आश्रम धर्म हिन्दुओं की विशिष्टता है और उन्हें इस पर गर्व है । यह सत्य है कि इसकी तुलना नहीं है। परन्तु यह भी सत्य है कि इसमें कोई गुण नहीं है। अनिवार्य ब्रह्मचर्य बहुत आकर्षक लगता है क्योंकि इसके अनुसार बच्चों के लिए अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की गई बतायी जाती है। परन्तु वह सबके लिए नहीं थी । शूद्र और स्त्रियों को इससे वंचित रखा गया है। शूद्र और स्त्रियां हिन्दूसमाज का 9 / 10वां भाग हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए यह स्पष्ट है कि यह योजना बुद्धिमत्ता के स्थान पर धूर्ततापूर्ण है। इसमें बहुसंख्यक समाज के साथ भेदभाव रखा गया है और शिक्षा का प्रावधान कुलीन वर्ग के लिए ही है। अनिवार्य विवाह भी एक मूर्खतापूर्ण व्यवस्था है। किसी व्यक्ति की आर्थिक और शारीरिक क्षमताओं को ध्यान में रखे बिना विवाह के लिए विवश करना दो व्यक्तियों का जीवन और राष्ट्र को नष्ट करने का मार्ग खोलता है। बशर्ते कि सरकार प्रत्येक व्यक्ति के निर्वाह का भरोसा दे । सर्वाधिक मूर्खतापूर्ण है वानप्रस्थ और संन्यास। उनके संबंध में नियम इस प्रकार हैं। वानप्रस्थ¹ के लिए, निम्नांकित मनु व्यवस्था है :
अध्याय 6.3. ग्राम्य आहार तथा वस्तुओं को छोड़कर, वन में जाने की इच्छा नहीं करने वाली अपनी पत्नी को पुत्रों के उत्तरदायित्व में सौंपकर अथवा वन में साथ जाने की इच्छा करने वाली अपनी पत्नी को साथ लेकर वन को जावे |
अध्याय 6.4. पवित्र अग्नि और घरेलू यज्ञ के उपकरण लेकर ग्राम से बाहर वन में जाकर जितेन्द्रिय होकर रहे।
अध्याय 6.5. पवित्र अनेकविध मुन्यन्न अथवा शाक, मूल और फल आदि से पूर्वोक्त पंचमहायज्ञों को विधिपूर्वक करता रहे।
अध्याय 6.6. मृग आदि का चर्म या पेड़ों का वल्कल धारण करे, सायंकाल तथा प्रात:काल स्नान करे और सर्वदा जटा, दाढ़ी, मूंछ एवं नख को धारण करे।
अध्याय 6.7. जो भोज्य पदार्थ हो, उसी से बलि करे, भिक्षा दे और जलकन्द तथा फलों की भिक्षा देकर आये हुए अतिथियों का सत्कार करे ।
अध्याय 6.8. सर्वदा वेदाभ्यास में लगा रहे द्वंद्वों को सहन करे, सबसे मित्रभाव रखे, मन को वश मे रखे, दानशील बने, दान न ले और सब जीवों पर दया करे ।
अध्याय 6.9. दर्श, पौर्णमास पर्वों को यथासमय त्याग नहीं करता हुआ विधिपूर्वक वैतानिक अग्निहोत्र करता रहे।
अध्याय 6.10. नक्षत्रेष्टि, आग्रहायण याग, चातुर्मास्य याग, उत्तरायण याग और दक्षिणायन याग को श्रोतस्मार्त विधि से क्रमश: करे।
अध्याय 6.11. वसन्त तथा शरद ऋतु में पैदा हुए एवं स्वयं लाये गये पवित्र मुन्यन्नों, पुरोडश तथा चरूको शास्त्रानुसार अलग-अलग तैयार करे ।
अध्याय 6.12. वन में उत्पन्न अत्यंत पवित्र उस हविष्यान्न से देवों के उद्देश्य हवन कर बचे हुए अन्न का भोजन करे तथा स्वयं बनाये हुए लवण को काम में लाए ।
अध्याय 6.13. भूमि तथा जल में उत्पन्न शाक को, वृक्षों के पवित्र पुष्प, मूल तथा फल को और फलों से बने स्नेह को भोजन करे।
1. सै. बु.ई. खंड 30, पृ. 199-203
अध्याय 6.14. मधु, मांस, पृथ्वी में उत्पन्न छत्राक, भूस्तृण, शिग्रक और लसौडे का फूल का त्याग करे ।
