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समाप्ति - भगवान् बुद्ध की प्रशस्ति - भगवान बुद्ध और उनका धम्म  (भाग १३०)  - लेखक -  डॉ. भीमराव आम्बेडकर

समाप्ति

१. भगवान् बुद्ध की प्रशस्ति

१. भगवान् बुद्ध का जन्म पच्चीस सौ वर्ष हुए हुआ था ।

२. आधुनिक विचारक और वैज्ञानिक उनके तथा उनके धम्म के बारे में क्या कहते है ? उनके विचारों का यह संग्रह उपयोगी होगा

Praise of Lord Buddha - Bhagwan Buddha aur Unka Dhamma - Written by dr Bhimrao Ramji Ambedkar

३. प्रो. एस. एस. राघवाचार्य कहते है ।

४. “भगवान् बुद्ध के अविर्भाव से ठीक पहले का समय भारतीय इतिहास का सर्वाधिक अन्धकारमय युग था ।

५. “चिन्तन की दृष्टि से यह पिछडा हुआ युग था । उस समय का विचार धर्म ग्रन्धो के प्रति अन्धविश्वास से जकड़ा हुआ था ।

६. "नैतिकता की दृष्टि से भी अन्धकारपूर्ण युग था ।

७. "विश्वासी हिंदुओं के लिये नैतिकता का मतलब इतना ही था कि धर्म ग्रंथों के अनुसार यज्ञादिको को ठीक ठीक कर सकना ।

८. “आत्म-त्याग या चित्त की पवित्रता आदि जैसे यथार्थ नैतिक विचारों को उस समय के नैतिक चिन्तन में कोई उपयुक्त स्थान प्राप्त न था । "

९. श्री. आर. जे. जैक्सन का कहना है ।

१०. “भगवान् बुद्ध की शिक्षाओं का अनुपम रुप भारतीय धाम्मिक विचारधारा के अध्ययन से ही स्पष्ट होता है ।

११. "ऋग्वेद की ऋचाओं में हम पाते है कि आदमी बहिर्मुख है -- उसका सारा चिन्तन देवताओं की ओर अभिमुख है ।

१२. बौद्ध धम्म ने आदमी के अन्दर जो सामर्थ्य छिपी हुई है, उसकी ओर ध्यान आकर्षित किया ।

१३. “वेदों में हमें प्रार्थना, प्रशंसा और पूजा ही मिलती है ।

१४. “बौद्ध धम्म में ही हमें प्रथम बार चित्त को सही रास्ते पर चलाने के शिक्षा - क्रम की शिक्षा मिलती है ।"

१५. श्री. विनवूड रीड का कहना है:-

१६. “जब हम प्रकृति की पुस्तक खोलकर देखते है, जब हम लाखों-करोडो वर्षो का खून तथा आंसुओं में लिखा हुआ 'विकास' इतिहास' पढ़ते हैं, जब हम जीवन का निमंत्रण करने वाले नियमों को पढते हैं, और उन नियमों को, जो विकास को जन्म देते है, तो यह स्पष्ट दिखाई देता है कि यह सिद्धांत कि परमात्मा प्रेम रूप हैं, कितना भ्रामक है ।

१७. “हर चीज में बदमाशी भरी पडी है और अपव्यय का कही कोई ठिकाना नहीं है। जितने भी प्राणी पैदा होते है उनमें बचने वालो की संख्या बहुत ही थोडी है ।

१८. “चाहे समुद्र में देखों, चाहे हवा में देखो और चाहे जंगल में देखो -- हर जगह यही नियम है, दूसरों को खाओ तथा दूसरों के द्वारा खाये जाने के लिये तैयार रहो । हत्या ही विकास क्रम का कानून है ।"

१९. श्री० रीडे ने यह बात अपनी 'मारटायरडम आफ मैंन' (Martyrdom of Man) नाम की पुस्तक में कही है । भगवान् बुद्ध का धम्म इससे कितना भिन्न है !

२०. डॉ. रंजन राय का कहना है:-

२१. “उन्नीसवी शताब्दी के उत्तरार्ध में तीन कानूनों की तूती बोलती थी । किसी ने उन्हें अस्वीकार करने का साहस नहीं किया ।

२२. “ये कानून थे-- (१) जड पदार्थ का कानून, (२) जड पदार्थ के समूह का कानून, (३) शक्ति का कानून ।

२३. “यह उन आदर्श-वादी चिन्तको के जयघोष थे, जो समझते थे कि ये तीनों अविनाशी हैं ।

२४. "उन्नीसवी शताब्दी के वैज्ञानिको के अनुसार ये तीन कानून ही सृष्टि के संचालक थे ।

