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ब्राह्मणवाद की विजय : राजहत्या अथवा प्रतिक्रांति का जन्म (भाग 16) - लेखक - डॉ. भीमराव आम्बेडकर

     जो इतिहास इस पहेली के समाधान की कुंजी प्रदान करता है, वह ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच वर्ग-युद्धों का इतिहास है।

     अधिकांश रूढ़िवादी हिंदू वर्ग- युद्ध के उस इतिहास का विरोध करते हैं, जिसका प्रतिपादन कार्ल मार्क्स ने किया था और अगर उनसे यह कहा जाए कि मार्क्स अपने सिद्धांत की पुष्टि करने के लिए जो अकाट्य साक्ष्य खोज रहा था, वह संभवत: उनके अपने पूर्वजों के इतिहास में ही मिल जाएं तो वे अवश्य भौंचक्के रह जाएंगे। निश्चय ही ब्राह्मणों और क्षत्रियों में अनेक वर्ग जुड़ गए और प्राचीन हिंदू साहित्य में उन्हीं का उल्लेख¹ किया गया है, जो अत्यंत महत्वपूर्ण थे। हमें ब्राह्मणों और राजाओं के बीच जो सभी क्षत्रिय थे, युद्धों के वृत्त उपलब्ध हैं। इनमें पहला युद्ध राजा वेण के साथ, दूसरा पुरुरवा के साथ, तीसरा नहुष के साथ, चौथा निमि के साथ और पांचवां सुमुख के साथ हुआ। हमें वशिष्ठ नामक ब्राह्मण और विश्वामित्र के बीच, जो साधारण क्षत्रिय थे राजा नहीं थे, हुए युद्ध का भी वर्णन मिलता है। हम कृतवीर्य के क्षत्रिय वंशजों द्वारा भृगु गोत्र के ब्राह्मणों का सामूहिक हत्या का वृत्तांत भी जानते हैं। इसके बाद हमें ब्राह्मणों के प्रतिनिधि के रूप में समस्त क्षत्रिय जाति का समूल नष्ट करने का वृत्तांत भी उपलब्ध है। ये युद्ध जिन विषयों को लेकर हुए, वे काफी व्यापक हैं। इनसे पता चलता है कि ब्राह्मणों और क्षत्रियों में परस्पर कितनी कटुता थी। ऐसे भी युद्धों का वर्णन मिलता है जो इसी बात को लेकर हुए कि क्या क्षत्रिय को ब्राह्मण बनने का अधिकार है। इस प्रश्न को लेकर भी युद्ध हुए कि ब्राह्मण सत्ता के अधीन है अथवा नहीं। इस प्रश्न को लेकर


1. यह सारा वृत्त प्रो. म्यूर ने अपनी पुस्तक ओरिजनल संस्कृत टैक्स्ट्स, खंड 1 में संग्रहीत किया है।


भी युद्ध हुए कि कौन किसका पहले अभिवादन करे और कौन किसके जाने के लिए रास्ता दे। ये युद्ध सत्ता, पद और प्रतिष्ठा के लिए लड़े गए युद्ध¹ थे।

brahmanvad ki Vijay Raja Hatya Athva Prati Kranti ka Janm - dr Bhimrao Ramji Ambedkar

     इन युद्धों का परिणाम औरों के लिए तो नहीं, बल्कि ब्राह्मणों के लिए तो बिल्कुल स्पष्ट था। उन्होंने बड़ी-बड़ी गर्वोक्तियां कीं, लेकिन इसके बावजूद उन्हें यह अनुभव हो गया था कि क्षत्रियों का दमन करना उनके लिए असंभव है और क्षत्रियों का समूल नष्ट करने के लिए किए गए युद्धों के बावजूद ब्राह्मणों को कष्ट देने के लिए वे काफी संख्या में अभी भी बच रहे हैं। हमें ब्राह्मणों द्वारा कही गई इस अश्लील कहानी पर ध्यान देने की कोई आवश्यकता नहीं और जिसे मनु के नाम से जोड़ दिया जाता है कि मनु के युग में क्षत्रियों की नई पीढ़ी उन लोगों की थी, जो परशुराम के द्वारा क्षत्रियों का संहार करने के बाद उनकी विधवाओं से ब्राह्मणों द्वारा पैदा हुए थे। किसी के चरित्र के बारे में मनगढ़त कहानियां बनाना और उन्हें डराकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना एक ऐसा साधन है जिसका उपयोग करने में ब्राह्मणों द्वारा पैदा हुए थे। किसी के चरित्र के बारे में मनगंढ़त कहानियां बनाना और उन्हें डराकर अपना स्वार्थ सिद्ध करना एक ऐसा साधन है जिसका उपयोग करने में ब्राह्मणों को कभी भी संकोच नहीं हुआ। क्षत्रियों के विरुद्ध ब्राह्मणों की लड़ाई शुरू से ही एक मूर्ख व्यक्ति और एक धौंस जमाने वाले व्यक्ति के बीच की लड़ाई रही। ब्राह्मण चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को स्थापित करने के लिए क्षत्रियों के विरुद्ध लड़ रहे थे लेकिन यही चातुर्वर्ण्य व्यवस्था है, जिसने क्षत्रियों के लिए अस्त्र-शस्त्र प्रदान किए और ब्राह्मणों के लिए इन्हें वर्जित रखा। इस सिद्धांत के अधीन ब्राह्मण सफलता की किस आशा में क्षत्रियों के विरुद्ध लड़ सकते थे? इस सच्चाई को पहचानने में ब्राह्मणों को अधिक समय नहीं लगना चाहिए था, जो टैलीरेंड ने नेपोलियन को बताई थी कि अस्त्र-शस्त्र देना तो सरल है, लेकिन उनको लेकर चुप बैठना बहुत ही कठिन है और यह कि चूंकि क्षत्रियों के पास अस्त्र-शस्त्र थे और ब्राह्मणों के पास नहीं थे, इसलिए क्षत्रियों के विरुद्ध युद्ध मौत के मुंह में जाना था। ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच इन युद्धों का प्रत्यक्ष परिणाम हुआ। लेकिन कुछ अन्य भी थे, जो ब्राह्मणों की दृष्टि से ओझल नहीं हो सके। जब ब्राह्मण और क्षत्रिय आपस में लड़ रहे थे, वैश्यों और शूद्रों पर रोकथाम रखने व उन्हें नियंत्रण में रखने वाला कोई नहीं बचा था। वे लोग सामाजिक समता की ओर बढ़ रहे थे और ब्राह्मणों और क्षत्रियों के स्तर को लगभग छू रहे थे। क्षत्रियों को परास्त करना ब्राह्मणों के लिए बहुत कठिन था और इस बात का खतरा बहुत ज्यादा था और वास्तविक भी था कि वैश्य और शूद्र उनसे आगे निकल जाएं। क्या ब्राह्मण क्षत्रियों के विरुद्ध लड़ाई जारी रखता और वैश्यों और शूद्रों के खतरे की उपेक्षा करता रहता? या क्या ब्राह्मण क्षत्रियों के विरुद्ध संघर्ष को, जिसमें सफलता मिलने की कोई आशा नहीं थी, छोड़ उनसे मैत्री करता और उनसे मिलकर वैश्यों और शूद्रों के बढ़ते हुए खतरे को खत्म करने के लिए मिला-जुला मोर्चा बनाता? क्षत्रियों के विरुद्ध


