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हिंदू धर्म की पहेलियां - ( भाग ८८ )  लेखक -  डॉ. भीमराव आम्बेडकर

परिशिष्ट- 1

राम और कृष्ण की पहेली

     राम वाल्मीकि कृत रामायण के नायक हैं। रामायण का कथानक बहुत संक्षिप्त है, साथ ही यह सरल भी है। इसमें कोई सनसनीखेज बात नहीं है।

Ram Aur Krishna Ki Paheliyan - Kaliyuga Ki Paheliyan - Riddle of Ram and Krishna - Hindu Dharm Ki Paheliyan - Riddle of Hinduism - dr Bhimrao Ramji Ambedkar     राम दशरथ के पुत्र हैं, जो आधुनिक बनारस के अयोध्याराज के शासक थे। दशरथ की तीन पत्नियां थीं। कौशल्या, कैकेयी तथा सुमित्रा तथा कई सौ रखैलें थीं। कैकेयी का दशरथ से विवाह, कुछ शर्तों पर हुआ था, जो विवाह के समय निश्चित नहीं की गई थीं और दशरथ वचनबद्ध थे कि कैकेयी जब कोई शर्त उनके सम्मुख रखेगी, वह उन्हें माननी होगी । दशरथ दीर्घकाल तक निःसंतान रहे। वे राज का उत्तराधिकारी पाने के लिए अधीर थे। यह देखकर कि उसकी तीनों रानियों में से किसी से भी पुत्र उत्पन्न होने की आशा नहीं है, उन्होंने पुत्रेष्टि यज्ञ करने का निश्चय कया और ऋष्यश्रृंग को यज्ञ हेतु बुलाया। ऋषि ने यज्ञ सम्पन्न करके पिंड नामक वस्तु तैयार की और दशरथ की तीनों पत्नियों को खाने के लिए दी। पिण्ड खाकर तीनों रानियां गर्भवती हो गईं और पुत्रों को जन्म दिया- कौशल्या से राम, कैकेयी से भरत और सुमित्रा से दो पुत्र लक्ष्मण और शत्रुघ्न उत्पन्न हुए। बाद में राम का सीता से विवाह हो गया। जब राम वयस्क हो गए तो दशरथ ने राम को राजपाट सौंपकर परिजनों को त्यागने का निश्चय किया। जब यह बात चल रही थी तो कैकेयी ने प्रश्न उठाया के अब वह उस वचन की पूर्ति चाहती है जो विवाह के समय दशरथ ने दिया था। उससे पूछे जाने पर कैकेयी ने बताया कि राम के स्थान पर उसके पुत्र को राज दिया जाए और राम को 12 वर्ष का वनवास । दशरथ बहुत हील हुज्जत के बाद मान गए। भरत अयोध्या के राजा हो गए और राम अपनी पत्नी सीता तथा सौतेले भाई लक्ष्मण के साथ वन को प्रस्थान कर गए। जब वे वनों में रह रहे थे तो लंकाधिपति रावण ने सीता का हरण कर लिया और उन्हें अपनी पत्नी बनाने की इच्छा से अपने महल में ले गया। तब राम ने लक्ष्मण को सीता की खोज आरम्भ करने को कहा । इस बीच उन्हें वानर जाति के दो प्रमुख सुग्रीव और हनुमान मिले। उन्होंने उनसे मैत्री कर ली। उनकी सहायता से सीता का पता मिल गया। उन्होंने लंका को कूच किया। युद्ध में रावण को हराया और सीता को मुक्त करा लिया। सीता और लक्ष्मण सहित अयोध्या वापस आ गए। उस समय तक चौदह वर्ष की अवधि बीत चुकी थी और कैकेयी की शर्त पूरी हो चुकी थी। परिणामस्वरूप भरत ने राज त्याग दिया और राम अयोध्या के राजा बन गए।


यह पक्की जिल्द की फाइल में रखी 49 पृष्ठों की टकित प्रति है जिसके साथ 'सिम्बल्स आफ हिंदुइज्म' की पाण्डुलिपि भी थी। मूल विषयसूची में यह पहेली नहीं दी गई। इसीलिए इसे परिशिष्ट के रूप में शामिल किया गया है। - संपादक


टिप्पणी इस अध्याय में व्यक्त विचारों में आवश्यक नहीं कि सरकार या यह  पर प्रकाशीत करनी वाली वेबसाईट  संचालक,  संपादक  की सहमति हो  ।  यह अध्‍याय  भारत सरकार और कई राज्‍य  सरकार  द्वारा भी  प्रकाशित किया गया है   ।


