असमानता, हिंदू धर्म की आत्मा है। हिंदू धर्म की नैतिकता केवल सामाजिक है। कम-से-कम यह बात निश्चित है कि यह नैतिकता तथा मानवता से असंबद्ध है और जो बात नैतिकता तथा मानवता से असंबद्ध होती है, वह बात आसानी से अनैतिक, अमानवीय तथा कुख्यात बन जाती है। आज हिंदू धर्म ऐसा ही कुछ बन गया है। जो लोग इस बात पर संदेह करते हैं अथवा इस धारणा को नकारते हैं उन लोगों को हिंदू समाज की सामाजिक रचना की समीक्षा करनी चाहिए और उसके साथ ही उस रचना के कुछ तत्वों का वर्तमान स्थिति पर चिंतन करना चाहिए। हम कुछ निम्नलिखित उदाहरण लेते हैं।
पहले हम आदिवासी कबीले समाज की ओर देखें। सभ्यता की किसी अवस्था में वे जीवन व्यतीत कर रहे हैं ?
मानवीय सभ्यता के इतिहास में मानव विकास के जंगलीपन से लेकर बर्बरता तक और बर्बरता से लेकर सभ्यता तक सभी अवस्थाओं का समावेश है। उसकी एक अवस्था में जो परिवर्तन हुआ है, वह परिवर्तन सदा ही ज्ञान की अथवा कला की किसी न किसी शाखा में कोई खोज अथवा आविष्कार के साथ हुआ है, जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य उन्नति की ओर बढ़ा।
किसी स्पष्ट भाषा का विकास होना पहली चीज थी जो मानव विकास की दृष्टि से पहली महत्वपूर्ण बात थी, जिसने मनुष्य को असभ्य मनुष्य से अलग किया यह असभ्यता पहली अवस्था को प्रकट करती है। असभ्यता की मध्यावस्था उत्पादन के ज्ञान से तथा अग्नि के उपयोग से आरंभ हुई। इस अद्भुत खोज के कारण मनुष्य अपने निवास स्थान के अनिश्चित सीमाओं तक बढ़ाने योग्य बन गया। वह अपना जंगल का घर छोड़कर विभिन्न स्थानों पर तथा सर्द वातावरण में जाने लगा और उसने अपनी भोजन सामग्री में मांस-मछली का समावेश करके बढ़ोतरी की। उसकी अगली खोज थी, तीर और कमान की । आदिमानव की यह सबसे बड़ी उपलब्धि थी और जंगली मनुष्य के विकास की यह चरम अवस्था है। वास्तव में वह एक अद्भुत औजार था। इस हथियार को धारण करने वाला, सबसे गतिमान पशु की हत्या भी कर सकता था तथा किसी भी हिंसक पशु से अपनी रक्षा भी कर सकता था।
जंगलीपन से बर्बरता की अवस्था मिट्टी के बर्तनों की खोज से आरंभ हुई। तब तक मनुष्य के पास ऐसे कोई बर्तन नहीं थे, जो आग से नष्ट नहीं हो सकते थे। बर्तनों के बिना मनुष्य न तो खाना पका सकता था और न किसी वस्तु का संग्रह कर सकता था। निस्संदेह मिट्टी के बर्तनों का संस्कृति के निर्माण पर बड़ा ही प्रभाव रहा।
बर्बरता की मध्य अवस्था तब आरंभ हुई, जब मनुष्य ने हिंसक पशुओं को पालतू बनाना सीखा। मनुष्य ने यह बात जान की कि पालतू जानवर उसके लिए उपयोग हो सकते हैं। अब मनुष्य चरवाहा बन गया और फिर वह भोजन के लिए हिंसक पशुओं का खतरनाक स्थिति में पीछा करने पर निर्भर नहीं रहने लगा। सभी ऋतुओं में दूध की उपलब्धि ने उसकी खाने-पीने की वस्तुओं में बहुत ही महत्वपूर्ण बढ़ोतरी की घोड़े तथा ऊंटों की सहायता से वह दूर-दूर तक सफर करने लगा था जो अब तक उसके लिए असंभव था। पालतू जानवर उसके लिए व्यापार में सहायक बन गए, जिसके कारण वह अपनी वस्तुओं का तथा अपने विचारों का भी आदान-प्रदान करने लगा ।
उसके बाद की खोज थी, लोहे को गलाकर उसकी वस्तुएं बनाने की कला। जंगलों में रहने वाले मनुष्यों की उन्नति में यह एक बहुत ही उच्चतम अवस्था है। इस खोज के साथ मनुष्य एक प्रकार से 'औजार बनाने वाला प्राणी' बन गया, जो अपने औजारों से लकड़ी तथा पत्थर को विभिन्न प्रकार देने लगा और मकान तथा पुल बनाने लगा।