अध्याय 6.15. पूर्वसंचित मुन्यन्न, पुराने वस्त्र और शाक, कन्द एवं फल का आश्विन मास में त्याग कर दे।
अध्याय 6.16. वन में भी हल से जुती हुई भूमि में उत्पन्न खाद्य पदार्थ, चाहे किसी ने फेंक दिए हों, और कंद-मूल और फल को क्षुधा पीड़ित होकर भी न खाए ।
अध्याय 6.17. अग्नि में पकाये हुए अन्नादि को खाने वाला बने, अथवा नियत समय पर पकने वाले पदार्थों को खाने वाला बने, अथवा वे पदार्थ जो पत्थर से पीस कर अथवा दांतों से चबाकर खाने वाले हों।
अध्याय 6.18. वह भोजन पात्रों को नित्य तुरंत साफ करने वाला बने, या एक मास का पर्याप्त प्रबंध करे अथवा इतना संग्रह करले जो छः माह या वर्ष पर्यन्त के लिए पर्याप्त हो ।
अध्याय 6.19. यथाशक्ति खाद्य को लाकर सायंकाल या दिन में या एक दिन, पूरा उपवास कर दूसरे दिन सायंकाल या तीन रात उपवास कर चौथे दिन सायंकाल भोजन करे।
अध्याय 6.20. अथवा शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष में चन्द्रायण के नियम से भोजन करे, अथवा अमावस्या तथा पूर्णिमा को दिन या रात्रि में केवल एक बार पकाई हुई ययागू का भोजन करे।
अध्याय 6.21. अथवा वैखानस आश्रम में रहने वाला सर्वदा केवल समय पर पके और स्वयं गिरे हुए फूल मूल और फलों से ही जीवन निर्वाह करे ।
अध्याय 6.22. भूमि पर लेटै तथा टहले या पैर के अगले भाग पर दिन में कुछ समय तक खड़ा रहे या बैठा रहे, प्रातःकाल, मध्याह्न और सायंकाल में स्नान करे । अध्याय
6.23. अपनी तपस्या को बढ़ाता हुआ ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्नि ले, वर्षा ऋतु में खुले मैदान में रहे और शीत ऋतु में गीला कपड़ा धारण करे।
अध्याय 6.24. तीनों समय स्नान करता हुआ देवताओं, ऋषियों तथा पितरों का तर्पण करे और कठोर तपस्या करता हुआ अपने शरीर को सुखा दे ।
अध्याय 6.25. वानप्रस्थ के नियमानुसार वैतानिक अग्नि को आत्मा में रखकर वन में भी अग्नि और गृह का त्याग कर केवल मूल तथा फल का खावे ।
अध्याय 6.26. सुख-साधक साधनों में उद्योग छोड़कर ब्रह्मचारी, भूमि पर सोने वाला, निवास स्थान में ममस्वरहित हो पेड़ों के मूल को घर समझ कर निवास करे।
अध्याय 6.27. जीवन निर्वाह के लिए केवल तपस्वी वानप्रस्थाश्रमियों के यहां भिक्षा ग्रहण करे और उनका भी अभाव होने पर वन में निवास करने वाले अन्य गृहस्थ द्विजों से भिक्षा ग्रहण करे ।
अध्याय 6.28. उन वनवासी गृहस्थों का भी अभाव होने पर वन में ही निवास करता हुआ ग्राम से वृक्ष-पत्रों में या सकोरों के खण्डों में अथवा हाथ में ही भिक्षा ला कर केवल आठ ग्रास भोजन करे।
अध्याय 6.29. वन में निवास करता हुआ ब्राह्मण इन नियमों को तथा स्वशास्त्रोक्त नियमों का पालन करे और आत्मसिद्धि के लिये उपनिषदों तथा वेदों में कथित वचनों का अभ्यास करे।
मनुस्मृति में संन्यासी के लिए निम्न विधान हैं : ¹
अध्याय 6.38. जिसमें समस्त सम्पत्ति को दक्षिणा रूप में देते हैं ऐसे प्राजापत्य यज्ञ का अनुष्ठान कर और उसमें कथित विधि से अपने में अग्नि का आरोप कर ब्राह्मण घर से संन्यास आश्रम को ग्रहण करें।
अध्याय 6.39. जो सब प्राणियों के लिए अभय देकर गृह से संन्यास ले लेता है, उस ब्राह्मण के तेजोमय लोक होते हैं अर्थात् वह उन लोकों को प्राप्त करता है ।