1. देखिए होपकिन्स की पुस्तक हिस्ट्री ऑफ दि रूलिंग रेसेज


युद्धों में जब ब्राह्मण थक गया, तब उसने दूसरा विकल्प चुना। उसने अपने पराक्रमी शत्रु क्षत्रियों के साथ नए आदर्श, अर्थात् अपने और क्षत्रियों के बाल वाले वर्णों और शूद्रों को गुलाम बनाने व उनका शोषण करने के लिए मैत्री करने का प्रयत्न किया। यह नया आदर्श उस समय तक स्वीकृत हो चुका था, जब शतपथ ब्राह्मण की रचना हो रही थी । शतपथ ब्राह्मण में हमें इसलिए आदर्श का वर्णन मिलता है और यह पूर्ण प्रतिष्ठित हो चुका था। यह आदर्श इतना प्रभावपूर्ण है कि मैं उसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत करना चाहता हूं। शतपथ 1 का लेखक लिखता है:

     “तब उन्होंने पशुओं को (आह्वानीय2 ) वापस भेज दिया, पहले बकरा जाता है, फिर गधा और अंत में घोड़ा। अब यहां (आह्वानीय) के पास से वापस आते समय घोड़ा पहले, तब गधा और फिर बकरा जाता है घोड़ा / क्षात्र ( सामन्त वर्ग) का प्रतीक है । गधा - वैश्य और शूद्र का, और बकरा - ब्राह्मण का प्रतीक है और चूंकि यहां से जाते समय घोड़ा पहले जाता है, इसलिए क्षत्रिय पहले जाता है, उसके बाद तीन अन्य जातियां, और चूंकि वहां से वापस आते समय, बकरा पहले आता है, इसलिए ब्राह्मण पहले आता है और उसके बाद तीन अन्य जातियां और चूंकि गधा पहले नहीं जाता, चाहे यहां से वापस जाते समय या वहां से वापस आते समय हो, इसलिए ब्राह्मण और क्षत्रिय कभी भी वैश्य और शूद्र के पीछे नहीं जाते। वे क्रम चलते हैं, जिससे अच्छे और बुरे में भ्रांति न हो। इस प्रकार वह उन दोनों जातियों (वैश्य और शूद्र) को पुरोहित और सामंत वर्ग से घेरे रखता है और उन्हें (अर्थात् दोनों जातियों को ) निरीह बनाए रखता है। "

     क्षत्रियों के प्रति मनु के विस्मयजनक दृष्टिकोण का यहां समाधान हो जाता है। वह क्षत्रियों को अधीन बनाना चाहता है, लेकिन उनके विरुद्ध खुलकर युद्ध करने से डरता है । वह उन पर शासन करना चाहता है, लेकिन मित्र बनाना ज्यादा अच्छा अनुभव करता है।

     इन युद्धों और संधियों ने मनु को यह शिक्षा दी कि ब्राह्मणों का आधिपत्य स्वीकार करने के लिए क्षत्रियों को बल से अधीन बनाने की कोशिश करने से कोई लाभ नहीं होगा। यही एक आदर्श हो सकता है, जिसे सामने रखना होगा। लेकिन व्यवहार की राजनीति में यह एक असंभव आदर्श था । बिस्मार्क की तरह मनु जानता था कि राजनीति ऐसा खेल है जिसमें सब कुछ संभव हो जाता है। संभव यही था कि ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच वैश्य और शूद्रों के विरुद्ध एक आम मुद्दा और एक आम मोर्चा बनाया जाए और यही मनु ने किया। यहां दुःख इस बात पर है कि यह धर्म के नाम पर किया गया लेकिन जिस किसी ने ब्राह्मणवाद को अच्छी तरह समझ लिया है, उसे इससे दुःखी होने की कोई बात नहीं । ब्राह्मणवाद के लिए धर्म एक आवरण है जिसकी आड़ में वे लोभ और स्वार्थ की राजनीति करते आए हैं।


1. इगलिंग, शतपथ ब्राह्मण, भाग 3 226-27
2. आहवानीय



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