     वाल्मीकि के अनुसार रामायण की कथा का सार यही है ।

     इस कहानी में ऐसा कुछ नहीं है, जिससे राम को पूजनीय बनाया जा सके। यह मात्र एक आज्ञापालक और कर्त्तव्यपालक व्यक्ति हैं। परन्तु वाल्मीकि को राम में कुछ विलक्षण लगा, तभी उन्होंने रामायण की रचना की ।

     वाल्मीकि ने नारद से निम्नांकित प्रश्न किए¹:

     “हे नारद! मुझे बताओ कि वर्तमान समय में अत्यधिक आज्ञाकारी व्यक्ति पृथ्वी पर कौन हैं?"

     तब वे विस्तार से कहते हैं कि अत्यधिक आज्ञाकारी व्यक्ति से उनका आशय क्या है? वह ऐसे बताते हैं :

     “बलशाली, जो धर्मज्ञ हो, जो कृतज्ञता, सत्य को जानता हो, धर्मपालन के लिए जो विपदा में भी स्वार्थ त्यागने को तत्पर हो, व्यवहार में सद्गुण हों, सभी के हितों की रक्षा करता हो, आत्मसंयमी और सुदर्शन हो, क्रोध का दमन कर सके, अनुकरणीय हो, अन्य की सम्पन्नता से ईर्ष्या न करे और युद्ध में देवताओं को भी दहला दे । "

     नारद ने सोचने के लिए समय मांगा और काफी सोच-विचार के पश्चात् उन्होंने कहा, जिस व्यक्ति में ये सभी गुण हैं, वह केवल दशरथ - पुत्र राम हैं।

     गुणों के कारण ही राम को यह पद प्राप्त है।

     परन्तु क्या राम देवतत्व के योग्य हैं? जो उन्हें देववत पूजनीय मानते हैं, उन्हें निम्नांकित तथ्यों पर विचार करना चाहिए।

     राम का जन्म ही अप्रत्याशित था और यह सोचा जा सकता है क सच छिपाने का यह एक प्रतीक बना दिया गया कि उनका जन्म (पिण्ड) खाने से हुआ था, जो ऋष्य शृंग¹ ने तैयार किया था । यद्यपि दोनों पति-पत्नी नहीं थे फिर भी उनका जन्म यदि बदनामी की बात नहीं है तो भी अप्राकृतिक तो है ही ।


1. बालकाण्ड सर्ग 1 श्लोक 1-5


     राम-जन्म से संबंधित अन्य अरुचिकर घटनाएं भी हैं, जिनसे इंकार किया जाना कठिन है।

     वाल्मीकि रामायण का आरम्भ इसी बात से करते हैं कि राम विष्णु के अवतार थे जो दशरथ के पुत्र के रूप में उत्पन्न होने को तैयार हो गए। ब्रह्मा को इस बात का पता चला और वह सोचने लगे कि इस अवतार को पूर्ण सफलता मिले इसलिए उनके बलशाली सहयोगी बनाए जाएं, जो उनकी सहायता और सहयोग कर सकें। उस समय ऐसा कोई नहीं था।

     देवता ब्रह्मा का आदेश मानने के लिए तैयार हो गए और न केवल अप्सराओं बल्कि यक्षों, नागों की कन्याओं ऋक्षों, विद्याधरों, गंधव, किन्नरों और वानरों की वैध पत्नियों से भी व्यभिचार में लिप्त हो गए और राम की सहायता करने वाले वानर उत्पन्न किए।

     यदि उनका भी नहीं तो उनके सहयोगियों का जन्म तो दुरागमन से ही हुआ। सीता से उनका विवाह भी निर्विवाद नहीं है। सीता बुद्ध रामायण के अनुसार राम की बहन थी। दोनों दशरथ की संतान थे । वाल्मीकि रामायण, बुद्ध रामायण में दर्शाए गए सम्बन्धों से सहमत नहीं है। वाल्मीकि के अनुसार सीता विदेहराज जनक की पुत्री थी, राम की बहन नहीं। यह समझ के बाहर है क्योंकि स्वयं वाल्मीकि के अनुसार वह जनक की सामान्य प्रसूत पुत्री नहीं थी बल्कि अपने खेत में हल चलाते किसान को प्राप्त हुई थी, जो उसने जनक को दे दी। इसलिए यह ठोस कथन नहीं है कि सीता जनक की पुत्री थी। बुद्ध रामायण की कथा स्वाभाविक है, जो आर्यों की विवाह-पद्धति¹ से मेल खाती है। यदि यह ठीक है तो राम और सीता का विवाह आदर्श नहीं था जिसका अनुकरण किया जाए। राम के विषय में एक सद्गुण यह भी बताया जाता है कि वे एक पत्नीव्रत थे। यह समझना कठिन है कि यह आम धारणा कैसे बन गई? यह तथ्य पर आधारित नहीं है। यहां तक कि वाल्मीकि ने भी उल्लेख किया² है कि राम की अनेक पत्नियां थी² इसके साथ ही उनकी अनेक उप-पत्नियां भी थीं। इस प्रकार वे अपने नामधारी पिता के सच्चे पुत्र थे, जिनकी न केवल उपरोक्त वर्णित तीन पत्नियां थी अपितु अन्य भी अनेक थीं।

