तात्यासाहेब महात्मा फुले का पंच पकवान भोजन अथवा संघ-भाजपा की हागणदरी का भोजन ?

ओबीसी और भाजपा : एक अटूट संबंध ( भाग 3 ) - लेखक : प्रोफे. श्रावण देवरे

     OBC या S.E.B.C. ये कुछ समानार्थी शब्द हैं जिनका नामकरण डा. बाबा साहेब अंबेडकरजी ने किया है। उसके पहले इन जातियों अथवा समाज घटकों के लिए अलग-अलग समय में अलग-अलग संबोधन होते थे। तात्यासाहेब महात्मा  जोतीराव फुले के समय में आज के ओबीसी  सत्य शोधक के रूप में जाने गए। छत्रपती शिवाजी महाराज के काल में मावळे व वारकरी, महामानव बुद्ध के काल में पुग (उत्पादक) व श्रेणी (श्रेष्ठी) और उससे भी पहले सिंधु संस्कृति के काल में उन्हें  सिंधुजन के नाम से जाना गया। इन सभी समाज घटकों में सिर्फ आज के ओबीसी थे ऐसा नहीं था बल्कि अन्य लोग भी थे। किंतु जिसे हम आज का ओबीसी कहते हैं वह बड़ी संख्या में इन समाज घटकों में होने के कारण उसकी पहचान ईन नामों से की जा सकती है।

OBC and BJP an unbreakable bond

     और एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इस ओबीसी समाज घटक ने अपना 'ब्राह्मण विरोधी, 'जाति व्यवस्था विरोधी' गुणधर्म प्रत्येक काल में टिका कर रखा है। यह मुद्दा यहां विस्तार से रखने की ये जगह नहीं है। जिन्हें यह मुद्दा विस्तार से समझना हो वे फुले - अंबेडकर जयंती के उपलक्ष में हुए दौरे में मेरा राजुरा (जि. चन्द्रपुर) का दि. 13 अप्रैल 2023 को दिया गया व्याख्यान सुनें। फोन करिए लिंक भेजता हूं।

     आज के ओबीसी समाज घटक ने प्रत्येक काल में ब्राह्मणवाद विरोधी क्रांति में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, उसका यह गुणधर्म देखते हुए प्रतिक्रांति करने के लिए ब्राह्मणों को मजबूरी में ओबीसी का ही सहारा लेना पड़ता है, ऐसा भी इतिहास कहता है। क्रांति करने के लिए ओबीसी ही आगे आता है और प्रतिक्रांति के लिए भी ओबीसी का ही मुखौटा ब्राह्मणों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है।

     सिंधु संस्कृति के काल में बलीराजा के नेतृत्व में आर्य ब्राह्मणों के विरोध में लड़ी गई मैदानी लड़ाई लड़ने वाला तत्कालीन ओबीसी बड़ी संख्या में था। बौद्ध काल में महामानव बुद्ध के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने वाले उपाली (नाई) जैसे असंख्य ओबीसी थे। उत्पादक 'पुग' व व्यापारी 'श्रेणी'  इस समाज घटक में बढ़ई, लुहार, सुतार ये व्यवसाय  करने वाले ही अधिक थे और उन्होंने ही बौद्ध क्रांति का आर्थिक पक्ष मजबूत किया था। ब्राह्मण विरोधी वारकरी पंथ में नामदेव से लेकर गाडगे महाराज की परंपरा में सावता, जगनाडे, तुकाराम सभी ओबीसी संत ही अधिक दिखाई देते हैं। मुस्लिम राजकीय सत्ता व ब्राह्मणी सामाजिक - सांस्कृतिक सत्ता के विरुद्ध छत्रपति शिवाजी महाराज से लेकर जीवाजी महाले तक लड़ने वाले बड़े पैमाने पर ओबीसी ही थे। आधुनिक काल में ब्राह्मणवाद विरोधी सबसे बड़ी जंग सत्य शोधक आंदोलन था और उसमें लड़ने वाले अधिकतर ओबीसी ही थे। ओबीसी के अंदर ब्राह्मण विरोधी सामाजिक - सांस्कृतिक प्रखरता देखकर  ब्राह्मणों को प्रतिक्रांति करने के लिए केवल दांव-पेंच के लिए ओबीसी का मुखौटा प्रतिनिधिक रूप में इस्तेमाल करना पड़ा है । बौद्ध राजा महानंद के विरोध में प्रतिक्रांति के लिए ब्राह्मण चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य नाम का ओबीसी मुखौटा इस्तेमाल किया। आज 2014 में हुई ब्राह्मणी प्रतिक्रांति में कल्याण सिंह,उमा भारती, मुंडे - भुजबल, नरेंद्र मोदी आदि ओबीसी मुखौटे संघ- भाजपा को इस्तेमाल करना पड़ा है।

