II
मनु ने हिंदुओं द्वारा अपनाए जाने और उनका पालन किए जाने हेतु क्या नैतिक और धार्मिक सिद्धांत प्रतिपादित किए? मनु ने आरंभ में हिंदुओं को चार वर्णों या सामाजिक श्रेणियों में विभाजित किया। उसने हिंदुओं को चार वर्णों में विभाजित ही नहीं किया बल्कि उन्हें श्रेणीबद्ध भी किया, जो इस प्रकार हैं:
10.3 जाति की विशिष्टता से उत्पत्ति स्थान की श्रेष्ठता से, अध्ययन एवं व्याख्यान आदि द्वारा नियम के धारण करने से और यज्ञोपवीत संस्कार आदि की श्रेष्ठता से ब्राह्मण ही सब वर्णों का स्वामी है।
वह अपने तर्क को पुष्ट करते हुए निम्नलिखित कारण बताता है:-
1.93 ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने से पहले उत्पन्न होने के कारण श्रेष्ठ होने से और वेद के धारण करने से धर्मानुसार ब्राह्मण ही सम्पूर्ण सृष्टि का स्वामी है।
1.94 स्वयम्भू उस ब्रह्मा ने हव्य तथा कव्य को पहुंचाने के लिए और सम्पूर्ण सृष्टि की रक्षा के लिए तपस्या कर सर्वप्रथम ब्राह्मण को ही अपने मुख से उत्पन्न किया।
1.95 जिस ब्राह्मण के मुख से देवता हव्य को तथा पितर कव्य को खाते हैं उस ब्राह्मण से अधिक श्रेष्ठ प्राणी कौन होगा ?
1.96 भूतों में प्राणी श्रेष्ठ है, प्राणियों में बुद्धिजीवी श्रेष्ठ है, बुद्धिजीवियों में मनुष्य श्रेष्ठ है और मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है।
मनु द्वारा दिए गए कारणों के अतिरिक्त ब्राह्मण प्रथम वर्ण का है क्योंकि वह ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुआ है और देवताओं को हव्य तथा पितरों को कव्य पहुंचाता है।
मनु ब्राह्मण की श्रेष्ठता का अन्य कारण भी बताता है। वह कहता है :-
1.98 ब्राह्मण की उत्पत्ति ही धर्म की नित्य देह है, क्योंकि वह धर्म के लिए उत्पन्न हुआ है और मोक्ष लाभ के योग्य होता है।
1.99 उत्पन्न हुआ ब्राह्मण पृथ्वी पर श्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि वह धर्म की रक्षा के लिए समर्थ है।
मनु अन्त में यह कहता है:
1.101. ब्राह्मण अपना ही खाता है, अपना ही पहनता है, अपना ही दान करता है तथा दूसरे व्यक्ति ब्राह्मण की दया से सब पदार्थों का भोग करते हैं।
मनु के अनुसार :
1.100. पृथ्वी पर जो कुछ भी है, वह सब ब्राह्मणों का है, अर्थात् ब्राह्मण अच्छे कुल में जन्म लेने के कारण इन सभी वस्तुओं का स्वामी है।
यह कहना कोई बड़ी बात नहीं कि मनु के अनुसार ब्राह्मण समस्त सृष्टि का स्वामी है। क्योंकि मनु यह चेतावनी देता है कि-
9.317. जिस प्रकार शास्त्रविधि से स्थापित अग्नि और सामान्य अग्नि, दोनों ही श्रेष्ठ देवता हैं, उसी प्रकार ब्राह्मण चाहे वह मूर्ख हो या विद्वान, दोनों ही रूपों में श्रेष्ठ देवता है।
9.319. इस प्रकार ब्राह्मण यद्यपि निंदित कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। तथापि ब्राह्मण सब प्रकार से पूज्य हैं, क्योंकि वे श्रेष्ठ देवता हैं।
देवता होने के कारण ब्राह्मण कानून और राजा से ऊपर है। मनु आदेश देता है:
7.37. राजा प्रातःकाल उठकर ऋग्यजुः साम के ज्ञाता और विद्वान (राजधर्म में) ब्राह्मणों की सेवा करें और उनके कहने के अनुसार कार्य करे।
7.38. वह वृद्ध ब्राह्मणों की प्रतिदिन सेवा करे जो वेद के ज्ञाता और शुद्ध हृदय हैं।
अंत में मनु कहता है:
11.35. इस प्रकार ब्रह्मा (विश्व के ) सृष्टा, शास्ता, गुरु ( और इसलिए सारी सृष्टि के) संरक्षक घोषित किए जाते हैं। कोई भी व्यक्ति उनके प्रति न कोई अशुभ और न कोई कठोर वचन कहे।
मनु संहिता में विभिन्न व्यवसायों के बारे में नियम दिए गए हैं। जिनका विभिन्न वर्गों को पालन करना चाहिए।
1.88. स्वयंभू मनु ने ब्राह्मणों के कर्तव्य वेदाध्यान, वेद की शिक्षा देना, यज्ञ करना, अन्य को यज्ञ करने में सहायता देना और अगर वह धनी है, तब दान देना और अगर निर्धन है, तब दान लेना निश्चित किए ।
1.89. प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद का अध्ययन करना, विषय में आसक्ति नहीं रखना, संक्षेप में क्षत्रियों के कर्तव्य हैं।
1.90. पशुपालन, दान देना, यज्ञ करना, शास्त्रों को पढ़ना, व्यापार करना, ब्याज पर ऋण देना और खेती करना वैश्यों के कर्तव्य निश्चित या अनुमोदित किए गए।
1.91. ब्रह्मा ने शूद्रों के लिए एक ही मुख्य कर्तव्य निश्चित किया अर्थात् उक्त वर्गों की अनिंदित रहते हुए सेवा करना ।
10.74. ऐसे ब्राह्मण जो उत्कृष्ट देवत्व प्राप्त करने के इच्छुक हैं और अपने कर्तव्य के प्रति दृढ़ प्रतिज्ञ हैं, वे छह कार्यों को क्रमानुसार पूर्णरूपेण निष्पादित करें।
10.75. वेदों का अध्ययन, अध्यापन - यज्ञ करना, अन्य को यज्ञ करने में सहायता देना, यदि पर्याप्त संपत्ति है तब निर्धनों को दान देना, यदि स्वयं निर्धन है तब पुण्यशील व्यक्तियों से दान लेना, ये छह कर्तव्य प्रथम उत्पन्न वर्ग (ब्राह्मणों) के हैं।
10.76. लेकिन ब्राह्मण के लिए निर्धारित इन छह कर्मों में से तीन कर्तव्य उसकी जीविका के लिए हैं यज्ञ करने में सहायता देना, वेदों का अध्यापन और पुण्यशील से दान लेना।
10.77. तीन कर्तव्य ब्राह्मणों तक सीमित हैं। वे क्षत्रियों के लिए नहीं हैं - वेदों का अध्यापन, यज्ञ कराना और तीसरा, दान लेना ।
10.78. ये तीन वैश्यों (विधि के तीन स्थाई नियम) के लिए भी वर्जित हैं, क्योंकि प्रजापति मनु ने ये कर्तव्य उन दोनों (सैनिक और वाणिज्यिक) वर्गों के लिए निश्चित नहीं किए हैं।
10.79. जीविका के लिए विशेष रूप से क्षत्रियों के कर्तव्य हैं। आयुध ग्रहण करना (अस्त्र और शस्त्र), वैश्यों के कर्तव्य हैं व्यापार, पशुपालन और कृषि, लेकिन अगले जन्म की दृष्टि से दोनों के कर्तव्य हैं- दान देना, अध्ययन और यज्ञ करना ।
मनु श्रेणी और व्यवसाय निश्चित करने के साथ कुछ वर्गों को कुछ विशेषाधिकार देता है और कुछ के लिए दंड निर्धारित करता है।
जहां तक विशेषाधिकारों का संबंध है, विवाह से संबंधित विशेषाधिकारों पर पहले विचार कर लिया जाए। मनु कहता है:
3.12. द्विज वर्ग के लोगों का प्रथम विवाह समान वर्ग की स्त्री के साथ हो, लेकिन जो दुबारा विवाह करना चाहे तब क्रम के अनुसार वर्ग की स्त्री के साथ विवाह करे।
3.13. शूद्र स्त्री केवल शूद्र की पत्नी बन सकती है, वह और वैश्य स्त्री वैश्य पुरुष की, शूद्र और वैश्य स्त्री तथा क्षत्रिय स्त्री क्षत्रिय पुरुष की और ये तीनों वर्गों की स्त्री तथा ब्राह्मणी ब्राह्मण की पत्नी हो सकती है।
इसके बाद व्यवसाय में भी कुछ विशेषाधिकार हैं। ये विशेष अधिकार तब और भी स्पष्ट हो जाते हैं, जब मनु यह निश्चित करता है कि मनुष्य को अपने ऊपर विपत्ति पड़ने पर क्या करना चाहिए:
10.81. लेकिन यदि ब्राह्मण अपने इस व्यवसाय से जिसका अभी उल्लेख किया गया है, जीवन निर्वाह नहीं कर सके, तब क्षत्रिय के लिए निर्दिष्ट व्यवसाय को अपना कर जीवन निर्वाह करे क्योंकि वह पद के अनुसार उसके बाद आता है।
10. 82. यदि यह पूछा जाए, 'अगर वह इन दोनों व्यवसायों में से किसी भी एक व्यवसाय से अपना जीवन निर्वाह नहीं कर सके तब क्या किया जाए' उत्तर है, वह वैश्य की जीवन-पद्धति अपना ले, स्वयं खेती करे और पशु-पालन करे ।
10.83. परंतु जो ब्राह्मण और क्षत्रिय वैश्य की जीवन-पद्धति के अनुसार जीवन यापन करता है, उसे कृषि (व्यवसाय) कर्म करना चाहिए। कृषि के बारे में हमेशा सतर्क रहना चाहिए (जिसमें ) अनेक जीवों की हिंसा होती है और जो दूसरों, जैसे बैल आदि पर निर्भर करता है। अतः इससे यथासंभव बचना चाहिए और पशुपालन करना चाहिए।
10. 84. कुछ लोग कृषि (खेती) को उत्तम कार्य कहते हैं किंतु परोपकारी व्यक्ति जीविका के इस साधन को हेय कहते हैं (क्योंकि) लोहे के मुख (फार) लगा लकड़ी का उपकरण भूमि और उसमें रहने वाले जीवों को क्षति पहुंचाता है।
10.85. लेकिन जो व्यक्ति जीविका के उत्तम साधनों के अभाव में उचित व्यवसायों को नहीं अपना सकता, वह उन वस्तुओं की बिक्री कर धन अर्जित कर सकता है जो व्यापारी बेचते हैं, लेकिन इनमें निम्नलिखित वस्तुओं को शामिल न करे।
10.86. उन्हें सभी तरह का द्रव पदार्थ, पका अन्न, तिल के बीज, पत्थर, नमक- पशु और मनुष्य (दास - दासी) को बेचने का व्यापार नहीं करना चाहिए ।
10.87. उन्हें बुना हुआ लाल रंग में रंगा कपड़ा, सनई से बना कपड़ा और छाल, ऊन (चाहे वह लाल रंग की न हो), फल, कंद और औषधि में काम आने वाले पेड़ पौधे ( बेचने का व्यापार नहीं करना चाहिए ) ।
10.88. जल, लोहा, विष, मांस, सोम नाम की बेल, सभी तरह के इत्र, दूध, मधु, दही, घी, तिल का तेल, मोम, गुड़ और कुश का उन्हें व्यापार नहीं करना चाहिए।
10.89. सभी प्रकार के जंगली जंतु जैसे मृग आदि, भूख से व्याकुल जंगली जीव, पक्षी और मछली, मदिरा, नील, लाख और खुर वाले जानवर, इनका व्यापार नहीं करना चाहिए।
10.90. लेकिन ब्राह्मण किसान स्वेच्छापूर्वक तिल के बीज धार्मिक कृत्यों के लिए बेच सकता है जिसे यदि वह लाभ अर्जित करने की आशा से बहुत दिनों तक अपने पास न रखना चाहे और जिसे उसने स्वयं पैदा किया हो ।
10.91. यदि वह खाने, मलने और दान देने के अतिरिक्त तिलों का उपयोग किसी अन्य कार्य में करता है, तब वह अपने पितरों के सहित कीड़ा होकर कुत्ते की विष्ठा में गिरता है।
10.92. मांस, लाख या नमक बेचने से ब्राह्मण तत्काल पतित हो जाता है और लगातार तीन दिन दूध बेचने से वह शूद्र हो जाता है।
10.93. अन्य निषिद्ध वस्तुएं स्वेच्छापूर्वक बेचने से वह ब्राह्मण सात रात्रि में वैश्यत्व को प्राप्त होता है।
10.94. द्रव पदार्थ के बदले द्रव पदार्थ लेना-देना चाहिए, लेकिन नमक के बदले द्रव पदार्थ का लेन-देन नहीं करना चाहिए। पके अन्न के बदले पके अन्न, तिल के बदले धान का बराबर-बराबर लेन-देन करना चाहिए।
10.102. विपत्ति में पड़ने पर ब्राह्मण किसी भी व्यक्ति से दान ग्रहण कर सकता है क्योंकि कोई भी ऐसा धार्मिक नियम नहीं है जिसके आधार पर शुद्धता अशुद्ध घोषित की जा सके।
10.103. अनधिकारियों को वेदाध्ययन कराने यज्ञ कराने या उनसे दान लेने से जो सामान्यतः अनुमोदित नहीं है, विपत्ति में पड़े ब्राह्मणों को कोई दोष नहीं होता क्योंकि वे अग्नि और जल के समान पवित्र हैं।
