Phule Shahu Ambedkar फुले - शाहू - आंबेडकर
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प्रथम भाग: जन्म से प्रव्रज्या - भगवान बुद्ध और उनका धम्म (भाग 5) - लेखक -  डॉ. भीमराव आम्बेडकर

७. आरम्भिक प्रवृत्तियाँ

१. जब कभी वह अपने पिता की जमींदारी में जाता वहाँ कृषि सम्बन्धी कोई काम न होता, वह किसी एकान्त कोने में जाकर ध्यानारूढ हो जाता ।

२. निस्सन्देह उसे सभी प्रकार की शिक्षा मिल रही थी, किन्तु साथ-साथ एक क्षत्रिय के योग्य सैनिक शिक्षक की ओर से भी उदासीनता नहीं दिखाई जा रही थी ।

३. शुद्धोदन को इस बात का ध्यान था कि कहीं ऐसा न हो कि सिद्धार्थ में मानसिक गुणों का ही विकास हो और वह क्षात्र बल में पिछड़ जाय ।

४. सिद्धार्थ स्वभाव के कारूणिक था । उसे यह अच्छा नहीं लगता था कि आदमी, आदमी का शोषण करे ।

५. एक दिन अपने कुछ मित्रों सहित वह अपने पिता के खेत पर गया । वहाँ उसने देखा कि मजदूर खेत कोड़ रहे हैं बांध बांध रहे है । उनके तन पर पर्याप्त कपड़ा नहीं है । वे सूर्य के ताप से जल रहे हैं ।

६. उस दृश्य का उसके चित्त पर बड़ा प्रभाव पड़ा ।

gautam buddha and devdutt - Bhagwan Buddha aur Unka Dhamma - Written by dr Bhimrao Ramji Ambedkar

७. उसने अपने एक मित्र से कहा -- एक आदमी दूसरे का शोषण करे, क्या इसे ठीक कहा जायेगा ? मजदूर मेहनत करे और मालिक उसकी मजदूरी पर गुलछर्रे उड़ाये यह कैसे ठीक हो सकता है?

८. उसके मित्रों के पास उसके इस प्रश्न का कोई उत्तर न था, क्योंकि वे पुरानी विचार- परम्परा के मानने वाले थे कि किसान- मजदूर का जन्म अपने मालिकों की सेवा करने के लिये ही हुआ है और ऐसा करना ही उनका धर्म है ।

९. शाक्य लोग वप्रमंगल नाम का एक उत्सव मनाया करते थे । धान बोने के प्रथम दिन मनाया जाने वाला यह एक ग्रामीण उत्सव था । शाक्यों की प्रथा के अनुसार उस दिन हर शाक्य को अपने हाथ से हल जोतना पड़ता था ।

१०. सिद्धार्थ ने हमेशा इस प्रथा का पालन किया । वह अपने हाथ से हल चलाया करता था ।

११. यद्यपि वह विद्वान् था, किन्तु उसे शरीर श्रम से घृणा न थी ।

१२. उसका “क्षत्रिय” कुल था, उसे धनुष चलाने तथा अन्य शस्त्रों का प्रयोग करने की शिक्षा मिली थी । लेकिन वह किसी भी प्राणि को अनावश्यक कष्ट देना नहीं चाहता था ।

१३. वह शिकारियों के दल के साथ जाने से इनकार कर देता था । उसके मित्र कहते- “क्या तुम्हें शेर- चितों से डर लगता है?" वह प्रत्युत्तर देता -- “मै जानता हूँ कि तुम शेर- चितों को मारने वाले नहीं हो, तुम हिरनो तथा खरगोशों जैसे निस्पृह जानवरों को ही मारने वाले हो ।”

१४. “शिकार के लिये नहीं, तो अपने मित्रों का निशाना देखने के लिये ही आओं उसके मित्र आग्रह करते । सिद्धार्थ इस तरह के निमंत्रणों को भी अस्वीकार कर देता -- मैं निर्दोष प्राणियों के वध का साक्षी नहीं होना चाहता । "

१५. उसकी इस प्रवृत्ति से प्रजापति गौतमी बड़ी चिन्तित हो उठी ।

१६. वह उससे तर्क करती – “तुम भूल गए हो कि तुम एक क्षत्रिय कुमार हो । लड़ना तुम्हारा 'धर्म' है। शिकार के माध्यम से ही युद्ध- इ-विद्या में निष्णात हुआ जा सकता है, क्योंकि शिकार करके ही तुम ठीक-ठीक निशाना लगाना सीख सकते हो । शिकार-भूमि ही युद्ध भूमि का अभ्यास क्षेत्र है ।"

१७. लेकिन सिद्धार्थ बहुधा गौतमी से पूछ बैठते, "तो मां ! एक क्षत्रिय को क्यों लड़ना चाहिये?" और गौतमी का उत्तर होता, "क्योंकि यह उसका धर्म है ।"

१८. सिद्धार्थ उसके उत्तर से संतुष्ट न होता । वह गौतमी से पूछता -- “मां! यह तो बता कि आदमी का आदमी को मारना एक आदमी का ही 'धर्म' कैसे हो सकता है?” गौतमी उत्तर देती - "यह सब तर्क एक संन्यासी के योग्य है। लेकिन क्षत्रिय का तो 'धर्मं लड़ना ही है । यदि क्षत्रिय भी नहीं लड़ेगा तो राष्ट्र का संरक्षण कौन करेगा ।”