     अब हम उनके चरित्र की एक राजा और व्यक्ति के रूप में व्याख्या करें।

     उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में हम दो घटनाओं का उल्लेख करेंगे। एक बाली से संबंधित है और दूसरी उनकी पत्नी सीता से । सर्वप्रथम हम बाली को लें।

     बाली और सुग्रीव दो भाई थे। वे वानर जाति से संबंध रखते थे और एक राज - परिवार से थे। उनका अपना राज था जिसकी राजधानी किष्किंधा थी। जब बाली राजा था तो उसका मायावी नामक राक्षस से युद्ध छिड़ा हुआ था । द्वंद्वयुद्ध में मायावी अपनी जान बचाकर भागा और एक गहरी खोह में घुस गया। बाली ने सुग्रीव से कहा कि वह गुफा के भीतर जा रहा है, वह बाहर गुफा के मुंह पर प्रतीक्षा करे । कुछ देर बाद गुफा में से रक्त की धारा फूटी । सुग्रीव ने अनुमान लगाया कि बाली मायावी के हाथों मारा गया। किष्किंधा आकर उसने स्वयं को राजा घोषित कर दिया और हनुमान को अपना मंत्री बना लिया।


1. आर्यों में भाई-बहन के विवाह को मान्यता थी ।
2. अयोध्याकाण्ड सर्ग 8 श्लोक 12


     वास्तव में बाली मरा नहीं था बल्कि बाली ने मायावी को मार गिराया था। बाली गुफा से बाहर आया और देखा तो सुग्रीव वहां नहीं था। वह किष्किंधा आया तो यह देखकर चकित रह गया कि सुग्रीव राजा बना बैठा है। स्वाभाविक था कि इस दगाबाजी को देखकर बाली आगबबूला हो उठता, क्योंकि इसका कारण भी स्पष्ट था। सुग्रीव को अटकल पर ही निर्भर नहीं करना था । उसे देखना था कि बाली मृत है या जीवित। दूसरे बाली का एक पुत्र था अंगद । वह बाली का वैध उत्तराधिकारी था। उसे राजा बनाया जाना चाहिए था। सुग्रीव ने कुछ नहीं किया। यह विद्रोह का स्पष्ट मामला था। बाली ने सुग्रीव को खदेड़ दिया और गद्दी पर बैठ गया। दोनों भाई जानी दुश्मन बन गए।

य     ह घटना तभी घटी थी, जब रावण ने सीता का हरण किया था । राम और लक्ष्मण उनकी खोज कर रहे थे। सुग्रीव और हनुमान किसी मित्र की तलाश में थे, जो उन्हें बाली से राज्य वापस दिला सके। दोनों पक्षों में संयोगवश भेंट हो गई। जब दोनों ने एक-दूसरे की कठिनाइयों को सुना तो उनके बीच एक समझौता हुआ। यह सहमति हुई कि राम बाली का वध करने और सुग्रीव को किष्किंधा - राज दिलवाने में मदद करें। यह भी सहमति हुई कि सुग्रीव और हनुमान राम को सीता वापस दिलाने में सहायता करेंगे। बाली वध की योजना को कार्यरूप देने के लिए सुग्रीव अपने गले में माला पहन ले, जिससे द्वंद्वयुद्ध के समय सरलता से पहचाना जा सके। राम किसी वृक्ष की आड़ में छिप जाए और वहां से तीर चलाकर बाली का काम तमाम कर दें। तद्नुसार द्वंद्व आयोजित किया गया। जब युद्ध हो रहा था तो सुग्रीव के गले में माला थी। वृक्ष के पीछे छिपे राम ने निशाना साधा। सुग्रीव किष्किंधा का राजा बन गया। बाली की हत्या राम के चरित्र पर बहुत बड़ा धब्बा है। यह एक ऐसा अपराध था, जो एकतरफा था क्योंकि बाली का राम से कोई विवाद नहीं था । यह कायरता भी थी क्योंकि बाली निहत्था था । यह एक सुनियोजिता और सुविचारित हत्या थी ।