२५. "उन्नीसवी शताब्दी के वैज्ञानिकों के अनुसार ये तीन कानून ही सृष्टि के मूल तत्व थे ।

२६. “उनकी कल्पना थी कि विश्व अविनाशी अणुओं (Atoms) का समूह है।

२७. “उन्नीसवी शताब्दी समाप्त होने को आई श्री. जे. जे. थामसन और उनके अनुयायियों के अणुओं पर हथौडे चलाने आरम्भ किये ।

२८. “आश्चर्य की बात हुई-- अणुओं के भी टुकडे टुकडे होने लगे. ।

२९. “इन टुकडों को परमाणु कहा जाने लगा--- - सभी समान और सभी में ऋणात्मक विद्युत् ।

३०. “जिन अणुओं को मैक्सवेल विश्व के अथवा वास्तविकता के अविनाशी आधार स्तम्भ मानता था, वे खण्ड-खण्ड हो गये ।

३१. “उनके बहुत छोटे-छोटे खण्ड हुए--प्रोटोन तथा एलेक्ट्रोन (Protons & Electrons); धनात्मक तथा ऋणात्मक विद्यु लिये हुए ।

३२. “एक निश्चित अविनाशी जड पदार्थ समूह की कल्पना विज्ञान से विदा हुई । इस शताब्दी में सभी का विश्वास है कि व का प्रतिक्षण निरोध हो रहा है ।

३३. “भगवान बुद्ध के अनित्यता के सिद्धांत को समर्थन प्राप्त हुआ है ।

३४. “विज्ञान ने इस बात को सिद्ध कर दिया है कि विश्व की गति ( चीजों के) मेल से किसी चीज के बनने, उनके खण्ड खण्ड हो जाने तथा फिर मिलने के नियमों पर ही आश्रित है ।

३५. “आधुनिक विज्ञान के अनुसार अन्तिम तत्व अनेक होकर एक भासित होने वाला है ।

३६. “आधुनिक विज्ञान भगवान् बुद्ध के अनित्यता तथा अनात्मवाद के सिद्धांत की प्रतिध्वनि है ।

३७. श्री. ई० जी० टेलर ने अपने 'बुद्धिज्म एण्ड माडर्न थाट' (Buddhism and Modern Thought) में लिखा है:-

३८. “काफी समय से आदमी बाहरी ताकतों के दबाव मे रहा है । यदि उसे 'सभ्य' शब्द के वास्तविक अर्थो में सभ्य बनना है तो उसे अपने ही नियमों द्वारा अनुशासित रहना सीखना होगा । बौद्ध धम्म ही वह प्राचीनतम नैतिक विचार धारा है जिसमें आदमी को स्वयं अपना आप अनुशासक बनने की शिक्षा दी गई है।

३९. “इसलिये इस प्रगतिशील संसार को बौद्ध धम्म की आवश्यकता है ताकि वह इससे यह ऊंची शिक्षा हासिल कर सके ।”

४०. श्री. लेसली बोलटन (The Rev. Leslie Bolton) नाम के ईसाई धर्म के युनिटेरियन सम्प्रदाय के पुरोहित का कहना है---

४१. “बौद्ध धम्म में आध्यात्मिक मनोविज्ञान को मैं बहुत महत्वपूर्ण योगदान मानता हूँ ।”

४२. "बौद्धों की तरह हम युनिटेरियन सम्प्रदाय के मानने वाले भी परम्परा, पुस्तकों वा मतों के बाह्य अधिकार को प्रमाण नहीं मानते । हम आदमी के अपने भीतर ही उसका मार्ग दर्शक प्रदीप देखते हैं ।

४३. "युनिटेरियन मत के अनुयायियों को ईसा और बुद्ध दोनो ही जीवन के श्रेष्ठ व्याख्याकार प्रतीत होते है ।”

४४. प्रो. डेविट गोडर्ड का कथन है:-

४५. "संसार में जितने भी धर्म संस्थापक हुए हैं, उनमें भगवान् बुद्ध को ही यह गौरव प्राप्त है कि उन्होंने आदमी में मूलत: विद्यमान उस निहित शक्ति को पहचाना जो बिना किसी बाह्य निर्भरता के उसे मोक्ष पथ पर अग्रसर कर सकती है ।

४६. “यदि किसी वास्तविक महान् पुरुष का महात्म्य इसी बात में है की वह मानवता को कितनी मात्रा में महानता की ओर अग्रसर करता है, तो तथागत से बढकर दूसरा कौन सा आदमी महान हो सकता है?”

