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हिंदू धर्म की पहेलियां - ( भाग ४ )  लेखक -  डॉ. भीमराव आम्बेडकर

पहली पहेली

यह जानने में कठिनता कि कोई हिंदू क्यों है ?

     भारत समुदायों का समूह है। इसमें पारसी, ईसाई, मुसलमान और हिंदू हैं। इन समुदायों का आधार प्रजातीय नहीं है। यह वास्तव में धार्मिक है। ऐसा सोचना एक सतही विचार है। यह जानना मजे की बात है कि कोई पारसी एक पारसी क्यों है? एक ईसाई ईसाई क्यों है? एक मुसलमान मुसलमान क्यों है और एक हिंदू एक हिंदू क्यों है? पारसी, ईसाई और मुसलमानों के बारे में तो ठीक है? आप किसी पारसी से पूछें कि आप पारसी क्यों कहलाते हैं, वह वह सहजता से आपके प्रश्न का उत्तर दे देगा। वह कहेगा कि वह जरथुस्त्र का अनुयायी है, इसलिए वह पारसी है। यही सवाल किसी ईसाई से किया जाए। उसे भी जवाब देने में कठिनाई नहीं होगी। वह ईसाई है क्योंकि वह ईसा मसीह में विश्वास रखता है। यही सवाल किसी मुस्लिम से किया जाए। उसे भी इसका जवाब देने में संकोच नहीं होगा। वह कहेगा कि वह इस्लाम में विश्वास करता है और इसीलिए वह मुसलमान है।

Difficulty in knowing why someone is a Hindu - Hindu Dharm Ki Paheliyan - dr Bhimrao Ramji Ambedkar     यही प्रश्न आप अब किसी हिंदू से पूछें। निःसंदेह वह असमंजस में पड़ जाएगा और जवाब ढूंढ ही नहीं पाएगा। यदि वह कहता है कि वह इसलिए हिंदू है कि वह उसी देव की आराधना करता है जिसकी हिंदू समाज करता है। उसका यह उत्तर सही हो ही नहीं सकता क्योंकि हिंदू किसी एक ही देव के उपासक नहीं हैं। कुछ हिंदू एकेश्वरवादी हैं, कुछ बहुदेववादी हैं और कुछ सर्वेश्वरवादी हैं। यहां तक कि जो एकेश्वरवादी हैं, वे भी किसी एक ही देव की अर्चना नहीं करते। कुछ विष्णु की पूजा करते हैं, कुछ शिव की कुछ राम की और कुछ कृष्ण की। कुछ नर भगवानों की पूजा नहीं करते। वे देवी की पूजा करते हैं। इस पर भी, वे समान देवियों की पूजा नहीं करते। वे विभिन्न देवियों की पूजा करते हैं। कुछ काली की उपासना करते हैं, कुछ पार्वती की और कुछ लक्ष्मी की ।

     अब देखें बहुदेववादियों को। वे समस्त भगवानों की पूजा करते हैं। वे विष्णु और शिव की पूजा करेंगे तो राम और कृष्ण की भी। वे काली, पार्वती और लक्ष्मी की पूजा करेंगे। एक हिंदू शिवरात्रि का व्रत रखेगा, जो शिव के लिए परम पावन है। वह एकादशी के दिन व्रत रखेगा जो विष्णु के लिए पवित्र है । वह शिव की प्रसन्नता के लिए बेल वृक्ष रोपेगा और विष्णु की अर्चना में तुलसी ।

     बहुदेववादी पूजा-अर्चना के विषय में केवल हिंदू देवी-देवताओं तक ही आस्थावान नहीं हैं। हिंदू को मुस्लिम पीर अथवा ईसाई प्रभु की पूजा से भी कोई संकोच नहीं हजारों हिंदू मुसलमान पीरों के मजार पर चादर चढ़ाते हैं। दरअसल कुछ स्थानों पर मुसलमान पीरों के पुजारी वंशानुगत रूप से ब्राह्मण हैं और वे मुसलमान पीरों जैसी अलफी पहनते हैं। हजारों हिंदू बंबई के पास ईसाई देवी मांट मौली की पूजा करते हैं।