     अब यह देखें कि उन्होंने अपनी ही पत्नी सीता के साथ क्या व्यवहार किया? जब सुग्रीव और हनुमान ने सेना एकत्र कर ली तो राम ने लंका पर आक्रमण कर दिया । यहां भी राम ने वही चाल चली जो बाली और सुग्रीव के बीच चली थी। उन्होंने इस शर्त पर रावर्ण के भाई विभीषण से सहायता ली कि रावण और उसके पुत्रों को मार विभीषण को राज दे दिया जाएगा। राम ने रावण और पुत्र इन्द्रजीत का वध कर दिया। युद्ध समाप्ति पर राम ने सबसे पहला कार्य रावण की विधिवत अंतयेष्टि करके किया। इसके पश्चात् विभीषण का राज्याभिषेक कराया गया। तब उन्होंने हनुमान को सीता के पास भेजा और सूचित कराया कि वे लक्ष्मण और सुग्रीव सकुशल हैं और उन्होंने रावण का संहार कर दिया है।

     रावण पर विजय प्राप्त करने के उपरांत उन्हें सीधे सीता के पास जाना चाहिए था। उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्हें राजतिलक की ज्यादा चिंता है, सीता की नहीं । यहां तक कि राजतिलक के पश्चात् भी वे स्वयं न जाकर हनुमान को भेजते हैं। और वह संदेश क्या देते हैं? वे हनुमान को सीता को लाने के लिए नहीं कहते। वे सिर्फ यह खबर भेजते हैं कि वे स्वस्थ और प्रसन्न हैं। यह सीता है जो हनुमान से राम से मिलने की बात कहती है। राम सीता से मिलने गए ही नहीं जो उनकी पत्नी थी, जिसका रावण ने अपहरण कर लिया था और उसे 10 माह कैद में रखा था। सीता उनके पास लाई गई। जब सीता राम से मिली तो राम ने क्या कहा? इस बात पर कोई यकीन नहीं करेगा कि आदमी में साधारण मानवीय दया भी न हो। जो दुख में घिरी अपनी पत्नी को कठोर वचन बोलेगा जैसे कि राम ने बोले जब वह लंका में उससे मिले। वाल्मीकि साधिकार रामायण में कहते है। जैसे कि राम¹ ने कहा:

     “मैंने अपने शत्रु, तुम्हारे अपहर्ता को युद्ध में परास्त कर तुम्हें इनाम के तौर पर पाया है। मुझे मेरा सम्मान मिल गया और दुश्मन को हरा दिया है। मुझे परिश्रम का फल मिल गया है तथा लोगों ने मेरी सैनिक शक्ति देखी। मैं अपनी अपकीर्ति मिटाने आया था। मैंने तुम्हारे लिए यह कष्ट थोड़े ही उठाया है। "

     राम के सीता के प्रति किए गए इस व्यवहार से बड़ी क्या कोई और भी कठोरता हो सकती है? वे यहीं नहीं रुके। उन्होंने आगे कहा:

     “मुझे तुम्हारे चरित्र पर संदेह है। रावण ने तुम्हारा शीलभंग किया होगा। मुझे तुम्हें देखते ही उबाल आ रहा है। मैं तुम्हें स्वतंत्र करता हूं। जहां मन करे जाओ । हे जनक सुता! मुझे तुमसे कोई लेना-देना नहीं। मैंने तुम्हें जीता, इसका मुझे संतोष है। यही मेरा लक्ष्य था। मैं यह नहीं सोच सकता कि तुम जैसी सुन्दर नारी से रावण ने आनन्द नहीं लूटा होगा। "

