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भाषावार प्रांतों के निर्माण से लाभ -  महाराष्ट्र : एक भाषावार प्रांत ( भाग 2 ) - लेखक - डॉ. भीमराव अम्बेडकर

भाषावार प्रांतों के निर्माण से लाभ

    5. यद्यपि इस बात में सच्चाई है कि भाषावार प्रांतों के पुनर्गठन के प्रस्ताव से ऐसी समस उठ खड़ी होगी, जो भारत की एकता जैसी मूलभूत बात को खोखला कर सकने की संभावना अपने में संजोए हुए है, फिर भी इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि भाषाओं के आधार पर प्रांतों के पुनर्गठन के अपने कुछ निश्चित राजनीतिक लाभ भी हैं।

     6. भाषावार प्रांतों की योजना का जो मुख्य लाभ मुझे सबसे अधिक प्रभावित करता है, वह यह है कि मिश्रित भाषायी प्रांतों की तुलना में भाषावार प्रांतों में लोकतंत्र अधिक कारगर सिद्ध होगा। भाषावार प्रांत लोकतंत्र की प्रधान आवश्यकता तथा सामाजिक समरूपता की पूर्ति करता है। किसी समाज की समरूपता जिन बातों पर आश्रित होती है, वे हैं : लोगों का इस बात में विश्वास कि उन सबका उद्भव एक ही मूल से हुआ है, उन सबकी भाषा और साहित्य एक हो, वे सब एक ही ऐतिहासिक परंपरा पर गर्व करते हों, उन सबके सामाजिक रीति-रिवाज मिले-जुले हों, आदि-आदि। समरूपता संबंधी इन तर्कों के बारे में समाजशास्त्र के अध्येताओं में किसी प्रकार का विवाद या मतभेद नहीं है। यदि किसी राज्य में सामाजिक समरूपता का अभाव हो तो ऐसी स्थिति खतरनाक होगी, विशेषकर तब, जब वह राज्य लोकतांत्रिक ढांचे पर बना हो । इतिहास हमें यह बताता है कि जिस राज्य की जनता में समरूपता नहीं मिलती, वहां लोकतंत्र असफल हो जाता है। ऐसे विषम समाज में, जो वर्गों में बंटा हो और जिसके सभी वर्ग एक-दूसरे के प्रति आक्रामक और गैर- सामाजिक रुख रखते हों उस समाज में लोकतंत्र सफल नहीं हो सकता। उलटे, उसमें भेदभाव, अवहेलना और अनुचित पक्षपात पनपेगा तथा जिस वर्ग के हाथ में राजनीतिक सत्ता होगी, वह दूसरे वर्ग के हितों को दबाने की चेष्टा करेगा। किसी भी विषम समाज में लोकतंत्र की असफलता का मुख्य कारण यही है कि सत्ता का उपयोग पक्षपात रहित तथा गुणावगुण को ध्यान में रखते हुए 'सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय' न होकर किसी वर्ग विशेष की ऐश्वर्य या शक्ति वृद्धि हेतु और अन्य वर्ग या वर्गों को क्षति पहुंचाने के लिए किया जाता है। इसके विपरीत, जिस राज्य की जनता में जितनी अधिक समरूपता होगी, वह राज्य लोकतंत्र के वास्तविक उद्देश्यों की प्राप्ति में उतना ही अधिक तल्लीन रहेगा, क्योंकि उस राज्य में राजनीतिक सत्ता के दुरुपयोग को बढ़ावा देने वाले कृत्रिम अवरोध या सामाजिक वैमनस्य पैदा करने वाले तत्व उपस्थित नहीं होंगे।

Maharashtra as a Linguistic Province - Dr Bhimrao Ambedkar

     7. सार यह है कि लोकतंत्र की समुचित क्रियाशीलता के लिए यह आवश्यक है कि उस राज्य की समस्त जनता का वितरण इस प्रकार का हो कि वह एक ठोस समरूपी इकाई लगे। भारत के सभी प्रांतों का जो पुनर्गठन प्रस्तावित है, उसके मूल में इसी तरह के लोकतंत्रात्मक शासन की भावना निहित है। संक्षेप में, किसी भी प्रांत के लोकतंत्र की सफलता के लिए उसकी जनता का समरूपी होना अनिवार्य है। दूसरे शब्दों में, लोकतांत्रिक सांचे में ठीक प्रकार से सामने के लिए हर प्रांत को एक भाषायी इकाई होना चाहिए । भाषावार प्रांतों के निर्माण का औचित्य यही जान पड़ता है।

क्या भाषावार प्रांतों का निर्माण स्थगित किया जा सकता है ?

