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हिंदुत्व का दर्शन - ( भाग २५  ) - लेखक - डॉ. भीमराव आम्बेडकर

     संक्षेप में, हिंदू धर्म का दर्शन ऐसा है कि उसे मानवता का धर्म नहीं कहा जा सकता। इसीलिए ही बाल्फोर की भाषा का उपयोग करते हुए हम कह सकते हैं कि यदि हिंदू धर्म सर्वसाधारण लोगों के जीवन में गहरे प्रवेश करता है, लेकिन उन्हें सुरक्षा का कवच नहीं प्रदान करता । वस्तुतः उन लोगों को विकलांग बनाता तो हिंदु धर्म में सामान्य मानवीय आत्माओं के लिए कोई पोषक तत्व नहीं है। साधारण मानवीय दुख का कोई समाधान नहीं है। साधारण मानवीय कमजोरी के लिए कोई सहायता नहीं है, कुल मिलाकर हिंदू धर्म लोगों को अंधकार में छोड़ देता है। इतने क्रूर अधर्म से अधिक क्रूर कार्य और क्या हो सकता है। वह मनुष्य का ईश्वर के साथ जो संबंध है, उसे ही भंग कर देता है।

Hindutva Ka Darshan pustak - Dr Babasaheb Ambedkar     हिंदू धर्म का दर्शन ऐसा है । वह महामानव ( ब्राह्मण) के लिए स्वर्ग है, तो साधारण मनुष्य के लिए नर्क है।

     मैं जानता हूं कि हिंदू धर्म के दर्शन के संबंध में मेरे विचारों पर चारों ओर से आक्रमण हो सकता है। इसके संबंध में जो वर्तमान धारणाएं हैं, उनसे यह स्थिति इतनी विपरीत है कि उस पर आक्रमण होना अनिवार्य है। यह आक्रमण भिन्न दिशाओं से हो सकता है।

     ऐसा कहा जाएगा कि मनुस्मृति, हिंदू धर्म का धर्म ग्रंथ है। मेरा ऐसा मानना ही गलत है और हिंदुत्व का शिक्षा सार वेद तथा भगवतगीता में सम्मिलित है।

     परंतु यह मेरा निश्चित विश्वास है कि कोई भी रूढ़िवादी हिंदू ऐसा कहने का साहस नहीं कर सकता है कि मनुस्मृति, हिंदू धर्म का धर्म ग्रंथ नहीं है। ऐसा आरोप केवल कुछ सुधारवादी हिंदू पंथ के लोग, जैसे कि आर्य-समाज के लोग ही लगा सकते हैं। परंतु इस आरोप के उत्तर के लिए शायद यह उचित होगा कि विभिन्न स्मृतियों ने हिंदूओं में कैसे अधिकार का स्थान प्राप्त किया।¹ इस बात को स्पष्ट किया जाए।

     मूलतः रूप से, स्मृति उन नियमों का संग्रह है, जिनका संबंध सामाजिक परंपरा, रूढ़ियों तथा मान्यताओं से है और जिन्हें उन लोगों द्वारा मान्यता मिली हुई है, उन्होंने उसे पुरस्कृत किया है, जिन्हें वेदों का ज्ञान है। दीर्घ समय तक ये नियम, इन वेदों के ज्ञान ज्ञान प्राप्त लोगों की स्मृति में ही बसे हुए थे, इसीलिए उन्हें स्मृति कहा जाने लगा, अर्थात् कुछ ऐसी बातें, जो वेदों या श्रुति से अलग याद रखी जाती हैं, जिसका अर्थ है, ऐसी बातें जिन्हें सुना गया है। यहां यह भी बता देना आवश्यक है कि शुरू में जब स्मृति की नियमावली बनाई जा रही थी, तब भी उसके नियमों को वेदों में सम्मिलित नियमों की तुलना में निम्न स्तर का ही माना जाता था।


1. देखिए, प्रो. अल्तेकर द्वारा लिखित 'दि पोजीशन आफ स्मृतिज एज ए सोर्स आफ धर्म (काने मैमोरियल वोल्यूम) पृ. 18-25


     उनके अधिकार तथा बंधनों में जो अंतर है, वह उस स्वभाविक अंतर का नतीजा है, जो किसी बात को सुनने की तुलना में किसी बात को याद रखने का विश्वास करने की योग्यता में होता है। इन दो प्रकार के धर्मशास्त्रों में यह जो अंतर है, उसका और भी एक कारण है। यह अंतर इनके लेखकों के स्तर पर आधारित है। वेदों के लेखक ऋषि थे। स्मृति के लेखक केवल विद्वान व्यक्ति थे, और ऋषियों का स्तर तथा मान्यता उन लोगों से निश्चित श्रेष्ठ थी जो केवल विद्वान थे। परिणामस्वरूप, वेदों को स्मृति की तुलना में अधिक अधिकारयुक्त माना गया।