     मुस्लिम और ईसाई देवताओं का सिजदा तो केवल विशेष अवसरों पर ही किया जाता है, बल्कि उनमें कुछ सत्त आस्थाएं भी हैं। अनेक ऐसे हिंदू नामधारी व्यक्ति हैं जिनकी इस्लाम में आस्था है। इनमें से अनेक ऐसे लोग मिलेंगे जो विचित्र पंचप्रिय पंथ के अनुयायी हैं। वे पांच मुस्लिम पीरों के मुरीद हैं, जो स्वयं गुमनाम हैं। उन पर मुर्गे चढ़ाते हैं। उनका प्रयोजन वैसा ही लगता है जैसा मुस्लिम फकीर दफाली का था। पूरे भारत में ऐसे हिंदुओं का अभाव नहीं जो मुसलमानों के मजारों, दरगाहों की जिआरत करते हैं जैसे पंजाब का सखी सरोवर ।

     "मलकानों" के बारे में ब्लंट ने कहा है कि आगरा और आस-पास के जिलों में, मुख्य रूप से मथुरा, एटा और मैनपुरी जिलों में वे हिंदुओं से मुसलमान बने हैं। वे राजपूतों, जाटों और बनियों के वंशज हैं। वे आमतौर से अपने को मुसलमान नहीं गिनते, बल्कि अपनी मूल जाति गिनाते हैं। कभी-कभी स्वयं को मलकान कहते हैं। उनके नाम हिंदुओं जैसे हैं और वे मंदिरों में पूजा करते हैं। वे अभिवादन में "राम राम” करते हैं। उनका शादी - व्यवहार मुख्यतः आपस में ही है। दूसरी तरफ वे मस्जिदों में नमाज अता करते हैं, खतना कराते हैं, मुर्दों को दफनाते हैं और जान-पहचान के मुसलमानों के साथ खाते-पीते हैं।

     गुजरात में कई ऐसे सम्प्रदाय हैं - जैसे मटिया कुनबी जो अपने मुख्य अनुष्ठानों में ब्राह्मणों को बुलाते हैं, परन्तु पीराना संत इमाम शाह और उनके उत्तराधिकारियों के मुरीद हैं। शेख लोग अपने यहाँ शादी-विवाह में पंडित और काजी दोनों को बुलाते हैं। मोमन सुन्नत कराते हैं, मुर्दों को दफनाते हैं। और गुजराती में कुरान पढ़ते हैं। लेकिन अन्य कार्यों में उनके रीति-रिवाज हिंदुओं जैसे हैं।

     यदि कोई कहता है कि वह इसलिए हिंदू है कि उसे हिंदू धर्म में आस्था है तो उसका उत्तर सही नहीं हो सकता क्योंकि सत्य यह है कि हिंदुओं का कोई निश्चित पथ ही नहीं है। जो हिंदू समझे जाते हैं, उनके विश्वास एक-दूसरे से अत्यंत भिन्न हैं, अपेक्षाकृत ईसाईयों और मुसलमानों के हिंदुओं की मूल धार्मिक आस्थाएँ भी भिन्न-भिन्न हैं कुछ कहते हैं कि सभी हिंदू शास्त्र उन्हें स्वीकार्य हैं परन्तु कुछ हिंदू तंत्रों का तिरस्कार करते हैं। कुछ लोग वेदों को प्रमुखता से मानते हैं तो दूसरों को कर्मवाद और पुनर्जन्म में गहरी आस्था है।