     स्वाभाविक है कि सीता उन्हें पतित और क्षुद्र कहती और स्पष्ट रूप से कहती कि जब हनुमान आए थे, यदि तभी उन्हें यह संदेश भिजवा दिया गया होता कि अपहरण के कारण राम ने उन्हें मन से निकाल दिया है तो वे आत्महत्या कर लेतीं और उन्हें  यह कष्ट नहीं उठाना पड़ता। उन्हें कोई अवसर दिए बिना सीता ने अपनी पवित्रता का प्रमाण दिया। वे अग्नि-परीक्षा में सफल हुई। इससे देवता प्रसन्न हुए और इस परीक्षा के पश्चात उन्होंने सीता को पवित्र घोषित किया। इसके पश्चात् ही राम सीता को अयोध्या ले जाने के लिए सहमत हुए। और जब वे उन्हें अयोध्या ले आए तो उन्होंने उनके साथ कैसो व्यवहार किया? वे राजा बन गए और सीता रानी । परन्तु राम तो राजा बने रहे और सीता का यह पद जल्दी ही छिन गया । यह काण्ड राम की सबसे बड़ी अपकीर्ति है। वाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि राम के राजतिलक के कुछ समय पश्चात् ही सीता गर्भवती हो गई। ऐसा सुनकर कि सीता गर्भवती है, दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों ने विषदमन किया कि ऐसा लगता है कि सीता जब लंका में थीं तो वे रावण से गर्भवती हुईं। उन्होंने राम पर अक्षेप लगाया कि वे एक ऐसी स्त्री को पत्नी के रूप में वापस ले आए। इस कानाफूसी को राम की राजसभा का विदूषक भद्र महल में लेकर आया । राम स्वाभाविक रूप से ऐसे लांछन को सुनकर स्तंभित रह गए। वे जुगुप्सा से भर उठे । यह स्वाभाविक भी था। प्रश्न यह था कि इस अपयश से किस प्रकार मुक्ति पाई जाए? इस कलंक से मुक्ति का उन्हें सरलतम उपाय यह मिला कि सीता को त्याग दिया जाए। एक स्त्री को, जो गर्भावस्था में है, न कोई दासी, साधनों के बिना जंगलों में छोड़ देना और यह भी उसे पूर्वसूचना दिए बिना ! इसमें कोई संदेह नहीं कि सीता को अचानक त्याग देने का विचार ही उनके मन में न आया होगा। विचार उत्पन्न होने और उसके पनपने और कार्यरूप देने की योजना बनाने में कुछ समय अवश्य लगा होगा। जब भद्र ने उन्हें नगर में होने वाली अफवाहों के विषय में बताया तो उन्होंने अपने भाइयों को बुलाया और उन्हें अपनी भावनाएं बताईं। राम ने कहा "सीता की पवित्रता और सतीत्व लंका में ही प्रमाणित हो चुके थे। देवों ने भी इसका अनुमोदन किया था और उन्हें सीता की सच्चाई, पवित्रता और सतीत्व पर विश्वास है। इसके बावजूद प्रजा सीता पर लांछन लगाती है और मुझ पर उंगली उठाती है। ऐसा अपमान कोई नहीं सह सकता। सम्मान सबसे बड़ी सम्पत्ति है। देवता और महापुरुष उसे क्षति नहीं पहुंचने देते। मैं यह अपमान और अपकर्ष नहीं सह सकता। ऐसी अपकीर्ति से बचने के लिए मैं तुम्हें भी छोड़ सकता हूं। ऐसा न समझना कि मैं सीता को त्यागने में संकोच करूंगा । "


1. युद्धकाण्ड सर्ग. 115 श्लोक 1-23


     इससे पता चलता है कि उन्होंने सीता को त्यागने का मन बना लिया था, यह विचार किए बिना कि जो वे कर रहे हैं, वह सही है या गलत। उन्होंने प्रजा के लांछनों से बचने का सरलतम उपाय ही अपनाया। सीता के जीवन का कोई मूल्य नहीं। मूल्य था तो उनकी प्रतिष्ठा का। उन्होंने प्रजा में ऐसी अफवाहें रोकने का कोई प्रयत्न नहीं किया, जो एक राजा के रूप में उनका कर्त्तव्य था, जो एक स्त्री के पति के रूप में उनका दायित्व था जिसकी वे परीक्षा ले चुके थे। वे प्रजा की कानाफूसी के आगे झुक गए। हिंदुओं में ऐसे लोगों का अभाव नहीं है, जो प्रमाणित करने की चेष्टा करते हैं कि राम एक प्रजातांत्रिक राजा था । किन्तु ऐसे लोग पर्याप्त संख्या में हैं जो उन्हें दब्बू और भीरु मानते हैं।

     अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा की यह क्रूर योजना उन्होंने अपने भाइयों को तो बता दी किन्तु सीता को नहीं बताई, जिनसे उनका प्रत्यक्ष संबंध था। क्योंकि वही प्रभावित होनी थी तो उन्हीं को बताया जाना चाहिए था । परन्तु उन्हें पूर्ण अंधकार में रखा गया। राम सीता से उस रहस्य को छिपाए रहे, जब तक उस पर पालन न हो गया। सीता के दुर्भाग्य से वह समय भी आया, जब उनकी प्रतीक्षित योजना क्रियान्वित हुई। जो स्त्रियां गर्भवती होती हैं, उनके मन में छोटी-मोटी ललक हुआ करती है। राम यह जानते थे। इसलिए एक दिन उन्होंने सीता से पूछा कि तुम्हारा किसी वस्तु को मन तो नहीं करता है। उन्होंने कहा, 'हां' करता है। राम ने पूछा, "वह क्या है।" सीता ने कहा, 'वह गंगा किनारे किसी ऋषि के आश्रम में कंद-मूल खाकर कम से कम एक रात बिताना चाहती हैं। ' राम को और क्या चाहिए था। तपाक से हां भर दी, “ निश्चित रहो प्रिये! मेरी कोशिश होगी कि तुम्हें कल ही भेज दूँ।” सीता ने इसे सीधे स्वभाव से लिया। परन्तु राम ने क्या किया? उन्होंने सोचा सीता से पिण्ड छुड़ाने का यह अच्छा अवसर है। उन्होंने अपने भाइयों से कहा कि वे सीता के संबंध में बीच में न आएं और यदि आते हैं तो शत्रु समझे जाएंगे। तब उन्होंने लक्ष्मण से कहा, "वह सेवेर ही सीता को गंगा के किनारे जंगल में आश्रम में छोड़ आएं। ” लक्ष्मण किंकर्तव्यमूढ़ थे कि वे सीता को राम का फैसला कैसे बताएं? उनकी मनोदशा को पहचानते हुए राम ने लक्ष्मण को बताया कि सीता ने स्वयं ही इच्छा प्रकट की है कि वे कुछ समय आश्रम में गंगा किनारे बिताना चाहती हैं। इससे लक्ष्मण को थोड़ा धैर्य बंधा। यह दुरभिसंधि रात को हुई थी । सवेरे कहीं लक्ष्मण ने सुमंत से कहा कि वह रथ के घोड़े तैयार करें। सुमंत ने लक्ष्मण को बताया कि सब तैयार है। तब लक्ष्मण रनिवास में गए और सीता से मिले कि वे कुछ दिन आश्रम में बिताना चाहती हैं। राम ने अपना वायदा निभाते हुए, उनसे ऐसा करने को कहा है। उन्होंने कहा, "वह रथ खड़ा है चलिए । " सीता राम का आभार मानकर रथ पर चढ़ गई। लक्ष्मण और सीता को बिठाकर सुमंत निर्दिष्ट स्थान की ओर चल दिए । अंत में वे गंगा के किनारे पहुंच गए, केवटों ने उन्हें पार उतार दिया। लक्ष्मण सीता के चरणों में गिर पड़े और आंखों से गर्म-गर्म आंसू टपकाते हुए कहा- "हे निर्दोष रानी ! मेरी करनी पर मुझे क्षमा करो। मुझे आदेश है कि मैं तुम्हें यहीं छोड़ जाऊं क्योंकि लोग आपके कारण राम पर आक्षेप करते हैं। "

