यह पुस्तक उस आस्थाओं को उद्घाटित करती है जिन्हें ब्राह्मण तत्वज्ञान का नाम देते हैं। यह उन सामान्य हिंदू-जनों के लिए हैं, जो यह जानना चाहते हैं कि ब्राह्मणों ने उन्हें किस दलदल में फंसा दिया है और इसका उद्देश्य उन्हें विवेक का रास्ता दिखाना है।
ब्राह्मणों ने यह प्रचारित किया कि हिंदू सभ्यता सनातन है, मतलब अपरिवर्तनीय । बहुत से यूरोपीय विद्वानों ने भी यही राग अलापा है, जिनका कहना है कि हिंदू सभ्यता अडिग-अटल है। इस पुस्तक में मैंने यही बताने की चेष्टा की है कि यह धारणा तथ्यपरक नहीं है और हिंदू सभ्यता समय-समय पर बदलती रही है तथा अक्सर इसमें भारी बुनियादी परिवर्तन हुए हैं। अहिंसा की पहेली (पृ.117) ओर 'अहिंसा से हिंसा पर वापसी' (पृ.122) पहेलियों पर दृष्टिपात करें। मैं जन-समुदाय को यह अहसास कराना चाहता हूं कि हिंदू धर्म सनातन नहीं है।
पुस्तक का दूसरा उद्देश्य हिंदुओं का ध्यान इस ओर आकृष्ट करना है कि ब्राह्मणों ने क्या-क्या चालें चलीं और उन्हें यह अहसास कराना है कि ब्राह्मणों ने उन्हें कितना छला, कितना गुमराह किया ।
पुस्तक पढ़ने से यह पता चलेगा कि ब्राह्मणों में एकाएक बदलाव कैसे आया । एक समय वे वैदिक देवताओं की पूजा करते थे। फिर एक समय ऐसा आया कि उन्होंने वैदिक देवताओं को किनारे कर दिया और अवैदिक देवताओं का नमन करने लगे। कोई उनसे पूछे इन्द्र, वरुण, ब्रह्मा और मित्र कहां हैं, जिनका वेदों में उल्लेख है। वे सभी लुप्त हो गए। क्यों? इसलिए कि इन्द्र, वरुण और ब्रह्मा की पूजा करना लाभप्रद नहीं रहा। बात यहीं तक नहीं है कि ब्राह्मणों ने वैदिक देवताओं को पूजना छोड़ दिया, बल्कि ऐसे उदाहरण हैं कि मुस्लिम पीरों के मुरीद बन गए।
यह सात पृष्ठों की पांडुलिपि है, जिसमें डॉ. अम्बेडकर ने अपनी हस्तलिपि में सुधार किए हैं। अंत के कुछ अनुच्छेद टाइप की हुई पांडुलिपि में उन्होंने अपनी हस्तलिपि में जोड़ दिए हैं। संपादक
इस संबंध में एक ज्वलंत उदाहरण है। बंबई के पास कल्याण में पहाड़ी की चोटी पर एक पीर बाबा मलंगशाह की मशहूर दरगाह है। यह बहुत ही प्रसिद्ध दरगाह है। हर साल वहां उर्स लगता है और चढ़ावा चढ़ाया जाता है। दरगाह का पीर एक ब्राह्मण है जो मुसलमानों जैसी पोशाक पहने वहां विराजमान रहता है और चढ़ावा बटोर लेता है। यह सब कमाई का धंधा है, धर्म जाए भाड़ में। ब्राह्मण को सिर्फ दक्षिणा से गरज है। दरअसल ब्राह्मणों ने धर्म को व्यापार बना रखा है। जरा ब्राह्मणों की श्रद्धा हीनता की तुलना यहूदियों की अपने देवताओं के प्रति अटूट श्रृद्धा से करें जब उनके विजेता नेबूचादनेज्जार ने उनको अपना धर्म को त्याग कर उसका धर्म अपनाने को मजबूर किया।¹
राजा नेबूचादनेज्जार ने एक स्वर्ण मूर्ति बनवाई, जिसकी ऊंचाई साठ हाथ और चौड़ाई छह हाथ थी। उसने उसे बेबीलोन प्रांत के मैदान दुरा में स्थापित कराया।
तब राजा नेबूचादनेज्जार ने राजकुमारों, न्यायाधीशों, कोषाधिपतियों, अमात्यों और प्रांतों के सभी शासकों आदि को बुलाया कि वे मूर्ति के समर्पण के समय उपस्थित हों।
फिर राजकुमार, शासक, न्यायाधीश, कोषाधिपति, अमात्य और प्रांतों के शासक आदि उस समय तक उपस्थित रहे जब तक कि राजा द्वारा बनवाई गई मूर्ति स्थापित हुई ।
