भाईचारे की भावना क्यों अनिवार्य है? भाईचारा मानव के उस गुण का नाम है जिसके अनुसार वह समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ प्यार-सम्मान का भाव रखता है और उनके साथ एकरस होने की इच्छा रखता है। इस कथन के स्पष्ट उल्लेख पाल ने किया कि 'कौमों के इसी इंसानों का खून एक समान है। उनमें से न तो किसी का खून यहूदी है और न यूनानी है, न कोई बंधक है और न कोई स्वतंत्र है, न कोई पुरुष है और न कोई स्त्री है। वे सभी प्रभु ईसा की दृष्टि में एक समान हैं।' प्लाइमाउथ पहुंचकर इंग्लैंड प्यूरिटन संप्रदाय के पादरियों ने भी कुछ ऐसा ही बहुत अच्छे ढंग से कहा था : 'ईश्वर की पवित्र प्रतिज्ञा के अनुसार हम एक शरीर के रूप में साथ-साथ गुथे हुए हैं। .....इसी कारण हम एक-दूसर की भलाई की चिंता करते हैं और संपूर्ण मानवता के हितों के लिए प्रतिबद्ध हैं।' यही भाव भाईचारे का मूल है। भाई-चारे से सामाजिकता मजबूत होती है और इससे प्रत्येक व्यक्ति में एक ऐसा प्रभावशाली लगाव पैदा होता है, जिसके माध्यम से वे व्यावहारिक रूप से दूसरों के कल्याण के बारे में सोचता है। इससे वह दूसरों की भलाई में अपनी भावनाओं को अधिक से अधिक जोड़ता है या कम से कम इसके लिए व्यावहारिक रवैया अपनाता है। भाई-चारे की मनोवृत्ति उसे सहजता से सचेत करती है कि वह उस व्यक्ति के समान है जो दूसरों को सम्मान देता है। दूसरों की भलाई उसके लिए उतनी ही स्वाभाविक हो जाती है, जितनी कि हमारे अस्तित्व के लिए कोई भौतिक अवस्था आवश्यक होती है। जहां लोग दूसरों के साथ सहानुभूति की संपूर्णता का अनुभव नहीं करते, वहां उनके आचरण में समरसता असंभव होती है जिस व्यक्ति में सामाजिक भावना का अभाव होता है, वह दूसरों के बारे में सिवाय इसके और कुछ नहीं सोच सकते कि वे उसके प्रतिद्वंद्वी हैं। इसलिए वह अपनी खुशियों के लिए उन्हें पराजित करने की चेष्टा में लगा रहता है।
स्वतंत्रता क्या है और स्वतंत्र समाज-व्यवस्था में यह क्यों आवश्यक है?
स्वतंत्रता को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है, एक नागरिक स्वतंत्रता होती है और दूसरी राजनीतिक स्वतंत्रता । नागरिक स्वतंत्रता के अंग हैं (1) विचरण की स्वतंत्रता, अर्थात् कानूनी प्रक्रिया के बिना बेरोक-टोक आवागमन (2) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता; इसमें विचारों की स्वतंत्रता, पढ़ने की स्वतंत्रता, लिखने की स्वतंत्रता तथा बातचीत करने की स्वतंत्रता शामिल होती है, और (3) कार्य करने की स्वतंत्रता ।
पहले प्रकार की स्वतंत्रता निस्संदेह मौलिक स्वतंत्रता है। यह न केवल मौलिक, बल्कि अत्यंत आवश्यक भी है। इसके महत्व के संबंध में कोई संदेह नहीं है। दूसरी स्वतंत्रता जिसे विचारों की स्वतंत्रता कहा जा सकता है, कई कारणों से महत्वपूर्ण है। यह बौद्धिक, नैतिक, राजनीतिक तथा सामाजिक, सभी प्रकार की उन्नति के लिए आवश्यक है। जहां यह स्वतंत्रता नहीं होती, वहां यथास्थिति रूढ़ हो जाती है और सभी मौलिकताएं, यहां तक कि अत्यंत आवश्यक मौलिकता भी हतोत्साहित हो जाती है। कार्य की स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि व्यक्ति जो चाहे सो करे। इतना ही पर्याप्त नहीं है, कार्य की स्वतंत्रता औपचारिक हो। यह वास्तविक अर्थ में होनी चाहिए। जैसा कि स्पष्ट है, स्वतंत्रता का तात्पर्य विशिष्ट कार्य को करने की प्रभावी शक्ति से है। जहां इस स्वतंत्रता का लाभ उठाने के साधन मौजूद नहीं हैं, वहां यह स्वतंत्रता नहीं है। कार्य करने की वास्तविक स्वतंत्रता केवल वहीं पर होती है, जहां शोषण का समूल नाश कर दिया गया है, जहां एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग पर अत्याचार नहीं किए जाते, जहां बेरोजगारी नहीं है, जहां गरीबी नहीं है, जहां किसी व्यक्ति को अपने धंधे के हाथ से निकल जाने का भय नहीं है, अपने कार्यों के परिणामस्वरूप जहां व्यक्ति अपने धंधे की हानि घर की हानि तथा रोजी-रोटी की हानि के भय से मुक्त है।
राजनैतिक स्वतंत्रता का तात्पर्य व्यक्ति की उस स्वतंत्रता से है जिसके अनुसार वह कानून बनाने तथा सरकारों को बनाने अथवा बदलने में भागीदार होता है। सरकारों का गठन इसलिए किया जाता है जिससे कि वे व्यक्ति के लिए कुछ अनन्य अधिकार, जैसे जीवन - स्वतंत्रता तथा प्रसन्नता के साधन सुरक्षित ढंग से उपलब्ध कराएं। अतः सरकार वहां से ही अपने अधिकार प्राप्त करे, जिनके अधिकारों को सुरक्षित रखने का दायित्व उसे सौंपा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि सरकार को अपना अस्तित्व, अपनी शक्ति, अपना अधिकार उन लोगों से ही प्राप्त करना चाहिए, जिन पर वह शासन करती है। वास्तव में राजनीतिक स्वतंत्रता मानव - व्यक्तित्व तथा समानता के सिद्धांत से उत्पन्न होती है क्योंकि इसका अर्थ यह होता है कि सभी प्रकार का राजनीतिक अधिकार जनता से प्राप्त होता है तथा जनता दूसरों के द्वारा नहीं, बल्कि अपने द्वारा निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए लोगों के सार्वजनिक तथा निजी जीवन को नियंत्रित करने तथा दिशानिर्देश देने में समर्थ है।
स्वंतंत्र समाज व्यवस्था के दोनों सिद्धांत एक-दूसरे से जुड़े हैं। इन्हें अलग नहीं किया जा सकता। एक बार यदि पहले को स्वीकार कर लिया जाए, जो दूसरा सिद्धांत स्वतः ही आ जाता है। यदि एक बार मानव व्यक्तित्व की पवित्रता को स्वीकार कर लिया जाए तो व्यक्तित्व के विकास के लिए उचित वातावरण के रूप में स्वतंत्रता, समानता तथा भाईचारे की आवश्यकता को भी स्वीकार किया जाना चाहिए ।