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हिंदू धर्म की पहेलियां - ( भाग ३२ )  लेखक -  डॉ. भीमराव आम्बेडकर

चौदहवीं पहेली

अहिंसा से हिंसा पर वापसी

     “हिंसा से अहिंसा तक" अहिंसा की कहानी का मात्र एक भाग है। कहानी का एक दूसरा हिस्सा भी है, जिसकी व्याख्या "अहिंसा से हिंसा पर वापसी" शीर्षक के अन्तर्गत की जा सकती है। कहानी के दूसरे हिस्से से यह स्पष्ट हो जाएगा कि तंत्र और तंत्रवाद की धार्मिक परम्पराएं थीं, जिनका सन्दर्भ पहले दिया जा चुका है।

return to violence from nonviolence - Hindu Dharm Ki Paheliyan - dr Bhimrao Ramji Ambedkar     तांत्रिक पूजा के लिए “पंच मकार" अनिवार्य है। इन पंच मकारों में निम्न वस्तुएं होती है:

1. विभिन्न प्रकार के तरल पदार्थ एवं मद्य पान (मद्य)
2. मांस भक्षण (मांस)
3. मछली - भक्षण (मत्स्य)
4. भुने अनाज खाना (मुद्रा)
5. सहवास (मैथुन)

     यह कहना निरर्थक है कि मैथुन धार्मिक कर्मकांड का एक अंग है। मद्य और मांस का प्रसंग पर्याप्त रहेगा।

     तंत्र के प्रथम चार कार्यों के लिए बारह प्रकार की मदिरा का विधान है। तीन प्रकार की शराब और तीन प्रकार का मांस बताया गया है। एक प्राचीन ऋषि पौलस्त्य ने भी, जो कई संहिताएं लिख चुके हैं, बारह प्रकार की मदिरा का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है:


मूल अंग्रेजी में यह 'अहिंसा' पर पिछले अध्याय के निरंतर क्रम में आया छह पृष्ठ का आलेख है, जिसमें लेखक ने स्वयं कुछ संशोधन किए हैं। - संपादक


1. पनसा (फल) से निकाली गई शराब, जिसे कटहल - शराब कहा जाता है,

2. अंगूर से बनी (द्राक्षा),

3. खजूर से बनी (खरजूरी),

4. सामान्य ताड़ी से बनी (ताड़ी),

5. नारियल से बनी ( नारिकेल),

6. ईख से बनी (इक्षु),

7. माधविका के पौधे से बनी मदिरा,

8. पीपल से बनी (सैरा),

9. बेर से बनी (आरिष्ट),

10. शहद से बनी (मधुका),

11. शीरे से तैयार रम के समान ( गौडी या मैरेय),

12. अरक, चावल और अन्य अनाज से बनी मदिरा जो सुरा, वारुणी या पैश्ती के नाम से जानी जाती है।

     उपरोक्त मादक द्रव्यों के साथ-साथ जिनका बार-बार जिक्र आया है, वे है तन्का सेब से निर्मित, कोली और कादम्बरी, इनमें अंतिम मदिरा बलरामजी को अति प्रिय थी।

     मांस पक्षियों, जंतुओं अथवा मछली का हो सकता है। मादक द्रव्यों का आनन्द लेने के लिए भुना अन्न खाया जाता है। प्रत्येक मद्य के अपने गुण और लाभ बताए गए हैं। उन्हीं के अनुसार उसका पान किया जाता है। इस प्रकार एक मदिरा से मोक्ष मिलता है, एक से ज्ञान, दूसरी से शक्ति, एक से सम्पदा, एक शत्रुनाशी, दूसरी रोगहारी, एक पापनाशी है और एक आत्मा को शुद्ध करती है ।

     तांत्रिक पूजा बंगाल के आंतरिक भागों में पहुंच गई। अपने अनुभवों के आधार पर राजेन्द्र लाल मित्र कहते हैं : ¹

     "मैं कलकत्ता के एक उच्च संभ्रांत परिवार से संबद्ध एक अति सम्मानित महिला को जानता था, जो कौल सम्प्रदाय से संबंधित थी और पिछहत्तर साल तक जीवित रही। ऐसा कभी नहीं हुआ कि उसे अपनी प्रार्थना ( वह प्रतिदिन सुबह-शाम करती थी) कभी अपनी जीभ में सींक से अरक छुआए बिना और भगवान की पूजा फूलों पर शराब छिड़के बिना की हो। मुझे इस बात में संदेह है कि उसने अपने जीवन काल में कुल मिलाकर एक गिलास अरक पिया हो और यह निश्चित है कि उसको मदिरापान के सुख का ध्यान भी नहीं था। परन्तु एक आस्थावान कौल के अनुकूल वह अपने धर्म पालन के लिए धर्मभीरुता के कारण प्रतिबद्ध थी। और भी हजारों का यही हाल है। मुझे इसका पूरा विश्वास है बंगाल के जिन भागों में अरक सहज उपलब्ध नहीं है, भक्त महिलाओं ने उसका विकल्प ढूंढ लिया है; वे धातु निर्मित घंटी (पात्र) में नारियल का दूध डालती हैं अथवा तांबे के बर्तन में कुछ बूंद दूध डाल लेती हैं। बहरहाल, पुरुष इतने संयमी नहीं। तंत्र का विधान पांच प्यालों का है। प्याला इस प्रकार का होता है कि उसमें पांच तोला या दो औंस आती है अर्थात वे एक दिन में दस औंस अरक ले सकते हैं।"


