी पर यादवों की सहायता से विजय प्राप्त कर भगवान ने सहस्रों वार वनिताओं को द्वारका में बसा दिया । " नाचते-गाते और सुरापान करते पुरुषों ने स्त्रियों और वेश्याओं से विवाह रचा लिया। वे द्वारका में फैल गईं। हमें सागर क्रीड़ा का वर्णन मिलता है जिसमें ये स्त्रियां आनन्द का प्रमुख स्रोत थीं। नृत्य और गायन से कृष्ण और बलराम भी अपनी पत्नियों सहित आमोद-प्रमोद में सम्मिलित हुए। उनके साथ ही अन्य यादव सरदार, अर्जुन और नारद भी मिल गए । फिर एक नया उत्साह फैल गया। नर-नारी समुद्र में घुस गए और कृष्ण के कहने पर पुरुष नारियों के साथ जल-क्रीड़ा में रत हो गए। कृष्ण, उत्सव के नायक थे और बलराम भी आकर्षण का केन्द्र थे। फिर सभासदों ने भी अपने संगीत से समा बांध दिया। इसके पश्चात्, खाना-पीना आरम्भ हुआ और फिर संगीत की विशेष झंकारें निकलीं जिसमें नायकों ने विभिन्न वाद्यों पर अपने कौशल दिखाए। इससे पता चलता है कि यादवगण कितने रंगीले थे और ब्राह्मणों अथवा आधुनिक परिष्कारवादियों को कैसा उत्तर दिया जो नृत्य मंडलियों और लोकमंच से नाक-भौं सिकोड़ते हैं। ऐसी ही रंगरेलियां नशे की तरंग थी जिन्होंने यादवों को बरबाद कर दिया। कहा जाता है। कि अपने ऐसे ही बचकाने - पन से उन्होंने और बाद में उनके वंशजों ने ऋषियों को अप्रसन्न कर दिया। इन चुहलबाज युवकों ने कृष्ण के एक पुत्र साम्य को स्त्री के ऐसे वस्त्र पहना दिए, जिससे लगे कि उसको गर्भ ठहरा हुआ है। उसकी नाभि के नीचे लोहे की मूसली लटका दी और ऋषि से पूछा, "यह स्त्री क्या जनेगी?" क्रोध से भरे ऋषि ने कहा, “ये स्त्री मूसली जनेगी, जिनसे यादवों का विनाश होगा । " शाप से भयभीत होकर वे मूसली को समुद्र के किनारे ले गए और उसे घिस - घिस कर बुरादा बना दिया। परन्तु इसके कणों से धारदार घास सरकंडे पैदा हुए जिसकी उन्होंने संटियां बना लीं। इन्हीं संटियों से मार-मार कर यादवों ने परस्पर संहार कर डाला। वे आमोद-प्रमोद के लिए प्रभास गए। जहां उन्होंने सुरापान किया जो उनके विनाश का कारण बनी। सुरापान की लत इतनी फैल गयी कि कृष्ण और अन्य यादव प्रमुखों ने इसे मौत का पैगाम बताकर इस पर पाबंदी लगा दी। परन्तु इसका कोई प्रभाव नहीं हुआ। नशे में धुत्त यादवों में झगड़ा हुआ और फिर मारपीट। इससे उन्होंने एक-दूसारे को मार गिराया। जब कृष्ण के अपने पुत्र मारे गए तो वे भी लड़ाई में कूद पड़े और बहुत से अपने ही लोगों को मौत के घाट उतार दिया, तब वे बलराम की खोज में गए। उन्होंने देखा कि वे समाधि में बैठे हैं और शेषनाग के रूप में उनकी आत्मा जिसका वे अवतार थे, शरीर छोड़ रही है। कृष्ण ने विचार किया कि अब उनके भी प्रयाण का समय आ गया है। तब उन्होंने अपने पिता और पत्नियों से विदा ली और उनसे कहा कि अर्जुन उनकी देखभाल करेंगे। तब वे एक वृक्ष के नीचे बैठ गए फिर अपने को पत्तियों से ढांप लिया और ध्यानमग्न हो गए। जब वे इस प्रकार बैठे तो जरा नामक व्याध ने उन्हें भूल से हिरण समझ लिया और उन पर वही तीर चला दिया जो मूसली की बची हुई कील से उसने बनाया था। अपनी गलती जान कर जरा उनके पैरों पर गिर पड़ा। कृष्ण ने उसे क्षमादान दिया और एक ज्योति पुंज बन कर आकाश में विलीन हो गए। अर्जुन आए और बचे-खुचे यादवों को हस्तिनापुर ले गए। परन्तु उस अनुपम धनुर्धर का तेज नष्ट हो गया और उनकी भुजाओं की शक्ति जाती रही। कुछ लाठीधारी अहीरों ने उन पर आक्रमण कर दिया और बहुत सारी स्त्रियों को छीन कर ले गए और वे थोड़े-बहुत लोगों को हस्तिनापुर ला सके।

     अर्जुन के जाने के पश्चात् द्वारका समुद्र में डूब गई और यादवों तथा उनका वैभव, उनके पारिवारिक विवाद और उनकी रंगरेलियां सभी का नाम मिट गया।



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