     राम ने सीता को त्याग दिया और उनके हाल पर जंगल में छुड़वा दिया। वे पास ही वाल्मीकि के आश्रम में चली गईं। वाल्मीकि ने उन्हें शरण दी । सीता ने वहीं जुड़वा पुत्रों-लव और कुश को जन्म दिया। तीनों वाल्मीकि के यहां रहने लगे। वाल्मीकि ने बालकों का लालन-पालन किया और उन्हें रामायण की कथा गायन सिखाया, जो उन्होंने स्वयं रची थी। राम के राज्य के पास ही वे बालक 12 वर्ष तक जंगलों में ऋषि के आश्रम में पलते रहे। आदर्श पति और प्रिय पिता ने यह जानने की कभी चेष्टा नहीं की कि सीता जीवित है या मर ही गई। राम 12 वर्ष पश्चात् सीता से अद्भुत दशा में मिले। राम ने एक यज्ञ किया और उसमें सभी ऋषियों को भाग लेने के लिए बुलाया । राम ने जान-बूझकर वाल्मीकि को आमंत्रित नहीं किया। परन्तु वाल्मीकि अपनी ओर से ही सीता के दोनों पुत्रों को, अपने शिष्यों के रूप में साथ लेकर यज्ञ में पहुंच गए। जब यज्ञ चल रहा था तो दोनों बालकों ने सभा में रामायण का गायन आरम्भ किया। राम बड़े आनन्दित हुए और बालकों के विषय में पूछा तो उन्हें बताया गया कि वे सीता के पुत्र हैं। तब उन्हें सीता की याद आई परंतु फिर भी उन्होंने क्या किया? वे सीता के पास नहीं गए। उन्होंने अबोध बालकों को बुलाया, जो अपने माता-पिता के पाप के विषय में कुछ नहीं जानते थे। वे तो एक अत्याचार के शिकार थे। उन्होंने वाल्मीकि से कहा कि " सीता यदि पवित्र और सती हैं तो वे सभा में आएं और अपने ऊपर लगाए गए कलंक को धोकर अपना सतीत्व प्रमाणित करें। आखिर वे लंका में ऐसा कर चुकी हैं।" ऐसा तो उन्हें जंगल में छोड़ जाने से पूर्व भी कहा जा सकता था। राम ने ऐसा कोई वचन भी नहीं दिया कि परीक्षा में सफल हो जाने पर वे सीता को फिर रख लेंगे। वाल्मीकि ने सीता को सभा में प्रस्तुत किया। जब पति-पत्नी आमने-सामने थे, वाल्मीकि बोले, " हे दशरथ के पुत्र यह सीता खड़ी हैं, जिसे तुमने लोगों की कानाफूसी के कारण त्याग दिया था, जिन्हें मैंने अपने आश्रम में पाला है।" राम ने कहा, “मैं जानता हूं कि सीता पवित्र है और यह मेरे पुत्र हैं। इन्होंने लंका में भी अपने सतीत्व का प्रमाण दिया है। मैं इन्हें साथ ले आया परन्तु लोगों को अभी सन्देह है। सीता वह परीक्षा यहां भी दे, जिसे सभी ऋषि और प्रजा भी देख ले। "

     सीता ने नेत्र भूमि पर गड़ाए। दोनों हाथ जोड़कर प्रण लिया, “यदि मैंने सपने में भी राम को छोड़कर, कभी किसी व्यक्ति का विचार भी किया हो तो धरतीमाता तू फट जा और मुझे अपने में समा ले। यदि मैंने सदा राम को प्यार किया हो, मेरे कार्यों और विचारों में वही बसे हों तो धरतीमाता तू फट जा और मुझे अपने में समा ले। " जब उन्होंने यह प्रतिज्ञा दोहराई तो धरती फट गई। एक स्वर्ण सिंहासन उभरा। वह उस पर विराज गईं। आकाश से पुष्पों की वर्षा हुई। सभी देखकर आनन्दविभोर हो गए ।

     इसका अर्थ है कि सीता ने राम के पास वापस जाने के बजाय मर जाना बेहतर समझा। जिस राम ने उसके साथ कसाई से अच्छा व्यवहार नहीं किया था, यह उस सीता की गति और राम का पाप था।

     राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है। क्या इससे यह प्रमाणित होता है?

     वास्तविकता यह है कि राम ने कभी राजपाट किया ही नहीं। वह तो सांकेतिक राजा थे। वाल्मीक के अनुसार शासन-कार्य भरत देखते थे। राम ने राज-काज और प्रजा की चिंताओं से मुक्ति पा ली थी। राम के राजा बनने के बाद की दिनचर्या का वाल्मीकि ने बहुत बारीकी से वर्णन किया है।¹ उसके अनुसार पूरा दिन पूर्वाहन और अपराह्न में विभाजित रहता था । सवेरे से मध्याह्न तक वह पूजा पाठ में व्यस्त रहते थे। अपराह्न वे क्रमशः दरबारी विदूषकों और अंतःपुर में व्यतीत करते थे²। जब वे रंग महल से ऊब जाते थे तो विदूषकों की संगति करते थे और जब विदूषकों से ऊब जाते थे, रंगमहल में चले जाते थे। वाल्मीकि विस्तार से बताते हैं कि राम रनिवास में कैसे समय बिताते थे? यह रंग महल अशोक वन नामक उपवन में था। वहीं राम भोजन करते थे। वाल्मीकि के अनुसार उनके भोजन में अनेक स्वादिष्ट व्यंजन होते थे। उसमें मांस, फल और मदिरा सम्मिलित थी। राम मद्य त्यागी नहीं थे। वे प्रचुर मात्रा में मदिरापान करते थे और सीता को भी मदिरापान में सहभागिनी बनाते थे।³ राम के अंतःपुर का जैसा वर्णन वाल्मीकि ने किया है, वह कोई मामूली बात नहीं है। नाच-गाने में अप्सराएं, उरग और किन्नर बालाएं सम्मिलित होती थीं। अन्य क्षेत्रों से भी सुन्दर नारियां लाई जाती थीं। राम सुरा और सुंदरियों के मध्य विराजते थे । वे राम को आनन्दित करतीं और राम उन्हें माला पहनाते । वाल्मीकि ने राम को स्त्रियों के प्रिय पुरुषों का राजकुमार कहा है। यह उनकी एक दिन की जीवनचर्या नहीं थी । यह उनके जीवन की नियमित गति थी ।