     इसके कारण जो परिस्थिति निर्मित होती है, उसे हिंदू ब्रह्मविज्ञान में उत्तम प्रकार से स्पष्ट किया गया। इसके अनुसार, यदि किसी समान विषय पर दो वेदों के नियमों में विरोध उत्पन्न हो जाए, तब किसी भी एक नियम का पालन करने की अनुमति दी जाती है, परंतु दोनों ही नियम कार्यरत रहते हैं। इसके विपरीत, जब श्रुति तथा स्मृति के नियमों में विरोध उत्पन्न हो जाए, जब श्रुति का नियम ही माना जाए क्योंकि, ऊपर बताया गया है, स्मृति का स्तर श्रुति के अधिकार की तुलना में हीन है। लेकिन जैसा कि प्रो. अल्तेकर ने स्पष्ट किया है। कुछ समय बीतने के बाद स्मृति को भी वही अधिकार प्राप्त हो जाएं, जो वेदों को मिले थे और उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए विभिन्न उपाय अपनाए गए। प्रथम स्थान पर स्मृति के लेखक का स्थान ऋषियों के स्तर तक ऊंचा उठाया गया, जो आरंभिक धर्मशास्त्रों के लेखक थे, जैसे कि गौतम और बोद्धायन । उन्होंने कभी भी ऋषियों का समान स्तर नहीं दिया गया। परंतु मनु और याज्ञवलक्य को ऋषि की मान्यता दे दी गई और इस माध्यम से स्मृति का स्तर श्रुति के समान स्तर पर लाया गया। स्मृति को श्रुति की यादगार का एक ऐसा लिखित प्रमाण मानना, जो नष्ट हो गया है, यह दूसरा उपाय अपनाया गया। इस प्रकार स्मृति, एक ऐसी वस्तु जो श्रुति से सर्वथा भिन्न है, ऐसी माने जाने के बजाय श्रुति से बिल्कुल मिलती-जुलती और अभेद्य मानी जाने लगी। इन उपायों का नतीजा दोनों के अधिकारों से संबंधित नियमों में संपूर्ण परिवर्तन में हुआ। प्रारंभ में यदि स्मृति और श्रुति में विरोध हो जाए तब श्रुति का अधिकार ही चलता था। नया नियम यह हो गया कि विरोध की ऐसी स्थिति में किसी भी नियम को मानने की अनुमति थी, जिसका अर्थ यह था कि स्मृति का नियम भी उतना ही कार्यरत था, जितना कि श्रुति का इस नए नियम को, कुमारिल ने अपने पूर्व मीमांसा के भाष्य में स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है, जिसके द्वारा स्मृति को भी उतना ही अधिकार- युक्त बनाया गया जितना कि श्रुतियां थीं।

     जबकि मौलिक रूप से हिंदू समाज वेदों के साथ बंधा हुआ था और वह उन नियमों का पालन नहीं कर सकता था जो वेदों के विरोधी थे, इस नए नियम ने स्थिति को बदल दिया और समाज को श्रुति अथवा स्मृति का अनुसरण करने की छूट दी। परंतु बाद में इस छूट को भी वापस ले लिया गया। स्मृति का अध्ययन भी, श्रुति के समान ही अनिवार्य बना दिया गया ।

     यह परिवर्तन धीरे-धीरे किया गया। प्रथम स्थान पर ऐसा सूचित किया गया कि श्रुति तथा स्मृति ब्रह्मा की दो आंखें हैं और यदि उसकी एक आंख न हो, तब वह एक आंख वाला व्यक्ति बन जाता है। उसके बाद ऐसा सिद्धांत आया कि ब्रह्मणत्व, वेद तथा स्मृति दोनों के संयुक्त अध्ययन के परिणाम से ही संभव हो सकता है। अंत में ऐसा नियम आया जिसके अनुसार केवल स्मृति को मान्यता दी गई और उसकी निंदा करना पाप माना गया तथा जो व्यक्ति इसका दोषी होगा वह इक्कीस पीढ़ियों तक राक्षस योनि में जन्म लेगा, ऐसा घोषित किया गया।

     इस प्रकार स्मृति को हिंदू धर्म के स्रोत के रूप में मान्यता प्रदान की गई और इस बात में कोई संदेह नहीं है प्रो. अल्तेकर के अनुसार :

     'स्मृतियों ने आधुनिक हिंदू धर्म के विकास की रचना में अनेक सामाजिक तथा धार्मिक संस्थाओं तथा प्रथाओं के पहलू निश्चित करने के कार्य में बहुत ही महान भूमिका निभाई । '

     इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि मैंने मनुस्मृति को हिंदू धर्म का दर्शन मानकर गलती की।