अध्याय 6.40. जिस द्विज से जीवों को लेशमात्र भी भय नहीं होता, शरीर से विमुक्त हुए उस द्विज को कहीं से भी भय नहीं होता ।
अध्याय 6.41. पवित्र कमण्डल, दण्ड आदि से युक्त मौन धारण किया हुआ घर से निकला हुआ और उपस्थित इच्छा प्रवर्त्तक वस्तु में नि:स्पृह होकर संन्यास ग्रहण करे ।
अध्याय 6.42. अकेले सिद्धि को देखता हुआ द्विज दूसरे किसी का साथ न करके अकेला ही मोक्ष के लिए चले इस प्रकार वह किसी को नहीं छोड़ता है और न उसे कोई छोड़ता है।
अध्याय 6.43. लौकिक अग्नि से रहित, गृह से रहित, शरीर में रोगादि होने पर भी चिकित्सा आदि का प्रबंध न करने वाला, स्थिर बुद्धिवाला, ब्रह्म का मनन करने वाला और ब्रह्म में ही भाव रखने वाला संन्यासी भिक्षा के लिए ग्राम में प्रवेश करे ।
1. सै. बु. ई. खंड 25 अध्याय 6 श्लोक 38-45, पृ. 205-206
अध्याय 6.44. एक खपरा, पेड़ों की जड़ (रहने के लिए कंदरा ), पुराना व मोटा या वृक्ष का वल्कल कपड़ा अकेलापन, ममता और सब में समान भाव से, ये मुक्त के लक्षण हैं।
अध्याय 6.45. मरने या जीने, इन दोनों में से किसी की चाह न करे किन्तु नौकर जिस प्रकार वेतन की प्रतीक्षा करता है, उसी प्रकार काल की प्रतीक्षा करते रहे ।
अध्याय 6.49. ब्रह्म ध्यान में लीन योगासनों में बैठा हुआ, अपेक्षा से रहित, मांस की अभिलाषा से रहित और शरीर मात्र सहायक से युक्त मोक्ष सुख को चाहने वाला इस संसार का विचरण करे।
अध्याय 6.50. चमत्कार और अपशकुन, ज्योतिष और हस्तरेखा विज्ञान, व शास्त्र शिक्षा आदि के द्वारा कभी भी भिक्षा लेने की इच्छा न करे ।
अध्याय 6.51. बहुत से वानप्रस्थों या अन्य साधुओं, ब्राह्मणों, पक्षियों, कुत्तों या दूसरे भिक्षुकों से युक्त घर में न जावे ।
अध्याय 6.52. बाल, नाखून और दाढ़ी-मूंछ कटवा कर, भिक्षापात्र, दण्ड तथा कमण्डल को लिये हुए किसी प्राणी को पीड़ित न करता आत्मसंयमी रहते हुए सर्वदा विचरण करे।
अध्याय 6.53. उसके भिक्षापात्र धातु के न हों, छिद्र रहित हों, उनकी शुद्धि यज्ञ में चमस के समान केवल पानी से होती है।
अध्याय 6.54. तुम्बा, लकड़ी, मिट्टी, बांस के पाच्यतियों के हों ऐसा स्वायंभूव पुत्र ने कहा है।
अध्याय 6.55. संन्यासी जीवन निर्वाह के लिए दिन में एक बार ही भिक्षा ग्रहण करे, तथा उसको भी अधिक प्रमाण में लेने में आसक्ति न करे, क्योंकि भिक्षा में आसक्ति रखने वाला संन्यासी विषयों में भी आसक्त हो जाता है।
अध्याय 6.56. घरों में जब धुंआ दिखाई न पड़ता हो, मूसल का शब्द न होता हो, आग बुझ गयी हो, सब ने भोजन कर लिये हों, और खाने के पत्तल बाहर फेंक दिये गये हों, तब भिक्षा के लिए संन्यासी सर्वदा निकले।
अध्याय 6.57. भिक्षा न मिलने पर विषाद और मिलने पर हर्ष न करे। जितनी भिक्षा से जीवन निर्वाह हो सके, उतने ही प्रमाण में भिक्षा मांगे। दण्ड, कमण्डल आदि की मात्रा में भी आसक्ति न करे ।
1. सै. बु.ई. अध्याय 6, पृ. 207-209
अध्याय 6.58 विशेष रूप से आदर सत्कार के साथ मिलने वाली भिक्षा की सर्वदा निंदा करे, क्योंकि पूजापूर्वक होने वाली भिक्षा प्राप्ति से मुक्त भी संन्यासी बंध जाता है।