    8. क्या इस समस्या के समाधान को टाला जा सकता है? इस प्रसंग में मैं आयोग के समक्ष विचारार्थ कुछ बातें रखना चाहूंगा :

    (क) भाषावार प्रांतों की मांग नई नहीं है। इस समय के छह प्रांत भाषावार प्रांत ही हैं, ये हैं : (1) पूर्वी पंजाब, (2) संयुक्त प्रांत, ( 3 ) बिहार, (4) पश्चिमी बंगाल, (5) असम, और (6) उड़ीसा । भाषायी आधार पर पुनर्गठन की के गठन का सिद्धांत की सुगबुगाहट जिन प्रांतों में सुनाई पड़ रही है, वे हैं (1) बंबई (2) मद्रास, और (3) मध्य भारत। जब छह प्रांतों के बारे में भाषा के आधार पर प्रांतों के गठन का सिद्धांत मान लिया गया है तो फिर जो अन्य प्रांत इसी सिद्धांत को उन पर भी लागू करने की मांग कर रहे हैं, उनकी इस मांग को अनंतकाल के लिए टाला तो नहीं जा सकता।

    (ख) इन गैर - भाषावार प्रांतों की स्थिति इस समय खतरनाक नहीं तो कम से कम उत्तेजनापूर्ण तो कही ही जा सकती है। यह स्थिति ठीक वैसी ही हो गई हैं, जैसी कभी प्राचीन तुर्की साम्राज्य या प्राचीन ऑस्ट्रो-हंगेरियाई साम्राज्य की थी ।

    (ग) भाषावार प्रांतों के निर्माण की मांग यहां भी ठीक उसी पलीते जैसी विस्फोटक हो गई है, जिसने प्राचीन तुर्की साम्राज्य या ऑस्ट्रो हंगेरियाई साम्राज्य को जलाकर राख कर दिया था। इस आग को और अधिक भड़कने से बचाना होगा, नहीं तो सर्वनाश को रोक पाना कठिन हो जाएगा।

     (घ) जब तक प्रांतों का ढांचा लोकतंत्रात्मक नहीं था और जब तक नए संविधान के तहत उन्हें व्यापक प्रभुत्व संपन्न अधिकार नहीं मिले हुए थे, तब तक तो भाषावार प्रांतों के पुनर्गठन की अत्यावश्यकता महसूस नहीं की जा रही थी । किन्तु नए संविधान के बन जाने पर अब इस समस्या का अविलंब समाधान ढूंढना अनिवार्य हो गया है।

कठिनाइयों का हल

     9. यदि समस्या का निपटारा शीघ्र ही किया जाना है तो इसका हल क्या है? जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, यह हल दो शर्तों को पूरा करने वाला होना चाहिए। भाषावार प्रांतों के पुनर्गठन के सिद्धांत को स्वीकार कर लेने के बाद भी ऐसी व्यवस्था करनी होगी, ताकि भारत की एकता खंडित न होने पाए। इसलिए इस समस्या के समाधान हेतु मेरा सुझाव है कि भाषा के आधार पर प्रांतों के पुनर्गठन की मांग को स्वीकार कर लेने पर भी ऐसी संवैधानिक व्यवस्था हो कि केंद्र सरकार की जो राजभाषा हो, वहीं भाषा सभी प्रांतों की भी राजभाषा मानी जाए। केवल इसी आधार पर मैं भाषावार प्रांतों की मांग को मानने के लिए तत्पर हूं।

     10. मैं इस तथ्य को जानता और मानता हूं कि मेरा यह सुझाव भाषावार प्रांतों की प्रचलित अवधारणा के प्रतिकूल जाता है। आज की मान्य अवधारणा यह है कि प्रांतीय भाषा ही उस प्रांत की राजभाषा होगी। मैं भाषावार प्रांतों के निर्माण के खिलाफ नहीं हूं। किन्तु मुझे इस बात से कड़ी आपत्ति है कि केंद्र की राजभाषा से भिन्न होने के बावजूद भी प्रांतीय भाषा को वहां की राजभाषा बनाया जाए। मेरी यह आपत्ति निम्नलिखित कारणों से है :

