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हिंदुत्व का दर्शन - ( भाग २३ ) - लेखक - डॉ. भीमराव आम्बेडकर

V

     मेरे विश्लेषण का निष्कर्ष इतना विचित्र है कि उससे अनेक लोगों को आश्चर्य हो सकता है। इससे आश्चर्यान्वित कुछ लोग तो ऐसा भी कह सकते हैं कि यदि मेरे निष्कर्ष इतने विचित्र हैं, तब हिंदू धर्म के दर्शन के मेरे इस विश्लेषण में कुछ-न-कुछ गलती अवश्य होगी। मुझे उनकी इस आपत्ति का उत्तर देना ही होगा। जो लोग मेरे इस विश्लेषण को स्वीकार करने से इंकार करते हैं, उनके लिए मैं यहीं कहना चाहूंगा कि उन लोगों को मेरा विश्लेषण इसलिए विचित्र लगता है, क्योंकि उन लोगों की हिंदू धर्म के दर्शन के संबंध में धारणाएं सही नहीं हैं। यदि वे सही धारणाएं रखते हैं, तब मेरे निष्कर्षों पर उन्हें आश्चर्य नहीं होगा ।

Dr Babasaheb Ambedkar - Hindutva Ka Darshan     यह बात इतनी महत्वपूर्ण है कि उसे स्पष्ट करने के लिए मुझे यहीं पर रुक जाना चाहिए। इस बात को ध्यान रखना होगा कि इसके पूर्व मैंने धार्मिक क्रांति का जो विश्लेषण किया है, उससे यह स्पष्ट होता है कि मानवीय समाज के दैवी प्रशासन के रूप में धार्मिक आदर्शों के दो प्रकार होते हैं वह एक, जिसमें समाज उसका केंद्र बिंदु है और दूसरा वह, जिसमें व्यक्ति केंद्र बिंदु है। इसी विश्लेषण से यह भी स्पष्ट होता है कि पहले प्रकार के आदर्शों में, क्या अच्छा है तथा क्या सही है। उदाहरणार्थ नैतिक व्यवस्था की कसौटी उपयोगिता है, जब कि दूसरे प्रकार के आदर्श में कसौटी न्याय है। अब हिंदू धर्म का दर्शन न तो उपयोगिता की कसौटी का और न न्याय की कसौटी का बत्तर दे सकता है। इसका कारण यह है कि हिंदू धर्म में मानव समाज के दैवी प्रशसन का धार्मिक आदर्श एक ऐसा आदर्श है, जो स्वयं एक अलग वर्ग के अंतर्गत आता है यह ऐसा आदर्श जिसमें व्यक्ति केंद्र की परिधि में नहीं है। आदर्श का केंद्र बिंदु न तो एक व्यक्ति है और न ही समाज । उसका केंद्र बिंदु एक विशिष्ट वर्ग महामानवों का वर्ग है, जिन्हें ब्राह्मण कहा जाता है। जो लोग इस महत्वपूर्ण परंतु विध्वंसक सच्चाई को ध्यान में रखेंगे, वे इस बात को समझ सकते हैं कि हिंदू धर्म के दर्पण की प्रतिस्थापना व्यक्तिगत न्याय अथवा सामाजिक उपयोगिता पर क्यों नहीं है? हिंदु धर्म के दर्शन की स्थापना संपूर्ण रूप से एक अलग तत्व के आधार पर की गई है। क्या योग्य है अथवा क्या उत्तम है, इस प्रश्न का हिंदू धर्म में एक विचित्र उत्तर मिलता है इसके अनुसार योग्य अथवा उत्तम कार्य वही है जो इन महामानवों के वर्ग, यानी ब्राह्मणों के हितों की रक्षा करता है। ऑस्कर वाइल्ड ने कहा है कि सुबोध होने का मतलब है, पहचाना जाना, मनु को कोई समझे इस बात का उसे न भय है, न शर्मिदगी। मनु इस बात का अवसर ही नहीं देता कि उसे कोई उसे खोज। वह अपने विचार मुखर एवं भव्य मंत्रों में व्यक्त करता है कि कौन महामानव है और कोई भी बात, जो इन महामानवों के हितों की रक्षा करती हो, उसे ही योग्य तथा उत्तम कहा जाए। मैं मनु के वक्तव्यों का उल्लेख करना चाहूंगा कुछ -