अध्याय 6.59. विषयों की ओर आकृष्ट होती हुई इन्द्रियों को थोड़ा भोजन और एकांतवास के द्वारा रोके ।
अध्याय 6.60. इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से रोकने से राग और द्वेष के त्याग से और प्राणियों की अहिंसा से मुक्ति के योग्य होता है।
अध्याय 6.80. जब विषयों में दोष की भावना से सब विषयों से निःस्पृह हो जाता है, तब इस लोक में तथा परलोक में नित्य सुख को प्राप्त करता है।
अध्याय 6.81. इस प्रकार सब संगों को धीरे-धीरे छोड़कर तथा सब द्वंद्वों से छुटकारा पाकर ब्रह्म में ही लीन हो जाता है।
अध्याय 6.82. यह सब परमात्मा में ध्यान से होता है। अध्यात्मज्ञान से शून्य ध्यान का फल कोई भी नहीं प्राप्त करता है ।
अध्याय 6.83. यज्ञ तथा देव के प्रतिपादक वेदमंत्र को, जीव के स्वरूप का प्रतिपादक वेदमंत्र को और ब्रह्मप्रतिपादक वेदान्त में वर्णित मंत्र को जपे।
अध्याय 6.84. वेदार्थ को नहीं जानने वाले के लिए यही वेद शरण है, और वेदार्थ जानने वालों के लिए स्वर्ग चाहने वालों के लिये भी यही वेद शरण है।
अध्याय 6.85. इस क्रम से जो द्विज संन्यास लेता है वह इस संसार में पाप को नष्ट कर उत्कृष्ट ब्रह्म को प्राप्त करता है।
वानप्रस्थ और संन्यासी की तुलना से ज्ञात होता है कि इनके पालन में इतना साम्य है कि हमें यह जिज्ञासा होती है कि इन दोनों अवस्थाओं को भिन्न क्यों रखा गया है? दोनों के बीच बहुत कम अंतर है। पहली बात तो यह है कि वानप्रस्थ अपनी पत्नी को साथ रख सकता है, संन्यासी नहीं। दूसरे यह कि वानप्रस्थ अपनी सम्पत्ति रख सकता है और संन्यासी को उसका परित्याग करना होता है। तीसरे यह कि वानप्रस्थ वनों में निवास बना सकता है किन्तु संन्यासी एक ही स्थान पर नहीं टिक सकता है, उसे एक से दूसरे स्थान तक रमण करना होता है। शेष बातों में दोनों का जीवन समान है। ब्राह्मणों ने वानप्रस्थ की अतिरिक्त मान्यता क्यों रखी जबकि संन्यास पर्याप्त था ? परन्तु यह प्रश्न तो फिर भी बरकरार रहता है कि इन दोनों की ही क्या आवश्यकता थी? ये आत्म - बलिदान का उदाहरण नहीं कही जा सकती। वानप्रस्थ और संन्यासी केवल वृद्ध ही हो सकते हैं। मनु इस संबंध में आश्वस्थ हैं कि एक अवस्था में मनुष्य वानप्रस्थी हो जाए। इसका समय तभी आता है जब झुर्रियां पड़ने लगें। यह काफी आयु में होता है। संन्यासी की आयु तो और भी अधिक होनी चाहिए। ऐसे व्यक्तयों को आत्मत्यागी कहना गलती है, जिन्होंने जीवन के सभी सुख भोगे हों और जब वे सुख भोगने योग्य ही न रहें तो उनका परित्याग कर दें। यह निर्विवाद है कि परिवार और गृह-त्याग, समाज-सेवा अथवा दीन-दुखियों की सेवा के उद्देश्य से नहीं किया जाता। इसका आशय है, तपस्या करना और शांतिपूर्वक मृत्यु की प्रतीक्षा करना ! यह एक मजाक ही है कि वृद्ध व्यक्तियों को घर-परिवार से दूर जंगलों में मरने के लिए छोड़ दिया जाए, जहां उनके लिए कोई दो आंसू बहाने वाला भी न हो ।
ब्राह्मणों ने नियोजित अर्थ-व्यवस्था के उद्देश्य से आश्रम - प्रणाली बनाई। यह इतनी बड़ी मूर्खता है कि उसका कारण और उद्देश्य समझ पाना एक बहुत बड़ी पहेली है।
1. सै. बु.ई., खंड 25, श्लोक 80-85 पृ. 213-214