     1980 तक संघ-भाजपा को ओबीसी - बहुजन नेताओं की जरूरत नहीं महसूस होती थी, क्योंकि ब्राह्मणवाद विरोधी शक्तियों को नियंत्रित व शक्तिहीन करने का काम कांग्रेस सफलतापूर्वक कर रही थी। 1977 का आपातकाल उठने तक संघ - जनसंघ खुलकर कांग्रेस के साथ गंभीरतापूर्वक खड़ा था। फिर ऐसा क्या घटित हुआ कि संघ - जनसंघ को 1980 में अपना नाम, स्वरूप, सिद्धांत व दांव-पेंच सब बदलना पड़ा?

     भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद से सत्ताधारी कांग्रेस ने 1947 से ही ओबीसी विरोधी षड्यंत्र करना शुरू कर दिया था। पहले नेहरू मंत्रिमंडल का पहला निर्णय था ‘जाति आधारित जनगणना बंद करने का!’ जिसके कारण ओबीसी जाति जनगणना अपने आप बंद हो गई।

     1953 में ओबीसी के हित का कालेलकर आयोग कपड़े में लपेटकर हमेशा के लिए गाड़ दिया गया। परंतु फिर भी इस पर मात करते हुए क्रांतिकारी ओबीसी नेताओं ने 1967 में तमिलनाडु में ब्राह्मणवाद को हमेशा के लिए गाड़ दिया। 1967 में एक ही समय में तमिलनाडु, बिहार व उत्तर प्रदेश जैसे बड़े व महत्वपूर्ण राज्यों में अपने खुद के बल पर ओबीसी मुख्यमंत्री हुए। फलस्वरूप कमजोर हुई कांग्रेस में फूट पड़ गई।

     राज्यस्तर पर दबाकर रखे गए चौधरी चरणसिंह, देवराज अर्स, कामराज जैसे ओबीसी - बहुजन नेता कांग्रेस फोड़कर बाहर आ गए और उन्होंने स्वतंत्र रूप से अपनी अपनी पार्टी स्थापित की। इन सभी राज्य स्तर की ओबीसी - बहुजन पार्टियों ने एकत्र आकर राष्ट्रस्तर पर जनता पार्टी की स्थापना की और 1977 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को जमींदोज किया। परंतु, इस जनता पार्टी पर जयप्रकाश नारायण इस ब्राह्मण समाजवादी की एकतर्फी हुकूमत होने के कारण उन्होंने जनता पार्टी में ब्राह्मणवादी संघ - जनसंघ के लिए बड़ा स्पेस निर्माण करके दिया।

     लोकसभा में 1957 में जनसंघ के सिर्फ चार सांसद चुनकर आए थे, साढ़े तीन पर्सेंट लोकसंख्या वाले ब्राह्मण - बनिया के जनसंघ के 1977 के चुनाव में सर्वाधिक 75 सांसद चुनकर आए थे यह चमत्कार केवल जयप्रकाश नारायण द्वारा जनसंघ को ज्यादा महत्व देने के कारण संभव हुआ। जिसके कारण मंडल आयोग की रिपोर्ट लोकसभा में प्रस्तुत करने के पहले ही जनता पार्टी की सरकार गिराने में ब्राह्म्णवादियों को सफलता मिल गई। ओबीसी की क्रांतिकारी शक्ति को दबाने के लिए ब्राह्मण वादियों को अनेक बार केंद्र व राज्य सरकारें गिरानी पड़ीं। परंतु फिर भी लालूजी, मुलायम जी, करुणानिधि जी, कर्पूरी ठाकुर जी व देवराज अर्स जैसे ओबीसी नेता "राष्ट्रीय नेता" बनने के कारण उनकी तरफ से ब्राह्मणवादियो को खतरा था ही।
ब्राह्मणों के हितसंबंध की ओबीसी से रक्षण करने के लिए कमजोर कांग्रेस के भरोसे नहीं रहा जा सकता इसकी जानकारी संघ - जनसंघ को 1980 में हुई, और उन्होंने अपनी नीतियां बदल लीं।