     पंथों और सिद्धांतों का मिश्रित समूह ही हिन्दुत्व है। इसकी छत्रछाया में पलते हैं एकेश्वरवाद, बहुदेववाद और सर्वेश्वरवाद; महान देवता शिव और विष्णु के उपासक अथवा उनके नारी प्रतिरूप, साथ ही दैवी मातृ शक्तियों, वृक्षों, चट्टानों और जल-धाराओं में बसी हुई आत्माओं और संरक्षक ग्राम्य देवताओं के उपासक हैं; ऐसे व्यक्ति, जो अपने देवताओं को सर्व प्रकार की बलि देते हैं, और ऐसे व्यक्तियों को, जो अहिंसक हैं और जिन्हें "वध" शब्द से ही घृणा है, जिनके धार्मिक अनुष्ठानों में मात्र प्रार्थनाएं और मन्त्रोच्चारण सम्मिलित हैं, और ऐसे भी हैं जो धर्म के नाम पर अकथनीय आडंबरों में लिप्त हैं और इसमें उनका बहुल्य है, जो कुल मिलाकर शास्त्रद्रोही है और उनमें से कई तो ब्राह्मणों की सत्ता नकारते हैं, अथवा कम से कम उनके धर्माचार्य गैर-ब्राह्मण हैं।

     यदि कोई यह कहता है कि वह अन्य हिंदुओं के समान रीति-रिवाज अपनाता है, इसलिए वह हिंदू हैं तो भी झूठ है क्योंकि सभी हिंदुओं के रीति-रिवाज एक समान नहीं हैं।

     उत्तर भारत में सपिण्डगोत्र में विवाह की प्रथा नहीं है। परन्तु दक्षिण में मामा-भांजी और मामा-फूफी आदि के बहन-भाइयों में वैवाहिक संबंध प्रचलित हैं। नारी के सतीत्व के नियमों के संबंध में सर्वोच्च मान्यताएं हैं। कुछ जातियों में इसमें अत्यंत ढील दी जाती है, विशेष रूप से विवाह पूर्व । कहीं-कहीं यह भी चलन है कि लोग अपनी कन्या को धार्मिक कदाचार के लिए समर्पित कर देते हैं। कुछ क्षेत्रों में नारी स्वतंत्र है तो कहीं-कहीं पर्दानशीन है। कुछ स्थानों पर वे लहंगा पहनती हैं तो कहीं सलवार आदि ।

     यदि वह यह कहता है कि वह इसलिए हिंदू है कि वह जातिप्रथा को मानता है, उसका यह उत्तर भी संतोषजनक ढंग से स्वीकार नहीं किया जा सकता। यह बिल्कुल सत्य है कि किसी हिंदू को इस बात से कोई गरज नहीं कि उसके पड़ोसी की क्या आस्थाएं हैं, पर यह जानना उसका परम धर्म है कि वह उसके साथ खान-पान कर सकता है या, नहीं। दूसरे शब्दों में इसका अर्थ यह हुआ कि जातिवाद हिंदू धर्म की आत्मा है और जो व्यक्ति किसी मान्यताप्राप्त हिंदू जाति से संबद्ध नहीं है, वह हिंदू हो ही नहीं सकता। यही इतिश्री नहीं है। उनकी मात्र जात-पांत में आस्था ही पर्याप्त नहीं है।  जात-पांत तो ईसाईयों और मुसलमानों में भी दीमक की तरह घुसी है। खान-पान में बेशक न हो। शादी-व्यवहार में तो वह सर्वव्यापी है । परन्तु इसी कारण वे हिंदू नहीं कहलाते। उनमें दोनों बातों का होना आवश्यक है। उसे हिंदू होना चाहिए और जात-पांत में विश्वास रखना चाहिए। अब फिर वही प्रश्न उठता है कि हिंदू कौन है? इस संदर्भ में हम जहाँ के तहां खड़े हैं।

     क्या प्रत्येक हिंदू के समक्ष यह प्रश्न नहीं है कि उसके अपने धर्म के बारे में इतनी ऊहापोह क्यों है? इतनी उलझन क्यों है? वह ऐसे मामूली जवाब क्यों नहीं देता; जिनका उत्तर प्रत्येक पारसी, प्रत्येक ईसाई और प्रत्येक मुसलमान के पास है। क्या यह समय नहीं है कि वह आत्मावलोकन करे कि क्या कारण है, जिनके फलस्वरूप यह धार्मिक अव्यवस्था उत्पन्न हुई है ?



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