     10.3 जाति की विशिष्टता से उत्पत्ति स्थान की अध्ययन, अध्यापन एवं व्याख्यान आदि द्वारा नियम के धारण करने से और यज्ञोपवीत संस्कार आदि की श्रेष्ठता से ब्राह्मण की सब वर्णों का स्वामी है।

     मनु अपने इस वक्तव्य को और अधिक स्पष्ट करते हुए आगे कजता है:

     1.93 ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने के कारण ज्येष्ठ होने से और वेद के धारण करने के धर्मानुसार ब्राह्मण ही सृष्टि का स्वामी होता है।

     1.94 स्वयंभू इस ब्रह्मा ने हव्य तथा काव्य को पहुंचाने के लिए और संपूर्ण सृष्टि की रक्षा के लिए तपस्या कर सर्वप्रथम ब्राह्मण को ही अपने मुख से उत्पन्न किया ।

     1.95 ब्राह्मण के मुख से देवता लोग हव्य को तथा पितर लोग कव्य के खाते हैं, अतः ब्राह्मण से अधिक श्रेष्ठ प्राणी कौन होगा ।

     1.96 भूतों में प्राणधारी जीव श्रेष्ठ है, प्रणियों में बुद्धिजीवी श्रेष्ठ है, बुद्धिजीवियों में मनुष्य श्रेष्ठ है और मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है।

     ब्राह्मण प्रथम श्रेणी का मनुष्य है, क्योंकि ईश्वर ने उसे देवताओं का तथा पितरों की आत्माओं की आहुति देने के लिए अपने मुख से निर्मित किया, इसके अलावा, ब्राह्मण की श्रेष्ठता के मनु ने कुछ और कारण बताएं हैं, वह कहता है :

     1.98 केवल ब्राह्मण की उत्पत्ति ही धर्म की नित्य देह है, क्योंकि धर्म के लिए उत्पन्न ब्राह्मण मोक्षलाभ के योग्य है।

     1.99 उत्पन्न होते ही ब्राह्मण पृथ्वी पर श्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि वह धर्म की रक्षा के लिए समर्थ होता है। मनु यह कहते हुए उपसंहार करता है: 1.101 ब्राह्मण अपना ही खाता है, अपना ही पहनता है, अपना ही दान करता है, तथा दूसरे व्यक्ति ब्राह्मण की दया से सबका भोग करते है।

     मनु का कहना है :

     1.100 विश्व भर में जो कुछ भी है, वह सब कुछ ब्राह्मण की संपत्ति है। अपने सर्वश्रेष्ठ जन्म के कारण ही ब्राह्मण इन सभी के लिए पात्र है।

     मनु ने निर्देश दिया है :

     7.37 राजा प्रात:काल उठकर ऋग्यजुस्राम के ज्ञाता और विद्वान ब्राह्मणों की सेवा करे और उनके कहने के अनुसार कार्य करें।

     7.38 वह वृद्ध, वेद ज्ञात और शुद्ध हृदय वाले ब्राह्मण की नित्य सेवा करें।

     9.3.13 यद्यपि कितनी भी भारी पैसे की तंगी हो, राजा को ब्राह्मण की संपत्ति छीनकर उसे क्रोधित नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह अगर क्रोधित हो जाए तो तुरंत ही तपस्या से और श्राप देकर राजा को उसकी सेना, हाथी, घोड़े और रथ आदि सभी के साथ नष्ट कर सकता है।

     अंत में मुन कहता है :

     11.35 शास्त्रोक्त कर्मों का करने वाला, पुत्र- शिष्यादि को शासन करने वाला, प्रायश्चित विधि आदि का कहने वाला ब्राह्मण सबका मित्र रूप है, अतएव उससे अशुभ वचन तथा रूखी बात नहीं करनी चाहिए।

     10.122 परंतु स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा से अथवा इस जन्म में अगले जन्म के उद्देश्य से शूद्र को ब्राह्मण की सेवा करनी चाहिए, क्योंकि जिसे ब्राह्मण का सेवक माना जाता है, उसे सभी सुख-शांति प्राप्त होती है।

     10.123 शूद्र के लिए, ब्राह्मण की सेवा करना, केवल यही सर्वोत्तम व्यवसाय है, क्योंकि इसके अलावा वह जो कुछ भी करता है, उससे कोई फल की प्राप्ति नहीं हो सकती।

     मनु और आगे कहता है :

     10.129 शूद्र संचय करने की स्थिति में हो, फिर भी ऐसा न करे, क्योंकि जो शूद्र धन संचय करता है, वह ब्राह्मण को दुख पहुंचाता है।