और इसके साथ ही जंगल में रहने वाले मनुष्य ने जो उन्नति की, उसकी अंतिम अवस्था का अंत होता है।
‘सभ्यता’, इस शब्द के परिपूर्ण अर्थ से एक सभ्य मनुष्य को जंगली मनुष्य से अलग करने वाली रेखा वहां से उभरती है, जहां कल्पनाओं का चित्रांकित चिन्हों के माध्यम से एक-दूसरे को समझाने की कला का उदय हुआ, जिसे लिखने की कला कहा जाता है। इस कला को साथ मनुष्य ने समय पर विजय प्राप्त कर ली, जैसे कि पहले की खोजों से उसने अंतराल पर विजय प्राप्त की थी। अब वह अपनी कृतियां तथा विचारों को लिखने लगा। इसके बाद, उसका ज्ञान, उसके सुहाने सपने, उसकी नैतिक आकांक्षाएं ऐसे आकार में लिखना संभव हो गया, जो न केवल उसके समकालीन, बल्कि उसके बाद आने वाली सभी पीढ़ियां पढ़ सकें। मनुष्य के लिए उसका इतिहास एक सुरक्षित और संरक्षित बन गया। यह चरम पराकाष्ठा सभ्यता के प्रारंभ का प्रतीक है।
अब हम यहां रूककर यह बात पूछना चाहेंगे कि हमारे आदिवासी जन सभ्यता की किस अवस्था में जी रहे हैं।
आदिवासी¹ नाम ही उनकी वर्तमान अवस्था को स्पष्ट करता है, जिन लोगों को उस नाम से पुकारा जाता है वे जंगलों में छोटी-छोटी बिखरी झोंपड़ियों में रहते हैं। वे जंगली वनस्पति तथा फूल-पतियां खाकर जीते हैं। भोजन प्राप्त करने के उद्देश्य से वे मछली पकड़ते अथवा शिकार करते हैं। उनकी सामाजिक अर्थव्यवस्था में खेती को बहुत ही गौण स्थान प्राप्त है। अन्न प्राप्त करना, यह एक बहुत ही संकट की बात होने के कारण वे लगभग भुखमरी का जीवन ही व्यतीत करते हैं, जिससे कोई मुक्ति नहीं है। जहां तक कपड़ों का संबंध है, वे उसका इतना कम उपयोग करते हैं कि कपड़े उनके शरीर पर लगभग नहीं के बराबर ही होते हैं। वे लगभग नग्न अवस्था
1. यह तथा अन्य सूचना 'भारती की जनगणना', 1931 के प्रथम भाग से ली गई है।
में ही रहते हैं। एक आदिवासी जाति का नाम 'बोंडा पोराज' है। इसका अर्थ है 'नग्न पोरजस'। ऐसा कहा जाता है कि इन लोगों में औरतें बहुत ही संकीर्ण वस्त्र का एक टुकड़ा पहनती हैं जो ढंकने के लिए लहंगे का कार्य करता है। उनका यह वस्त्र असम के मामजाक नागा आदिवासी लोगों के वस्त्र के समान है, जिसके दोनों सिरे ऊपर कमर के साथ बहुत ही कठिनाई से मिलते हैं। यह लहंगे जैसा वस्त्र जंगली पेड़ों के धागे से घर पर ही औरतें बना लेती हैं। लड़कियां गुटकों की मालाएं पहनती हैं जो कि लगभग मौमजाक आदिवासी स्त्रियों से मिलती-जुलती है। अन्यथा औरतें कुछ भी नहीं पहनतीं। औरतें अपने सारे सिर के बालों को मुंडन करती हैं। इन आदिवासियों में निजाम के राज्य में फराहाबाद के पास रहने वाली एक चैन्चू नाम की आदिवासी जाति है। ऐसा कहा जाता है कि उनके मकान शुकु के आकार के बांस के बने हाते हैं, जिसमें एक मध्यबिंदु से धलान होती है, जो घास की बहुत ही बारीक तह से ढकी होती है। उनके पास वस्तुओं के नाम पर कुछ भी नहीं अथवा बहुत ही कम चीजे होती हैं। वे बहुत ही कम वस्त्र पहनते हैं पुरुष लंगोट बांधते हैं और औरतें छोटा-सा लहंगा और ब्जाऊज पहनती हैं। खाना पकाने के बहुत ही कम बर्तन होते हैं, अथवा दो टोकरियां होती हैं, जिनमें कभी-कभी खाने के कुछ दाने रखे होते हैं। ये गाय-बकरियां पालते हैं और इस विशेष गांव में कुछ खेती भी करते हैं। अन्य स्थानों पर वे जंगली वस्तुएं तथा मधु बेचकर ही अपना पेट पालते हैं। एक अन्य आदिवासी जाति मोरिया के बारे में कहा जाता है कि उनके पुरुष कमर में एक वस्त्र बांधते हैं, जिसका एक सिरा सामने लटका होता