पिछड़ी जातियां क्यों कर रही हैं जातीय जनगणना की मांग ?

     दस अप्रैल, 2008 को अपने फैसले में उच्चतम न्यायालय ने उच्च शिक्षण संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण को वैध ठहराया लेकिन संपन्न लोगों यानी क्रीमी लेयर को इस दायरे से बाहर रखा अर्थात सवर्ण वर्ग, जो अक्सर कहता है कि आरक्षण का लाभ पिछड़ी जातियों के संपन्न लोग ले रहे हैं, को मालूम होना चाहिए कि ओबीसी के लिए जो आरक्षण मिल रहा है, वह सामाजिक, शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग को मिलता है, जो आर्थिक रूप से भी संपन्न न हो । गौरतलब है कि ढेरों आंदोलन के बाद 1993 में ओबीसी के लिए सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण और 2008 में उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का प्रावधान किया गया ।

Other Backward Class demanding caste census     मंडल आयोग की सिर्फ दो सिफारिशों पर अमल किया गया । बाकी की सिफारिशें अभी भी धूल खा रही हैं, या कुछ राज्यों ने अपनी तरफ से आंशिक रूप से उन पर अमल किया है । आरक्षण का कुल मकसद यह रहा है कि जिन जातियों, समुदायों, कार्यसमूहों को सदियों से उसके जातीय खांचे में बांधकर उनके काम आरक्षित कर दिए गए, उन्हें भी सामान्य नागरिक के रूप में जीने, प्रशासन में उचित हिस्सेदारी, शिक्षा में उचित हिस्सेदारी मिल सके । मंडल कमीशन की सिफारिश लागू हुए 28 साल पूरे होने वाले हैं, लेकिन इस दौरान पिछड़ा वर्ग अपनी मेहनत एवं कौशल से सफलता की ओर निरंतर अग्रसर है । अब चाहे सिविल सेवा का एक्जाम हो या मेडिकल अथवा इंजीनियरिंग का, हर एक्जाम में टॉपर के तौर पर ओबीसी के छात्र कीर्तिमान रच रहे हैं । सवाल उठता है कि वर्तमान में पिछड़ी जातियां एवं पिछड़ों की राजनीति करने वाली पार्टियां जातीय जनगणना कराने की मांग पर क्यों अड़ी हैं ?

     बदलते समय के साथ ही पिछड़ी जातियां अपने अधिकारों को लेकर काफी जागरुक होती जा रही हैं । इस समाज से आने वाले प्रबद्ध वर्ग एवं सामाजिक संगठन अपने नेताओं पर दबाव डाल रहे हैं । तीन साल पहले आई पुस्तक 'मंडल कमीशन, राष्ट्र निर्माण की सबसे बड़ी पहल' के अनुसार 1993 से ओबीसी आरक्षण लागू है, लेकिन केंद्रीय मंत्रालयों में महज 5.40 प्रतिशत ओबीसी अधिकारी हैं । आंकड़े चीख-चीखकर कह रहे हैं कि संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद ओबीसी तबका उन पदों पर नहीं पहुंचा पाया जहां से नीति नियंत्रण होता है, या बौद्धिक कसरत होती है।

     पुस्तक के अनुसार, ओबीसी आरक्षण लागू होने के बाद तो सरकारी नौकरियों व विद्यालयों का खात्मा ही शुरू कर दिया गया । 1992-93 में जब भारत की आबादी 83.9 करोड़ थी तो सरकारी नौकरियों की संख्या 1.95 करोड़ थी यानी हर 43 आदमी में से एक व्यक्ति सरकारी नौकरी करता था । सरकारों ने इसे बढ़ाने की बजाय घटा दिया । 2017 में भारत की आबादी करीब 130 करोड़ है, जबकि सरकारी नौकरियों की संख्या घटकर 1.76 करोड़ रह गई है यानी इस समय 74 व्यक्ति में से एक आदमी सरकारी नौकरी पर निर्भर है ।

     हाल के दिनों में केंद्र सरकार ने लैट्रल एंट्री के जरिए संयुक्त सचिव की नियुक्ति शुरू की है । इस पहल को लेकर पिछड़ा वर्ग एवं दलित समाज आरक्षण को लेकर सशंकित हैं । उच्च शिक्षण संस्थानों में नियुक्ति का मामला हो या विश्वविद्यालयों में एडहॉक पर होने वाली भर्तियां हों । इनमें नियुक्ति के बावजूद ओबीसी लेक्चरर को महीने में काफी कम क्लास मिलती हैं । पिछले साल सिविल सर्विस एक्जाम के रिजल्ट में ओबीसी के सफल अभ्यर्थियों ने गरीब सवर्ण अभ्यर्थियों से ज्यादा अंक लाकर सफलता हासिल की । इसके अलावा अन्य कई नौकरियों में ओबीसी अभ्यर्थियों का कटऑफ मार्क्स जनरल से ज्यादा आ रहा है । बावजूद इसके ओबीसी अभ्यर्थियों का चयन जनरल के तहत न करके उनके मूल कोटे में किया जा रहा है ।

     इसके अलावा, उत्तर प्रदेश में 69 हजार सहायक शिक्षकों के भर्ती मामले में भी राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार को नोटिस जारी किया है । इन सभी मुद्दों को बीजेपी की सहयोगी पार्टी अपना दल एस की राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल संसद में कई बार उठा चुकी हैं । इन सभी परिस्थितियों की वजह से पिछड़ी जातियां जातीय जनगणना के लिए निरंतर आवाज उठा रही हैं । देश में 1931 के बाद अब तक जातीय जनगणना नहीं हुई । पिछड़ी जातियों के प्रबुद्ध वर्ग एवं सामाजिक संगठनों का मानना है कि जातीय जनगणना कराने से सही मायने में मालूम होगा कि किस जाति की कितनी आबादी है, और उसकी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति कैसी है । जातीय जनगणना से पिछड़ी जातियों के विकास के लिए विशेष योजनाओं का खाका तैयार हो सकेगा ।

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