टोहाना, फतेहाबाद - बुद्ध पूर्णिमा के पावन अवसर पर टोहाना शहर साहित्य के रंग में रंग गया, जब डांगरा रोड स्थित साहित्यकार विनोद सिल्ला के निवास पर एक सार्थक और भावनात्मक काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया। यह आयोजन हरियाणा प्रादेशिक हिंदी साहित्य सम्मेलन के बैनर तले किया गया, जिसमें विभिन्न क्षेत्रीय साहित्यकारों ने भाग लिया और अपनी रचनाओं के माध्यम से बुद्ध के शांति-संदेश को जीवंत किया।
कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में बरवाला से पधारे वरिष्ठ साहित्यकार श्री सूबे सिंह सुबोध, जबकि अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार बलवंत सिंह मान ने की। मंच का संचालन बड़े ही सधे हुए और संजीदा अंदाज में विनोद सिल्ला ने किया, जिन्होंने अपने शब्दों से पूरे माहौल को साहित्यिक गरिमा से भर दिया।
गोष्ठी की शुरुआत हरियाणवी हास्य कवि मास्टर जोरासिंह लाम्बा की रचना 'भई जाळ रही ना पाळ रही ना रहे पाहड़ी बांस' से हुई। इस हास्य कविता ने उपस्थित श्रोताओं को पुराने भूले-बिसरे विषयों की याद दिलाई और खूब तालियां बटोरी।
इसके बाद सूबे सिंह सुबोध ने अपनी गहराई से भरी कविता 'पहले जैसी अब कहां रात होती है, कहां अब जुगनुओं से बात होती है' सुनाकर गोष्ठी में गूंज भर दी। उनकी कविता ने आधुनिक समय की संवेदनहीनता और प्रकृति से कटाव को बड़ी भावुकता से प्रस्तुत किया।
आयोजक विनोद सिल्ला ने भी अपनी प्रभावशाली कविता 'मेरे जीवन का उजाला, नहीं है मोहताज किसी सूरज का' प्रस्तुत की, जिसमें आत्मनिर्भरता और आत्मप्रकाश की भावना को उकेरा गया। इस कविता को खूब सराहना मिली।
बलवंत सिंह मान ने अपनी समाजिक चेतना से भरी कविता 'हमें युद्ध नहीं रोजगार चाहिए, नफ़रत नहीं हमें प्यार चाहिए' के माध्यम से वर्तमान वैश्विक परिदृश्य पर प्रकाश डाला और युद्ध के दुष्परिणामों से बचने का संदेश दिया। उन्होंने इस अवसर पर विशेष रूप से बुद्ध के जीवन और उनके शांति, अहिंसा के संदेश की आवश्यकता को भी रेखांकित किया।
इस साहित्यिक संध्या को और भी समृद्ध किया कवयित्री मीना रानी और वयोवृद्ध कवि उमेद सिंह सिल्ला ने, जिन्होंने अपनी अनुभवी लेखनी से सबका मन मोह लिया।
यह काव्य गोष्ठी न केवल एक साहित्यिक आयोजन थी, बल्कि यह बुद्ध के विचारों को आधुनिक समय से जोड़ने का एक प्रयास भी थी, जिसमें साहित्यकारों ने अपने शब्दों से समाज को आत्मचिंतन और शांति की राह दिखाने का कार्य किया।
Satyashodhak, dr Babasaheb Ambedkar, Bahujan, Buddhism