1. राजेन्द्रलाल मित्र, इण्डो-आर्यन्स, पृ. 405-6


     तांत्रिक पूजा बंगाल के एक छोटे से अंचल तक सीमित नहीं है जैसा कि महामहोपाध्याय जादवेश्वर तारकरत्न¹ ने कहा है:

     "जैसे कि बंगालियों की उच्चजातियां शाक्त, वैष्णव और शैवों में विभाजित हैं, यही बात एक प्रकार से कामरूप, मिथिला, उत्कल अथवा कलिंग और कश्मीरी पंडितों के साथ है। शक्ति मंत्र, शिवमंत्र तथा विष्णु मंत्र प्रत्येक तांत्रिक हैं। दक्षिण त्यों में महामहोपाध्याय सुब्रहमण्यम शास्त्री और कई अन्य शाक्त हैं। स्वर्गीय महामहोपाध्याय राम मिश्र शास्त्री भागवताचार्य और कई अन्य वैष्णव थे, और हैं। महामहोपाध्याय शिवकुमार शास्त्री तथा कई अन्य शैव हैं। वृंदावन में अनेक शाक्त और साथ ही वैष्णव ब्राह्मण हैं। यद्यपि महाराष्ट्र की कुलीन जातियों तथा अन्य दक्षिण भारतीय प्रदेशों में शैव और वैष्णव, शाक्तों की अपेक्षा अधिक हैं। पाशुपत तथा जंगम पथ के अनुयायी शैव हैं जबकि माधवाचार्य और रामानुजाचार्य के वैष्णव उत्तर-पश्चिम में राम मंत्र में दीक्षित हैं, जो मात्र तंत्र में मिलता है। इस लेखक के अनुसार पण्डा और श्री पुरुषोत्तम सभी शाक्त हैं और कामाख्या देवी के सभी पुजारी वैष्णव हैं। "

     तंत्र और तंत्र - पूजा कब आरम्भ हुई? इसका निश्चित समय बताना तो संभव नहीं है परन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि यह काल मनु के बाद का है। तंत्र विकास का यह पक्ष महान आश्चर्य की बात है। तंत्रों ने न केवल मांस और मदिरा पर मनु द्वारा लगाए गए प्रतिबंध तोड़े अपितु मांस भक्षण और मदिरापान को आस्था का साधन बना दिया।

     आश्चर्यजनक बात यह है कि ब्राह्मणों ने तंत्रों और तंत्र - पूजा को प्रोत्साहित किया। तंत्रों की वेदों में आस्था नहीं है। तांत्रिकों का कथन है कि वेद एक बाजारू औरत के समान है जिसे चाहे भोगे किंतु तंत्र एक कुलीन नारी है जो एक ही से बंधी है । ब्राह्मणों ने तंत्र का कभी खण्डन नहीं किया बल्कि उन्होंने इसे पंचम वेद माना । मनुस्मृति के विख्यात भाष्यकार सनातनी ब्राह्मण कुल्लूक भट्ट ने कहा कि श्रुतियां दो हैं, वैदिक और तांत्रिक।


1. अपने ग्रंथ तंत्र के सिद्धांत भाग-1 परिचय पृष्ठ 38 में एवलान द्वारा उद्धृत ।



     ब्राह्मणों ने न केवल तंत्रों का खण्डन किया बल्कि वास्तव में तंत्र- पूजा को प्रोत्साहित किया। मातृका भेद तंत्र में शिव अपनी भार्या पार्वती को ऐसे कहते हैं : '

     ‘हे मृदुभाषी देवी! ब्राह्मणों को मदिरा पीने से मोक्ष प्राप्त होता है। मैं तुम्हें एक महान सत्य बताता हूं। हे पर्वत - पुत्री ! जब मैं कहता हूं, कि जो ब्राह्मण मदिरा पान और उसके संसर्ग में लिप्त होता है तो वह स्वयं शिव हो जाता है। बल्कि जैसे जल-जल में मिल जाता है, धातु- धातु में घुल जाती है, जैसे एक घड़े का सीमित आकार एक बड़े आकार के पात्र में विलीन हो जाता है और वायु-वायु में समा जाती है, इस प्रकार ब्राह्मण विश्वात्मा ब्रह्म से एकाकार हो जाता है। '

     ‘इस संबंध में रंचमात्र संदेह नहीं कि दिव्यता की आशा और परम सुख के अन्य रूप क्षत्रियों तथा अन्यों के लिए हैं, किन्तु सच्चा ज्ञान मादक द्रव्य के बिना कदापि प्राप्त नहीं किया जा सकता। तो क्या ब्राह्मण को सदैव इसका सेवन करना चाहिए? वेदों की जननी गायत्री को रट रट कर कोई पंडित नहीं बन सकता । पंडित तभी बनता है जब उसे ब्रह्म-ज्ञान हो। देवताओं के लिए ब्रह्म ही अमृत है। और धरा पर यह अरक है ( चावल से बनी शराब ) क्योंकि इसी के माध्यम से देवत्व (सुरत्व) की स्थिति प्राप्त होती है। इसलिए यह सुरा कहलाती है ।

     ब्राह्मणों ने पितामह मनु को क्यों नकार दिया और दुबारा मांस-मदिरा का सेवन क्यों आरम्भ कर दिया जिसे मनु ने बंद कर दिया था, यह एक पहेली है।


1. इण्डो-आर्यन्स में राजेन्द्रलाल मित्र द्वारा उद्धृत।



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