४७. “भगवान् बुद्ध ने किसी 'बाह्य शक्ति' को आदमी के ऊपर बिठाकर उसका दर्जा नहीं घटाया, बल्कि उसे प्रज्ञा और मंत्री के शिखर पर ले जाकर बिठा दिया है ।"

४८. बुद्धिज्म ग्रंथ के लेखक श्री ई. जे. मिलर का कहना है:-

४९. “दूसरे धर्म में 'विद्या'को इतना महत्व नहीं दिया गया और 'अविद्या' की इतनी गरहा नही की गई, जितनी बुद्ध धम्म में ।

५०. “कोई दूसरा धर्म अपनी आँख खुली रखने पर इतना जोर नहीं देता ।

५१. “किसी दूसरे धर्म ने आत्म - विकास की इतनी विस्तृत, इतनी गहरी तथा इतनी व्यवस्थित योजना पेश नहीं की ।”

५२. अपने 'बुद्धिस्ट एथिक्स' नामक ग्रन्थ में प्रो. डब्लू. टी. स्टास ने लिखा है. --

५३. बौद्ध धम्म का नैतिक आदर्श- पुरुष-अर्हत-- न वे केवल सदाचार की दृष्टि से बल्कि मानसिक विकास की दृष्टि से भी महान होना चाहिये ।

५४. उसे दार्शनिक तथा श्रेष्ठ आचारवान् -- दोंनो एक साथ होना चाहिये ।

५५. “बौद्धधम्म ने ‘विद्या' को हमेशा मुक्ति के लिये अनिवार्य माना है और 'अविद्या' तथा 'तृष्णा'को मोक्ष के प्रधान बाधक स्वीकार किया है।

५६. “इसके विरुद्ध ईसाई आदर्श पुरुष के लिये ज्ञानी होना कभी आवश्यक नहीं माना गया है ।

५७. “क्योंकि संस्थापक का अपना स्वरुप ही आदार्शनिक था । इसलिये ईसाइयन में दार्शनिकता का आदमी की नैतिकता से कोई सम्बन्ध नही माना गया हैं ।"

५८. संसार के दुखों के मूल में शरारत से कहीं अधिक अज्ञान ओर अविद्या ही है ।

५९. "भगवान बुद्ध ने इनके लिये जगह नहीं रखी ।"

६०. यह दिखाने के लिये कि भगवान् बुद्ध और उनका धम्म कितना महान् है और कितना अनुपम है-- इतना पर्याप्त है ।

६१. कौन है जो ऐसे भगवान् बुद्ध को अपना शास्ता स्वीकार न करना चाहेगा

 

२. उनके धम्म के प्रचार की शपथ

१. अनन्त प्राणी है, हम शपथ ग्रहण करे कि हम सभी को भवसागर के पार उतारेंगे।

२. हम में अनन्त कमजोरियाँ हैं, हम शपथ ग्रहण करें कि हम एक एक करके सबको दूर करेंगे ।

३. अगणित सत्य है, हम शपथ ग्रहण करें कि हम सभी का बोध प्राप्त करेगे ।

४. भगवान् बुद्ध का अनुपम मार्ग है, हम शपथ ग्रहण करें कि हम उस पर पूरी तरह चलेंगे ।

 

३. भगवान् बुद्ध के पुन: स्वदेश लौट आने की प्रार्थना

१. हे पुराषोत्तम! मैं सर्व भावना से तथागत की
शरण ग्रहण करता हूँ, जिन की ज्योति
निर्बाध रुप से दसों दिशाओं में व्याप्त है;
और कामना करता हूँ कि मैं आपके उस
सुखावति लोक में जन्म ग्रहण करूँ ।

२. आप के उस लोक को जब मैं अपने मानस चक्षु
से देखता हूँ तो जानता हूँ कि यह तीनों भवों की समस्त भूमियों से
प्रकृष्टतर है ।

३. कि यह आकाश के समान सर्वग्राही है--
अनन्त और असीम ।

४. आपकी धम्मानुसारिणी करुणा तथा मैत्री
सभी भौतिक वस्तुओं से श्रेष्ठतर उस
पुण्य राशी का परिणाम है, जिसे अपने
अनन्त जन्मों में संचित किया है ।

५. आपका प्रकाश सूर्य तथा चन्द्रमा रुपी दर्पण के
समान सर्वव्याप्त है ।

६. मेरी कामना है कि जितने भी प्राणी उस
सुखावति-व्यूह में जन्म ग्रहण करें वे सभी
तथागत के समान ही सद्धम्म की घोषणा करें ।

७. यहाँ मैं यह निबन्ध लिख रहा हूँ और ये
पुण्यश्लोक भी मेरी प्रार्थना है कि मुझे
तथागत का साक्षात् दर्शन हो सके,

८. और मैं समस्त प्राणियों सहित सुखावति - व्यूह में
जन्म ग्रहण कर सकूँ ।



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