    (क) भाषावार प्रांत बनाए जाएं, इस विचार का संबंध कतई इस बात से नहीं है कि उस प्रांत की राजभाषा क्या हो। मेरे मतानुसार भाषावार प्रांत से तात्पर्य एक ऐसे प्रांत से है, जिसकी जनता अपनी सामाजिक संरचना में समरूपी हो। ऐसा होने पर उसकी लोकतंत्रात्मक सरकार को जिन सामाजिक लक्ष्यों की प्राप्ति करनी चाहिए, उनके लिए वह अधिक उपयुक्त होगी। मेरे विचार से, भाषावार प्रांत का उस प्रांत की भाषा से कोई लेना-देना नहीं है। भाषावार प्रांतों की योजना में वहां की भाषा की भूमिका अनिवार्यतः महत्वपूर्ण है। किन्तु यह भूमिका प्रांत के निर्माण तक ही सीमित रखी जा सकती है, अर्थात् इसका उपयोग उस प्रांत की सीमाओं के रेखांकन तक ही किया जाना चाहिए। भाषावार प्रांतों की योजना में ऐसी कोई दो-टूक अनिवार्यता नहीं है, जो हमारे लिए उस प्रांतीय भाषा को वहां की राजभाषा भी बनाने के लिए बाध्यकारी हो। उस प्रांत की सांस्कृतिक एकता बनाए रखने के लिए न ही यह जरूरी है कि उस प्रांत की भाषा को ही वहां की राजभाषा बनाया जाए। ऐसा मानना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि प्रांत की सांस्कृतिक एकता तो पहले से ही विद्यमान है और उस एकता को अन्य भाषेतर कारकों, जैसे समान ऐतिहासिक परंपरा, सामाजिक रीति-रिवाजों में समानता आदि से भी बनाए रखा जा सकता है। पहले से विद्यमान प्रांत की सांस्कृतिक एकता को स्थिर रखने के लिए यह आवश्यक नहीं जान पड़ता कि प्रांतीय भाषा को सरकारी प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त किया ही जाए। प्रांतीयता के हिमायतियों के सौभाग्य से इस बात का डर नहीं है कि यदि कोई महाराष्ट्रीय अन्य भाषा भी बोलता है तो वह महाराष्ट्रीय नहीं रहेगा। इसी तरह यदि कोई तमिल या कोई आंध्रवासी या कोई बंगाली अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा का भी प्रयोग करता है तो इस बात का डर नहीं है कि वह तमिल, आंध्रवासी या बंगाली नहीं माना जाएगा।

    (ख) भाषावार प्रांतों के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने वाले हिमायती भी निश्चय ही यह कहकर आपत्ति प्रकट करेंगे कि वे भी नहीं चाहते कि प्रांतों को अलग- अलग राष्ट्रों के रूप में बदल दिया जाए। उनकी नेकनीयती पर अविश्वास नहीं किया जाना चाहिए। फिर भी, यह तो मानना ही पड़ेगा कि कभी-कभी हालात इतने बिगड़ जाते हैं, जिनकी पूर्वकल्पना उनके प्रणेताओं ने भी न की होगी । इसलिए यह परमावश्यक जान पड़ता है कि शुरू से ही कदम फूंक-फूंककर ही उठाए जाएं, ताकि आगे चलकर बुरे दिन देखने की नौबत ही न आने पाए। इसलिए इस बात में किसी तरह की बुराई नजर नहीं आती कि यदि रस्सी को एक ओर ढील देनी हो तो दूसरी ओर कसकर बांध लेना चाहिए।

    (ग) हमें प्रांतीय भाषा को वहां की राजभाषा नहीं बनने देना चाहिए, चाहे यह सहज लगता हो कि प्रांतीय भाषा उस प्रांत की राजभाषा होनी चाहिए। भाषावार प्रांतों के निर्माण में कुछ भी खतरा नहीं है। खतरा है तो केवल तब, जब भाषावार प्रांत बनाए जाएं और साथ-साथ प्रत्येक प्रांतीय भाषा को भी वहां की राजभाषा बना दिया जाए। प्रांतीय भाषाओं को राजभाषाएं बना देने से प्रांतीय राष्ट्रिकताओं के विकास का रास्ता साफ हो जाएगा, क्योंकि प्रांतीय भाषाओं के राजभाषाएं बन जाने का परिणाम यह होगा कि प्रांतीय संस्कृतियां अलग-थलग पड़ जाएंगी, तब उनका स्वरूप अलग से झलकने लगेगा और ऐसा होने पर उनमें कठोरता और ठोस हो जाएगी। ऐसा होने देना विनाशकारी होगा। इसका तात्पर्य प्रांतों को स्वतंत्र राष्ट्रों के रूप में विकसित होने देने का न्यौता देना होगा- हर मामले में स्वतंत्र या अलग-अलग। और इस प्रकार एकीकृत भारत के सर्वनाश का रास्ता खुल जाएगा। भाषावार प्रांतों के निर्माण के बावजूद वहां की भाषाओं को राजभाषाओं का दर्जा न दिए जाने पर प्रांतीय संस्कृतियां प्रवाहित रहेंगी और सभी के बीच आदान-प्रदान की धाराएं बहती रहेंगी। इसलिए हर हालत में हमें प्रांतीय भाषाओं को भाषावार प्रांतों की राजभाषाएं नहीं बनने देना है।