इसकी तुलना उस व्यवस्था से कीजिए जो मनु ने अन्य वर्गों के लिए विपत्ति पड़ने पर निर्धारित की है। मनु कहता है:
10.96. नीच वर्ग का जो मनुष्य अपने से ऊंचे वर्ग के मनुष्य की वृत्ति को लोभवश ग्रहण कर जीविका यापन करे तो राजा उसकी सब संपत्ति छीनकर उसे तत्काल निष्कासित कर दे।
10.97. अपना धर्म, चाहे वह त्रुटिपूर्ण रीति से ही क्यों न पूरा किया जाए, दूसरे धर्म से श्रेष्ठ है जो चाहे कितनी ही पूर्ण रीति से क्यों न किया जाए क्योंकि जो व्यक्ति बिना किसी आवश्यकता के दूसरे वर्ण के धर्म का निर्वाह करता है, वह अपने धर्म से भी च्युत हो जाता है।
10.98. अपने धर्म (कार्यों) से जीवन निर्वाह न कर सकने वाला वैश्य यह विचार न कर कि क्या किया जाना चाहिए, शूद्र द्वारा करणीय धर्म ( कार्य ) कर सकता है, लेकिन जब वह समर्थ हो जाए तब उसे उस धर्म ( कार्य ) से निवृत्त हो जाना चाहिए।
10.99. द्विजों की सेवा करने की अभिलाषा वाले चतुर्थ वर्ग के व्यक्ति को यदि जीविका न मिले और उसकी पत्नी, पुत्र आदि भूख से पीड़ित हों, दस्तकारी से जीविका अर्जित करनी चाहिए।
10.121. यदि कोई शूद्र जीविका उपार्जन करना चाहता है और ब्राह्मण की सेवा नहीं कर सकता, तब वह क्षत्रिय की सेवा करे या यदि यह क्षत्रिय की अपने जन्म के कारण सेवा नहीं कर सकता, तब वह धनी वैश्य की सेवा कर अपनी जीविका का उपार्जन करे।
10.122. जो व्यक्ति ब्राह्मण की सेवा स्वर्ग प्राप्ति की कामना से या स्वयं अपनी जीविका, दोनों की अभिलाषा से करता है, तब उस ब्राह्मण का नाम उसके नाम के साथ जुड़ने से उसे निश्चित सफलता मिलती है।
10.123. ब्राह्मणों की सेवा करना ही शूद्रों का मुख्य कर्म कहा गया है, इसके अतिरिक्त वह शूद्र जो कुछ करता है, उसका कर्म निष्फल होता है।
10.124. ब्राह्मणों को चाहिए कि वे अपनी सेवा करने वाले शूद्र के लिए उसके काम करने की शक्ति, उत्साह और परिवार के निर्वाह के प्रमाण के अनुसार उसकी जीविका निश्चित करें।
10.125. जो कुछ पका धान्य बच जाए, वह उसे ( शूद्र को ) दिया जाए, जो वस्त्र उन्होंने पहन लिए हों, वे उसे दिए जाएं और उसे पुआल और खाट आदि दिया जाए।
10.126. लहसुन, प्याज आदि अन्य वर्जित सब्जी खाने से शूद्र को कोई पातक (दोष) नहीं होता, उसका यज्ञोपवीत संस्कार नहीं होना चाहिए, उसे धर्म - कार्य करने का अधिकार नहीं है, लेकिन अगर वह यज्ञ में पका हुआ अन्न धर्म-कार्य स्वरूप अर्पित करता है तो कोई निषेध नहीं है।
10.127. जो शूद्र अपने सारे कर्तव्य करने के इच्छुक हैं और यह जानते हुए कि उन्हें क्या करना चाहिए, अपने गृहस्थ जीवन में अच्छे मनुष्यों की तरह आचरण करते हैं और स्तुति व प्रार्थना के अतिरिक्त और कोई धार्मिक पाठ नहीं करते और पातक कर्म-रहित हैं, वे प्रशंसित होते हैं।
10. 128. दूसरों की निंदा न कर जो शूद्र द्विज के आचरण के अनुकूल आचरण करता है, वह इतना करने से ही अनिंदित हो, इस लोक में और अगले लोक में प्रशंसित होता है।
10.129. किसी भी शूद्र को संपत्ति का संग्रह नहीं करना चाहिए, चाहे वह इसके लिए कितना ही समर्थ क्यों न हो, क्योंकि जो शूद्र धन का संग्रह कर लेता है उसे उसका मद हो जाता है और वह अपने उद्धत या उपेक्षापूर्ण व्यवहार से ब्राह्मणों को कष्ट पहुंचाता है।