है। उनके बदन पर गुटकों की मालाएं भी होती हैं तथा जब वे नृत्य करते हैं, तब अपनी पगड़ी में मुर्गे अथवा मोर के पंख लगाते हैं। अनेक लड़कियां भारी मात्रा में विशेष रूप से चेहरे पर गोदना (शरीर पर गुदवाना) कराती हैं। उनमें से कुछ लड़कियां पैरों पर गोदन करती है । गोदन के प्रकार प्रत्ये लड़की की रुचि के अनुसार होते हैं और उसे कांटे तथा सुई से किया जाता है। अपने सिर के बालों में अनेक लड़कियां जंगली मुर्गे के पंख लगाती हैं और उसके साथ ही जूड़ों में लकड़ी, टीन अथवा पीतल की कंघी बांधती हैं।
इन आदिवासी कबीलों को कुछ भी खाने में, यहां तक कि कीड़े-मकौड़े खाने में भी कोई हिचकिचाहट नहीं होती है और वास्तव में कोई भी ऐसा मांस नहीं है जो ये लोग न खाते हों, चाहे वह जानवर नैसर्गिक कारण से मरा हो अथवा चार-छह दिन अथवा उससे भी पहले किसी शेर द्वारा मारा गया हो।
इन लोगों का एक वर्ग अपराधी जातियां हैं।
जिस तरह आदिवासी जातियां जंगलों में रहती हैं, इसके विपरीत ये अपराधी जातियां सुगम प्रदेशों में बहुत ही नजदीक तथा प्रायः सभ्य समाज जीवन के बीच में रहती हैं। होलीयस ने अपनी किताब संयुक्त प्रांत की अपराधी जातियां में इन लोगों की गतिविधियों की जानकारी दी है। वे संपूर्ण रूप से अपनी आजीविका अपराधों से ही पूरी करते हैं। उनमें से कुछ लोग प्रकट रूप से खेती करते हैं। परंतु यह केवल उनका सही व्यवसाय छुपाने के लिए ही है। हम उनकी बहुत-सी दुष्ट प्रथाएं, उनके द्वारा किए जाने वाली हिंसात्मक चोरी अथवा डकैती में देख सकते हैं। परंतु अपराध करने के लिए ही संगठित होने वाली जाति होने के कारण, उन्हें इन बातों में कुछ भी अनुचित नहीं लगता, किसी भी विशेष बस्ती में जब कोई डकैती डालना निश्चित हो जाता है, तब उचित शिकार का पता करने के लिए जासूस भेजे जाते है, ग्रामवासियों की आदतों का अध्ययन किया जाता है और साथ ही किसी अन्य गांव से कारगर सहायता प्राप्त करने की संभावना के लिए उस गांव की दूरी और वहां के लोगों की तथा हथियारों की संख्या आदि सभी बातों की जानकारी प्राप्त की जाती है। डकैती प्रायः मध्य रात्रि में होती है । जासूसों द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर गांव के विभिन्न स्थानों पर लोग नियुक्त किए जाते हैं और ये लोग अपने हथियार चलाकर उनकी मुख्य टोली से लोगों का ध्यान दूसरी ओर आकर्षित करते हैं। तब यह मुख्य टोली उस विशेष पूर्व निर्धारित मकान अथवा मकानों पर हमला करती हैं। यह टोली बहुधा तीस अथवा चालीस आदमियों की होती है।
इन लोगों के सामान्य जन-जीवन में अपराध को महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, उस पर बल देना आवश्यक है। एक बच्चा जब चलने-फिरने तथा बोलचाल के योग्य हो जाता है, तभी से उसे अपराधी जीवन की दीक्षा दी जाती है। निस्संदेह इसके पीछे काफी हद तक एक वास्तविक उद्देश्य होता है कि बच्चे के लिए छोटी-छोटी चोरियां करने के लिए जोखिम उठाना अच्छा होता है, क्योंकि यदि वह बच्चा पकड़ा जाता है तब शायद उसे चेतावनी देकर छोड़ दिया जाता है। इस कार्य में औरतें महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, जो यद्यपि वास्तविक रूप से डकैती में भाग नहीं लेतीं परंतु अनेक भारी जिम्मेदारियां निभाती हैं। चोरी का माल बेचने में बहुत चतुर होने के साथ-साथ अपराधी जातियों की यह औरतें दुकानों में रखी हुई वस्तुएं चुराने के कार्य में अति कुशल मानी जाती हैं।