कलियुग का अर्थ क्या है ? कलियुग का अर्थ है, अधर्म का युग, ऐस युग जो अनैतिक है, ऐसा युग जिसमें राजा द्वारा बनाए गए विधान का पालन नहीं किया जाता । सहसा एक प्रश्न उठता है। कलियुग पूर्व युगों की अपेक्षा अधिक अनैतिक क्यों हैं? कलियुग से पूर्व युगों में आर्यों के नैतिक मूल्य क्या थे? यदि कोई व्यक्ति बाद के आर्यों की प्रवृत्तियों और उनके सामाजिक व्यवहार की तुलना प्राचीन आर्यों से करेगा तो उसमें आश्चर्यजनक सुधार पाएगा और उनके व्यवहार और नैतिकता में सामाजिक क्रांति का पता चलेगा।
वैदिक आर्यों का धर्म बर्बर और अश्लील था। उस समय नरमेध यज्ञ हुआ करते थे। इसका यजुर्वेद संहिता, यजुर्वेद ब्राह्मण, सांख्यायन और वैतानसूत्र में सविस्तार वर्णन है।
प्राचीन आर्य लिंग पूजा करते थे। लिंग पूजा को स्कंभ कहते थे, जो आर्य धर्म का अंग थी जैसा कि अथर्ववेद के मंत्र 10.7 में है। एक और अश्लीलता थी, जिसने प्राचीन आर्य धर्म को विकृत किया हुआ था। वह था अश्वमेध यज्ञ अथवा घोड़े की बलि। अश्वमेध यज्ञ का एक आवश्यक हिस्सा यह था कि मेधित ( मृत अश्व) का लिंग यजमान की मुख्य पत्नी की योनि में ब्राह्मणों द्वारा पर्याप्त मंत्रोच्चार करते हुए डाला जाता था। वाजसनेयी संहिता का एक मंत्र 23.18 प्रकट करता है कि रानियों के बीच इस बात के लिए प्रतिस्पर्धा रहा करती थी कि घोड़े से योजित होने का श्रेय किसे प्राप्त होता है? जो इस विषय में और अधिक जानना चाहते हैं, वे यजुर्वेद की महीधर की टीका में और विस्तार से पढ़ सकते हैं, जहां वह इस वीभत्स अनुष्ठान का पूरा विवरण देते हैं जो आर्य धर्म का अंग थी।
प्राचीन आर्यों का जैसा धर्म था वैसा ही चरित्र भी था। आर्य एक जुआरी जाति थी। आर्य सभ्यता के प्रारंभ से ही उन्होंने द्यूत-क्रीड़ा विज्ञान की रचना कर ली थी। यहां तक कि उन्होंने अपने पासों की तकनीकी शब्दावली भी बना डाली थी। सबसे सौभाग्यशाली दाव 'कृत' होता था और सबवे अभागा 'कलि' । त्रेता और द्वापर का मध्यम दर्जा था। प्राचीन आर्यों में न केवल बाजियां खेली जाती थीं, बल्कि उन पर दाव भी अवश्य लगा करते थे। वे इतने ताव में आकर खेलते थे कि जुए में उनका कोई सानी नहीं होता था। राजा नल ने अपना राजपाट ही जुए में खो दिया। पांडव तो और आगे बढ़ गए। उन्होंने न केवल अपने राजपाट से हाथ धोया बल्कि अपनी पत्नी तक को हार बैठे। केवल धनी आर्य ही जुआरी नहीं होते थे। अन्य कंगालों को भी इसकी लत थी।
प्राचीन आर्य एक पियक्कड़ जाति थी । मदिरा पान उनके धर्म का अंग था । वैदिक देवता भी शराब पीते थे। देवताओं की शराब सोम कहलाती थी । क्योंकि आर्यों के देवता ही शराब पीते थे, इसलिए उन्हें भी पीने में कोई संकोच नहीं था बल्कि शराब पीना आर्य धर्म में कर्त्तव्य माना जाता था। आर्यों में इतने सोम यज्ञ हुआ करते थे कि मुश्किल से ही कोई दिन ऐसा बीतता होगा, जब सोमपान न किया जाता हो। सोम केवल तीन उच्च वर्णों, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तक सीमित था । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि शूद्र नशाखोरी से मुक्त थे। जिन्हें सोम पीने की आज्ञा नहीं थी, वे सुरा पीते थे, कच्ची शराब जो बाजार में बिका करती थी । न केवल आर्य पुरुष शराब पीते थे बल्कि उनकी स्त्रियां भी नशे में धुत रहा करती थीं। कौशीतकी गृह्यसूत्र 1.11.12 में सलाह दी गई है कि चार अथवा आठ स्त्रियाँ, जो विधवा न हों, शराब और भोजन से तृप्त होकर विवाह से पूर्व रात्रि को चार बार नृत्य करने के लिए बुलाई जाएं। मद्यपान केवल गैर ब्राह्मण स्त्रियों में ही प्रचलित नहीं था, बल्कि ब्राह्मण स्त्रियों में भी इसकी आदत थी। मदिरापान पाप नहीं था। यह शर्म की बात नहीं थी बल्कि इसे सम्मानजनक माना जाता था। ऋग्वेद में कहा गया है:
“मदिरापान से पूर्व सूर्योपासना करें। "
यजुर्वेद कहता है:
"हे सोम देव! सुरा से शक्तिमान और प्रबल होकर देवों को शुद्ध मन से प्रसन्न कर, यजमान को सरस भोजन और ब्राह्मण और क्षत्रियों को बल दे। "
मंत्र ब्राह्मण का कथन है:
“जिससे स्त्रियों को पुरुषों के भोगने के योग्य बनाया गया है, जिससे पानी मदिरा में बदल जाता है (पुरुषों के आनंद हेतु ) आदि ......."
रामायण के उत्तरकांड में स्वीकार किया गया है कि राम और सीता दोनों ने मदिरा पी थी
“जैसे इन्द्र ने शचि (अपनी पत्नी को), वैसे ही रामचन्द्र ने सीता को शुद्ध मधु की शुद्ध मदिरा पिलाई। राम के कर्मचारीगण, मांस और मधुर फल लाए। "
वैसा ही कृष्ण और अर्जुन ने भी किया। महाभारत के उद्योग पर्व में संजय कहता है:
“अर्जुन और कृष्ण, मधु से बनी मीठी और सुगंधयुक्त मदिरा पिए, पुष्पहार ध रण किए, भव्य वस्त्राभूषण धारण किए रत्नमंडित स्वर्ण सिंहासन पर आसीन थे। मैंने श्रीकृष्ण के पैर अर्जुन की गोद में रखे देखे हैं और अर्जुन के पांच द्रौपदी और सत्यभामा की गोद में हैं। "