तब अग्रदूतों ने ऊंचे स्वर में कहा 'हे लोगों ! हे शासकों! बहुभाषा विदो ! तुम्हारे लिए आदेश है।
कि जिस समय तुम विविध संगीत स्वरों में वाद्यवृद सुनो तो नेबूचादनेज्जार द्वारा निर्मित स्वर्ण-मूर्ति को साष्टांग दंडवत कर पूजा करो जिसे राजा ने स्थापित किया है।
और जो कोई भी दंडवत नहीं करेगा, उसे दहकती भट्टी में झौंक दिया जाएगा।
इसलिए उस समय सब लोगों, शासकों और बहुभाषाविदों, ने विभिन्न वाद्यों का नाद सुना तो सभी लोग लेट गए और उन्होंने नेबूचादनेज्जार द्वारा स्थापित मूर्ति की पूजा की।
तभी कोई चालडीएन्स वहां आया और यहूदियों को अपशब्द कहे।
उन्होंने राजा नेबूचादनेज्जार से कहा, 'हे राजा, तू अमर रहे । '
हे राजा! तूने एक आदेश जारी किया है कि जब हर कोई व्यक्ति, जो विशेष वाद्यवृंद सुने तो वह झुक जाय और स्वर्ण मूर्ति की पूजा करे ।
जो झुक कर पूजा के आदेश का पालन नहीं करेंगे, उन्हें दहकती भट्टी में झौंक दिया जाएगा।
1. नीचे जो विवरण दिया गया है, वह अभ्यास 3 (ओल्ड टेस्टामेंट) से है।
कुछ ऐसे यहूदी हैं जो श्रीमन् के आदेश से बेबीलोन में बसे हैं। वे हैं, शाद्राच, मेशाच, अबेद - नेगो । हे राजा! ये तेरे आदेश का पालन नहीं करते, ये तेरे देवता को आदर नहीं देते, अर्चना भी नहीं करते, तेरे द्वारा स्थापित मूर्ति को नहीं पूजते ।
तब नेबूचादनेज्जार ने कुपित हो आदेश दिया कि शाद्राच, मेशाच और अबेद - नेगो को पेश किया जाए। तब राजा के सामने लाए गए।
नेबुचादनेज्जार ने उनसे पूछा- क्या यह सच है शाद्राच, मेशाच, अबेद नेगो, तुम मेरे देवता को दंडवत नहीं करते, स्वर्ण- मूर्ति की पूजा नहीं करते जो मैंने स्थापित की है ?
अब तुम तैयार रहो। जब तुम अमुक-अमुक वाद्यों की आवाज सुनो तो झुक कर उस मूर्ति की पूजा करो जो मैंने बनवाई है । परन्तु यदि तुम पूजा नहीं करोगे तो तुम्हें तुरंत दहकती भट्टी में झोंक दिया जाएगा फिर ऐसा कौन सा देवता है जो तुम्हें मेरे हाथों से बचा लेगा। '
शाद्राच, मेशाच और अबेद - नेगो ने राजा से कहा, 'हे नेबूचादनेज्जार, इस मामले में हम तेरी परवाह नहीं करते।
'अगर ऐसा होता है तो जिस देवता की हम सेवा करते हैं, वह हमें उस दहकती भट्टी से निकाल लेगा और हे राजा, वह हमें तेरे हाथों से भी बचा लेगा।
'तो हे राजा, यह जान लें, यदि ऐसा नहीं होता है तो हम किसी देवता की सेवा नहीं करेंगे, न ही उस स्वर्ण मूर्ति की जो तूने स्थापित की है।
तब नेबूचादनेज्जार आगबबूला हो गया और उसके चेहरे की रंगत बदल गई। उसने आदेश दिया कि भट्टी को सात गुना गर्माएं।
फिर उसने सबसे शक्तिशाली व्यक्ति से कहा कि वह शाद्राच, मेशाच और अबेद-नेगो को बांधकर दहकती भट्टी में डाल दे।
तब उन व्यक्तियों को उनके कोट, उनकी जुराबों, उनके टोप और दूसरे कपड़ों समेत बांध कर दहकती भट्टी में डाल दिया गया।
क्योंकि राजा के आदेश थे। भट्टी भभक उठी थी । लपटों ने लोगों को झुलसा दिया, जो शाद्राच, मेशाच और अबेद - नेगो को लाए थे।
और वे तीनों व्यक्ति शाद्राच, मेशाच और अबेद - नेगो दहकती भट्टी में झोंक दिए गए।
क्या भारत के ब्राह्मण में इतनी अटूट आस्था और इतनी श्रद्धा अपने देवताओं में है ?