१9. “लेकिन मां! यदि सब क्षत्रिय परस्पर एक दूसरे को प्रेम करें तो क्या बिना कटे-मरे वे राष्ट्र का संरक्षण कर ही नहीं सकते?" गौतमी निरूत्तर हो जाती ।

२०. वह अपने साथियों को अपने साथ बैठकर ध्यान लगाने की प्रेरणा करता । वह उन्हें बैठने का ठीक ढंग सिखाता । वह उन्हें किसी एक विषय पर चित्त एकाग्र करना सिखाता । वह उन्हें परामर्श देता कि ऐसी ही भावनाओं की भावना करनी चाहिये कि मै सुखी रहूँ, मेरे सम्बन्धी सुखी रहे और सभी प्राणी सुखी रहें ।

२१. उसके मित्र उसकी बातों को महत्व न देते थे । वे उस पर हँसते थे ।

२२. वे आँखे बन्द करते तो उनका चित्त उनके ध्यान के विषय पर एकाग्र न होता । इसकी बजाय उनकी आंखों के सामने नाचते वे हिरन जिनका वे शिकार करना चाहते थे, अथवा वे मिठाईयाँ जिन्हें वे खाना चाहते थे ।

२३. उसके माता- पिता को उसका यह ध्यानाभिमुख होना अच्छा नहीं लगता था । उन्हें लगता था कि यह क्षत्रिय जीवन के सर्वथा प्रतिकूल है।

२४. सिद्धार्थ का विश्वास था कि योग्य भावनाओं पर चित्त एकाग्र करने से हम अपनी मैत्री - भावना को बहुत व्यापक बना सकते है । उसका कहना था कि सामान्यरूप से जब भी कभी हम प्राणियों के बारे में कुछ भी विचार करते है, हमारे मन में भेद - विभेद घर कर जाते हैं । हम मित्रों को शत्रुओं से भिन्न कर लेते है । हम अपने पालतू पशुओ को मनुष्यो से भिन्न कर लेते हैं । हम अपने मित्रों से प्रेम करते हैं, और प्रेम करते हैं अपने पालतू पशुओं से । हम अपने शत्रुओ से घृणा करते हैं और घृणा करते है सामान्य जन्तुओं से ।

२५. “हमे इस विभाजक रेखा की सीमा के उस पार जाना चाहिये । हम यह कार्य तभी कर सकते है जब हम अपने ध्यान में इस व्यवहार जगत की सीमाओं को लांघ सकें ।"

२६. उसका बचपन करूणामय था ।

२७. एक बार वह अपने पिता के खेतों पर गया । विश्राम के समय वह एक वृक्ष के नीचे लेटा हुआ प्राकृतिक शान्ति और सौन्दर्य का आनन्द लूट रहा था । उसी समय आकाश से एक पक्षी ठीक उसी के सामने आ गिरा ।

२८. पक्षी को एक तीर लगा था, जिसने उसे बिध दिया था और जिसके कारण वह तडफड़ा रहा था ।

२९. सिद्धार्थ पक्षी की सहायता के लिये उठ बैठा । उसने उसका तीर निकाला, जख्म पर पट्टी बांधी और पीने के लिये पानी दिया । उसने पक्षी को गोद में लिया और अपनी चादर के भीतर छिपाकर उसे अपनी छाती की गरमी पहुँचाने लगा ।

३०. सिद्धार्थ को आश्चर्य था कि इस असहाय पक्षी को किसने बींधा होगा ? शीघ्र ही उसका ममेरा भाई देवदत्त वहाँ आ पहुँचा । वह शिकार के सभी आयुधों से सन्नद्ध था । उसने सिद्धार्थ से कहा कि उसने उडते हुए पक्षी पर तीर चलाया था । पक्षी घायल हो गया था । कुछ दूर उछलकर वह वही, आस-पास ही गिरा था। उसने सिद्धार्थ से पूछा- “क्या तुमने उसे देखा है ?" ३१. सिद्धार्थ ने 'हाँ' कहकर स्वीकार किया और वह पक्षी भी उसे दिखाया जो अब बहुत कुछ स्वस्थ हो चला था ।

३२. देवदत्त ने मांग की कि उसका पक्षी उसे दे दिया जाय । सिद्धार्थ ने इनकार किया । दोनों में घोर विवाद हुआ ।

३३. देवदत्त का कहना था कि शिकार के नियमों के अनुसार जो पक्षी को मारता है वही उसका मालिक होता है। इसलिये वही उसका मालिक है ।

३४. सिद्धार्थ का कहना था कि यह आधार ही सर्वथा गलत है । जो किसी की रक्षा करता है, वही उसका स्वामी हो सकता है । हत्यारा कैसे किसी का स्वामी हो सकता है?

३५. दोनों में से एक भी पक्ष झुकने के लिये तैयार न था । मामला न्यायालय तक जा पहुँचा । न्यायालय ने सिद्धार्थ के पक्ष में निर्णय दिया ।

३५. देवदत्त सिद्धार्थ का बद्ध - वैरी बन गया । लेकिन सिद्धार्थ की करूणा ऐसी ही अनुपम थी कि वे ममेरे भाई को प्रसन्न बनाये रखने की बजाय एक पक्षी की जान बचाना अधिक श्रेयस्कर समझते थे ।

३६. सिद्धार्थ गौतम का आरम्भिक जीवन कुछ-कुछ ऐसा ही था ।



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