     मनु के उपरोक्त विधानों से हिंदू धर्म के दर्शन का सही रूप स्पष्ट होता है। हिंदू धर्म महामानव (ब्राह्मण) का धर्म है और वह यह उपदेश देता है कि जो बात महामानव के लिए उचित है, वहीं नैतिक दृष्टि से सही और उचित है।

     क्या इसके समानांतर कोई और भी दर्शन है? उसे बताते हुए भी मुझे घृणा आती है। परंतु बात बिल्कुल स्पष्ट है। हिंदू धर्म के दर्शन का समानांतर केवल तीत्शे में ही मिलता है। इस सुझाव पर हिंदू क्रोधित हो सकते हैं। वह सर्वथा स्वाभाविक है क्योंकि नीत्शे के दर्शन की भारी उपेक्षा की जाती है। वह कभी पनपा नहीं। उसके अपने ही शब्दों में उसे कभी बड़े-बड़े अमीरों, सामंतों का दार्शनिक कहा गया, तो कभी उसे दुत्कार दिया गया। कभी-कभी उस पर दया की गई और कभी-कभी अमानवीय मानकर उसकी उपेक्षा की गई। नीत्शे के दर्शन की पहचान सत्ता की लालसा, हिंसाचार, नैतिक मूल्यों का नकार, महामानव और उसके लिए त्याग, गुलामी और सामान्य मनुष्य की अधोगति इन बातों के साथ ही की जाने लगी। उसके दर्शन ने इन कुछ मुख्य बातों के कारण उसकी अपनी पीढ़ी के लोगों के मल में ही घिनौनेपन की भावना तथा आतंक का निर्माण किया। उसकी भारी उपेक्षा की गई, यद्यपि उसे बहिष्कृत न भी किया गया हो और स्वयं नीत्शे ने अपने-आपको मरणोपरांत सम्मानित व्यक्तियों की सूची में समावेश करके राहत महसूस की। उसने अपने स्वयं के लिए अपने समय से आगे अनेक सदियों बाद एक ऐसे समाज की कल्पना की जो शायद उसकी प्रशंसा करें। लेकिन इस बात में भी उसे निराशा सहनी पड़ी। उसके दर्शन की प्रशंसा होने के बजाए समय बीतने के साथ-साथ तीत्शे की पीढ़ी के लोगों के मन में जो उपेक्षा तथा डर की भावना थी, वह और भी बढ़ने लगी। ऐसा इसलिए, हुआ क्योंकि तीत्शे के दर्शन में नाजीवाद निर्माण की क्षमता है। यह बात लोगों को स्पष्ट हो गई थी। उसके मित्रों ने ही इस धारणा का तीव्र विरोध किया। परंतु यह जानना कठिन नहीं है कि उसका दर्शन किसी महामानव के निर्माण के बजाए एक महाराज्य निर्माण करने के लिए आसानी से लागू किया जा सकता है और नाजी लोगों ने वैसा ही किया। चाहे कुछ भी हो, नाजी लोक नीत्शे को अपना पूर्वज कहते हैं और उसे अपना आध्यामिक गुरू मानते हैं। हिटलर ने स्वयं नीत्शे की आवक्ष मूर्ति के साथ


1. फ्राम नीत्शे डाउन टु हिटलर, एम. पी. निकोथस, 1938


अपना चित्र खिचवाया था। उसने नीत्शे के सभी मूल लेख अपनी विशेष निगरानी में रखे। उसके लेखों से कुछ उदाहरण निकाले और उसे नाजीवाद के समारोहों में नए जर्मन धर्म के रूप में घोषित किया। नीत्शे नाजीवाद लोगों का आध्यात्मिक पूर्वज है, इस बात से नीत्शे के नजदीकी संबंधियों ने भी इंकार नहीं किया। नीत्शे के चचेरे भाई रिचार्ड औलचर ने यह बात कबूल की है कि हिटलर की सक्रियता नीत्शे के विचारों की परणति है और नाजी लोगों के सत्ता में आने के पीछे नीत्शे की ही मूल प्रेरणा थी। स्वयं नीत्शे की बहन ने अपनी मृत्यु से कुछ दिन पूर्व हिटलर को उसके भाई को सम्मानित करने के लिए धन्यवाद दिया और कहा कि जरथुस्त्र में जिस महामानव का वर्णन किया गया है, उसका अवतार वह हिटलर में देखती है।



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