बक्ले ने अपने ग्रंथ हिस्ट्री ऑफ सिविलाइजेशन में कहा है:
"यह स्पष्ट है कि जब तक संदेह नहीं उपजते, तब तक प्रगति असंभव है। हमने यह देखा है कि सभ्यता मानव के आध्यात्मिक ज्ञान के योगदान पर निर्भर रही है और इस बात पर अवलम्बित है कि इस ज्ञान को कहां तक संचारित किया गया है। परंतु लोग अपने ज्ञान से संतुष्ट होकर बैठ जाते हैं। उसमें और वृद्धि की गुंजाइश नहीं समझते। जो व्यक्ति अपने ज्ञान और विचारों को संपूर्ण मानता है, वह यह कष्ट नहीं करता कि उसके आधार को टटोले । जो कुछ उन्होंने अपने पुरखों से सीखा है, सुना है, उसके विपरीत कुछ कहा जाए तो उन्हें अजीब लगता है। प्रायः भयानक भी लगता है। जब उनकी मानसिक स्थिति यह हो तो नए सत्य को ग्रहण करना असंभव लगता है जो उनके पूर्व अर्जित निर्णयों से मेल नहीं खाता ।
इस प्रकार सामाजिक प्रगति के लिए नए तत्वों की जानकारी आवश्यक होने पर भी ऐसे ज्ञान की निरख-परख की जानी चाहिए क्योंकि बिना संदेह के हम निरख-परख नहीं करेंगे और बिना इसके ज्ञान प्राप्त नहीं होगा। ज्ञान कोई धरोहर या जड़ तत्व नहीं है जो बिना उद्योग किए हमारे पास दौड़ा चला आएगा। इसके लिए उद्यम करना होगा, इसके लिए अध्यवसाय और बलिदान की आवश्यकता है। जिन्हें अंधकार का अहसास ही नहीं है, वे प्रकाश की खोज क्यों करेंगे ? यदि कभी हम सुनिश्चित हों तो आगे विश्लेषण नहीं करते क्योंकि विश्लेषण व्यर्थ अथवा भयावह हो सकता है। निरख-परख से पहले संदेह का उठना जरूरी है। हम संदेह को सूत्रधार मानते हैं जो प्रगति का जनक है।
पर ब्राह्मणों ने तो संदेह की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी क्योंकि उन्होंने बड़ी चालाकी से एक मंत्र फूंक दिया, लोगों में एक ढकोसला फैला दिया कि वेद इंसान की रचना नहीं है। यदि हिंदू आध्यात्मवाद जड़ हो गया है और हिंदू सभ्यता तथा संस्कृति एक सड़े हुए बदबूदार पोखर की तरह हो गई है तो यह ढकोसला जड़मूल से खत्म करना होगा यदि भारत ने प्रगति करनी है। वेद बेकार की रचनाएं हैं, उन्हें पवित्र या संदेह से परे बताने में कोई तुक नहीं है। ब्राह्मणों ने इन्हें पवित्र और संदेहातीत बना दिया, केवल इसलिए कि इसमें पुरुषसूक्त के नाम से एक क्षेपक जोड़ दिया गया, इससे वेदों में ब्राह्मण को भूदेव बना दिया। कोई यह पूछने का साहस नहीं करता कि जिन पुस्तकों में कबीलाई देवताओं से प्रार्थना की गई है कि वे शत्रु का नाश कर दें, उनकी सम्पत्ति लूट लें और अपने अनुयायियों में बांट दें, कैसे संदेहातीत हो गई। परंतु अब समय आ गया है कि हिंदू इस अंधे कुएं से बाहर आएं। उन सरहीनता विचारों को तिलांजलि दे दें जो ब्राह्मणों ने फैलाए हैं। इससे मुक्ति पाए बिना भारत का कोई भविष्य नहीं है। मैंने हर तरह की जोखिम जानकर यह रचना की है। मैं इसके परिणामों से नहीं डरता। मैं यदि लोगों की आंखें खोल दूंगा तो मुझे प्रसन्नता होगी।
- भीमराव अम्बेडकर