     स्मृति को वेदों के स्तर तक ऊंचा उठाने का यह कार्य ब्राह्मणों द्वारा एक अत्यंत स्वार्थ के कारण किया गया था। स्मृतियों में उसके सभी जंगली तथा विलासितापूर्ण विकास में जाति के सिद्धांत ब्राह्मणों की श्रेष्ठता, उनके अधिकार तथा विशेषाधिकारों के सिद्धांत तथा क्षत्रिय तथा वैश्यों की मातहती के सिद्धांत का तथा शूद्रों को निम्नीकरण के सिद्धांत का समावेश है। स्मृति का दर्शन इस प्रकार का होने के कारण उसे भी वही अधिकार प्रदान करने में ब्राह्मणों का प्रत्यक्ष हित था जो वेदों को दिए गए थे और जिस कार्य में अंत में उन्हें अपने हित के पक्ष में सफलता भी मिल गई। लेकिन इसके कारण संपूर्ण देश का सर्वनाश हो गया। परंतु फिर भी, जैसा कि समानता और धर्मचारी हिंदू कहते हैं, यह मानते हुए भी कि स्मृतियों में हिंदू धर्म के दर्शन का समावेश नहीं है, किन्तु उसे वेद तथा भगवतगीता से प्राप्त किया जा सकता है, यह प्रश्न रह ही जाता है कि इससे अंतिम परिणामों में क्या फर्क पड़ता है।

     मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि चाहे हम स्मृति, वेद अथवा भगवतगीता को लें, उससे इस स्थिति में कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता ।

     क्या वेदों की शिक्षा, स्मृति की शिक्षा से मौलिक रूप से भिन्न है ? क्या भगवतगीता स्मृति के बंधनों से विपरीत है? कुछ उदाहरण इस स्थिति को स्पष्ट कर सकते हैं।

     यह निर्विवाद है कि वेदों ने चातुर्वर्ण्य के सिद्धांत की रचना की है, जिसे पुरुषसूक्त नाम से जाना जाता है। यह दो मूलभूत तत्वों को मान्यता देता है उसने समाज के चार भागों में विभाजन को एक आदर्श योजना के रूप में मान्यता दी है। उसने इस बात को भी मान्यता प्रदान की है कि इन चारों भागों के संबंध असमानता के आधार पर होने चाहिएं। भगवतगीता ने जो विद्या दी है, वह भी विवाद से परे है। जो शिक्षा कृष्ण ने भगवतगीता में दी है, उसे निम्नलिखित अधिाघोषण द्वारा संक्षेप में बताया जा सकता है :

     4.13 मैंने स्वयं उस व्यवस्था की रचना की है, जिसे चातुर्वर्ण्य कहा जाता है (यानी, समाज का चार जातियों, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में चौगुना विभाजन) और उसके साथ ही उनकी मौलिक कार्यक्षमता के अनुसार उनके व्यवसायों का निश्चयीकरण । चातुर्वर्ण्य का रचयिता जो है, वह मैं ही हूं।

     3.35 यद्यपि दूसरे वर्ण का व्यवसाय (कर्म) अपनाना आसान हो सकता है। परंतु व्यवसाय को उतनी कार्य कुशलता से न कर सके। अपने ही स्वयं के वर्ण का व्यवसाय करने में सुख है, यदि उसे करते हुए मृत्यु भी क्यों न आए, परंतु दूसरे वर्ण का व्यवसाय अपनाना आपदा का कारण हो सकता है।

     2.26.29. शिक्षित लोगों को उन अशिक्षित लोगों विश्वास को भंग नहीं करना चाहिए, जो अपने व्यवसाय (कर्म) के साथ जुड़े हुए हैं। वे स्वयं अपने व्यवसाय का पालन करें और तदनुसार दूसरों को भी अपने वर्णों के व्यवसाय का पालन करने के लिए बाध्य करें। शायद, शिक्षित मनुष्य अपने व्यवसाय के साथ जुड़े हैं, शिक्षित मनुष्य को उन्हें उनका व्यवसाय लांघकर गलत रास्ते पर चलने के लिए भ्रष्ट नहीं करना चाहिए।

     4.7.8 ‘हे अर्जुन! जब- जब कर्तव्य तथा व्यवसाय के इस धर्म का यानी (चातुर्वर्ण्य के धर्म का पतन होगा, तब-तब में स्वयं जन्म धारण करूंगा और उन लोगों को जो इस पल के लिए जिम्मेदार हैं, उनको दंडित करूंगा और इस धर्म की पूर्ण स्थापना करूंगा।'

     भगवतगीता की स्थिति इस प्रकार है। तब गीता और मनुस्मृति में क्या अंतर है? संक्षेप में गीता ही मनुस्मृति है। जो मनुस्मृति से दूर भागकर गीता में शरण लेना चाहते हैं या तो वे गीता जानते ही नहीं अथवा गीता की उस आत्मा को ही, जो उसे मनुस्मृति के बहुत नजदीक लाती है, अपने विचार से हटा देना चाहते हैं ।



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