     सर्वप्रथम उन्होंने अपनी पार्टी का नाम बदला, ‘ब्राह्मण बनिया की पार्टी’ की छवि की मोहर लगी जनसंघ का नाम बदलकर ' भारतीय जनता पार्टी ' यह व्यापक नाम धारण किया। कट्टर हिंदुत्व को 'गांधीवादी समाजवाद ' का मुलम्मा चढ़ाया। परंतु केवल नाम व ईजम व्यापक होना ही पर्याप्त नहीं होता, जमीन पर पार्टी भी व्यापक होनी चाहिए, इसलिए उन्हें ओबीसी नेता निर्माण करने की जरूरत महसूस होने लगी। ओबीसी नेता ही क्यों चाहिए? क्योंकि जनता के आंदोलन से मजबूत होकर आगे आए हुए कर्पूरी ठाकुर, करुणानिधि,  लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, देवराज अर्स जैसे दिग्गज व राष्ट्रीय ओबीसी नेताओं को रोकना आसान नहीं था। ये सभी ओबीसी नेता जनांदोलन से अर्थात 'नीचे से ऊपर' इस प्रक्रिया से तैयार हुए थे।

     'नीचे से ऊपर' इस प्रक्रिया से नेता तैयार करने का काम संघ-भाजपा कर ही नहीं सकती क्योंकि ब्राह्मणों के यहां जनांदोलन की परंपरा ही नहीं है! सतत षड्यंत्र, तोड़-फोड़, दंगा-फसाद, टूट-फूट, खून-डकैती, झूठ फैलाना, भाकड़-कथा, कानाफूसी, जैसे अनैतिक काम करके ही वे अपना ब्राह्मणी वर्चस्व टिकाते आए हैं। इसलिए उन्हें भाजपा में ओबीसी नेता का निर्माण ऊपर से नीचे इस प्रक्रिया के अनुसार करना पड़ा, ब्राह्मणी मीडिया की मदद से उन्होंने देशभर में अनेक ओबीसी नेताओं का निर्माण किया और उन्हें उनकी जातियों पर लाद दिया।

     भाजपा के इन ओबीसी नेताओं में गोपीनाथ मुंडे ये अकेले विद्रोही निकले, उन्होंने ओबीसी जनगणना के लिए संघ-भाजपा के ब्राह्मणवाद को लात मारते हुए संसद में घंटे भर धुंआधार भाषण किया उन्हें रोकने के लिए अंततः संघ-भाजपा को उनकी हत्या करानी पड़ी।

     दूसरे विद्रोही नेता छगन भुजबल! इन्होंने ब्राह्मणी शिवसेना को लात मारते हुए कांग्रेस - राष्ट्र वादी कांग्रेस को साथ लिया। 2010-11 में ओबीसी जनगणना के लिए भुजबल ने देशभर में आवाज उठाई। परंतु मराठा - ब्राह्मण गठजोड़ ने उन्हें जेल में डालकर रोका और सीधे संघ-भाजपा की हागणदरी  पर ले आए।

     वास्तव में देखा जाय तो भुजबल के सामने लालू प्रसाद यादव का बड़ा आदर्श था।

     कालेलकर, मंडल आयोग के लिए लालू जी जीवन भर संघर्ष करते रहे है। लालकृष्ण आडवाणी को जेल में डालकर रामरथ यात्रा के कमंडल का षड्यंत्र ध्वस्त करने का प्रयत्न किया। ओबीसी की पार्टी स्थापित करके बिहार में कांग्रेस - भाजपा को रसातल में पहुंचाया। लालू यादव को रोकने के लिए कांग्रेस - संघ-भाजपा ने उन्हें अनेक बार जेल में डाला किंतु वे डगमगाए नहीं। जेल में उनका शरीर जर्जर किया गया। फलस्वरूप आज वे मरणासन्न होकर भी संघ-भाजपा के सामने झुके नहीं। आज भी लालू प्रसाद यादव स्वाभिमान से एक योद्धा की तरह संघ-भाजपा से लड़ रहे हैं।

     लालू जी जैसा बड़ा आदर्श ओबीसी आंदोलन से जुड़े होने के बावजूद भुजबल का संघ-भाजपा के चरणों में गिरकर स्वाभिमान गिरवी रखना यह बात केवल ओबीसी के लिए नहीं बल्कि संपूर्ण देश के लिए शर्मनाक है। तात्यासाहेब महात्मा फुले ने पंच पकवान भोजन दिया हुआ है, उसे छोड़कर संघ-भाजपा की हागणदरी पर जाकर भोजन करना भुजबल साहबका यह कृत्य निश्चित रूप से इतिहास में काले अक्षरों में लिखा जाएगा। इसमें कोई संदेह नहीं है।

प्रोफे. श्रावण देवरे, मोबाईल- 94 227 88 546, Email- s.deore2012@gmail.com

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