     जैसा कि पहले कहा जा चुका है, राम ने प्रजा कार्यों से हाथ खींच रखा था। वह अन्य भारतीय राजाओं की तरह प्रजा का दुख-दर्द सुनकर निवारण का कोई प्रयास नहीं करते थे। वाल्मीकि के अनुसार मात्र एक अवसर पर उन्होंने व्यक्तिगत रूप से किसी की शिकायत सुनी। किन्तु दुर्भाग्य से यह घटना बहुत दुखांत है। उन्होंने किसी की एक गलती के लिए स्वयं इतना बड़ा अपराध किया, जिसकी इतिहास में मिसाल नहीं है। यह घटना थी- एक शुद्र शम्बूक की हत्या वाल्मीकि ने लिखा है- “राम-राज्य में किसी की अकाल मृत्यु नहीं होती थी । परन्तु किसी ब्राह्मण के पुत्र की अकाल मृत्यु हो गई । दुःखी पिता मृत पुत्र के शव को राजा के महल पर ले आया और वहीं रख दिया और जोर-जोर से विलाप करने लगा और अपने पुत्र की मृत्यु पर राम को भांति-भांति से कोसने लगा। वह कह रहा था कि इसके राज्य में यह पापाचार का परिणाम है और यदि राजा अपराधी को दण्ड नहीं देगा तो वह पुत्र उसे नहीं मिलेगा। वह राम के द्वार पर अनशन करेगा और अन्न-जल लिए बिना अपने प्राण त्याग देगा। राम ने नारद और आठ विद्वान ऋषियों की सभा बुलाई। उन्होंने कहा कि उनकी प्रजा में से सम्भवत: कोई शूद्र तपस्या कर रहा है। यह धर्म विरुद्ध है क्योंकि तपस्या करने का अधिकार मात्र द्वि जों को है। राम समझ गए कि धर्म का उल्लंघन करके वह पाप कर रहा है। उसी के कारण ब्राह्मण का पुत्र मर गया। इसलिए राम ने अपना पुष्पक विमान मंगाया और राज्य के आंतरिक भागों में अपराधी को खोजा। अंत में घने जंगलों में सुदूर दक्षिण में उन्होंने एक व्यक्ति को कठोर तपस्यारत देखा। वे उसके पास गए और उसके यह बताने के बाद कि वह शम्बूक नाम का शूद्र है और वह सशरीर स्वर्ग जाने के लिए तपस्या कर रहा है, उन्होंने उसे चेताया तक नहीं, अनधिकृत कार्य न करने के लिए समझाया भी नहीं। बस! बेझिझक उसका सिर काट दिया। देखा ! उसी समय दूर अयोध्या में बाह्मण पुत्र की सांस चलने लगी। जंगल में देवताओं ने पुष्प वर्षा की कि राजा ने एक शूद्र को आकाश में उनकी नगरी में आने से रोक दिया, जो तपस्या के बल पर वहीं पहुंच जाता जिसे तपस्या का अधिकार नहीं है। वे राम के सम्मुख प्रकट हुए और उन्हें बधाई दी । जब राम ने ब्राह्मण के पुत्र को जीवित करने का अनुरोध किया तो उन्होंने बताया कि वह जीवित हो चुका है। फिर वे चले गऐ। राम तब पास ही अगस्त्य ऋषि के आश्रम में पहुंचे। उन्होंने शम्बूक को दी गई सजा पर उनकी प्रशंसा की और उन्हें एक ताबीज भेंट किया। राम राजधानी लौट आए।" ऐसे थे राम !


1. उत्तरकाण्ड सर्ग 42 श्लोक 27
2. उत्तरकाण्ड सर्ग 43  श्लोक
3. उत्तरकाण्ड सर्ग 42 श्लोक 8




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