    11. किसी अखिल भारतीय राजभाषा को, जो हो सकता है कि उस प्रांत की भाषा से भिन्न हो, किसी भाषावार प्रांत पर थोपने की बात उस प्रांत की संस्कृति को बनाए रखने के आड़े नहीं आएगी। राजभाषा का प्रयोग तो सरकारी प्रयोजनों के लिए ही होगा । इससे इतर जितने भी अन्य गैर-सरकारी क्षेत्र हैं और जिन्हें पूरी तरह सांस्कृतिक क्षेत्र माना जा सकता है, उनमें प्रांतीय भाषाओं को अपनी भूमिका निभाने का अवसर मिलता रहेगा। इस तरह सरकारी भाषा और गैर-सरकारी भाषाओं के बीच स्वस्थ प्रतियोगिता चलती रहेगी। हो सकता है कि दोनों में से एक भाषा दूसरी भाषा को अपदस्थ करने का प्रयास करे। यदि सरकारी भाषा गैर-सरकारी भाषा को सांस्कृतिक क्षेत्र से बाहर करने में सफल हो जाती है तो इससे बढ़कर और क्या बात होगी। यदि वह सफल नहीं भी होती है तो कोई बड़ा नुकसान नहीं होगा। ऐसी स्थिति को असहनीय भी नहीं माना जा सकता। कम से कम वर्तमान स्थिति की तुलना में तो वह अधिक असहनीय नहीं ही होगी, क्योंकि आज की स्थिति ऐसी है, जिसमें अंग्रेजी सरकारी भाषा है और प्रांतीय भाषाएं गैर-सरकारी भाषाएं। बस इतना भर अंतर होगा कि तब अंग्रेजी राजभाषा नहीं होगी, कोई अन्य भाषा उसका स्थान ले लेगी।

संतोषप्रद हल की आवश्यकताएं

12. मैं यह जानता हूं कि मैं जो हल सुझा रहा हूं, वह कोई आदर्श हल नहीं है। पर इस हल से प्रांतों में संवैधानिक कार्य लोकतंत्रात्मक पद्धति पर चलना संभव हो सकेगा । किन्तु इससे केंद्र के स्तर पर ऐसा संभव नहीं होगा। इसका कारण यह है कि केवल भाषायी एकता, अर्थात् एक ही भाषा बोलने की सुविधा से समरूपता सुनिश्चित नहीं हो जाती, क्योंकि समरूपता तो अन्य अनेक कारकों का परिणाम होती है। ऊपर कहा ही जा चुका है कि केंद्रीय सभा के लिए जो प्रतिनिधि इन प्रांतों से चुने जाएंगे, उनकी पहचान पूर्ववत् ही रहेगी, अर्थात् वे बंगाली, तमिल, आंध्रवासी, महाराष्ट्रीय आदि ही रहेंगे, फिर चाहे वहां वे अपनी मातृभाषा के स्थान पर राजभाषा का ही प्रयोग क्यों न करने लगे हों । तुरंत लागू किया जा सकने वाला आदर्श हल इस समय मुझे नहीं सूझ रहा है। इसलिए हमें अगले संभावित सर्वोत्तम हल से ही संतोष करना होगा। हां, ऐसा करते समय हमें यह जरूर देख लेना चाहिए कि हम जिस तात्कालिक हल को अपनाने जा रहे हैं, वह दो कसौटियों पर खरा उतरने वाला अवश्य हो

(क) वह हल दूसरा सर्वोत्तम विकल्प हो, तथा

(ख) उस हल में आदर्श हल की ओर विकसित होने की क्षमता ।

उपर्युक्त विचारों के परिप्रेक्ष्य में देखें तो मैं यह कहने का साहस कर सकता हूं कि मैंने जो हल सुझाया है वह उपर्युक्त दोनों शर्तों को पूरा करता है।



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