नीत्शे, जिसके दर्शन से इतनी तीव्र उपेक्षा तथा डर पैदा होता है, उसकी बराबरी मनु के साथ करने के निश्चित ही हिंदुओं को अचंभा हो सकता है और उनके मन में क्रोध भी पैदा हो सकता है। परंतु इस सच्चाई के बारे में कोई संदेह नहीं किया जा सकता है। नीत्शे ने स्वयं यह बात कही है कि उसके दर्शन में उसने केवल मनु की योजना का अनुसरण ही किया है। अपनी एंटी क्राइस्ट पुस्तक में नीत्शे ने कहा है:
अंततः प्रश्न यह है कि झूठ किस सीमा तक बोला जाए? इस सत्य को कि ईसाई धर्म में पवित्र उद्देश्यों का अभाव है, जिसके कारण वे जिन साधनों का उपयोग करते है उन पर मेरी आपत्ति है, उनके उद्देश्य केवल बुरे उद्देश्य हैं। पाप की संकल्पा के कारण मनुष्य सुख से वंचित रहता है। अपने शरीर से तिरस्कृत रहता है, अपना जीवन जहरीला और कलंकित बनाता है तथा अपने-आपको गिरा हुआ और कलुषित मानता है। परिणामस्वरूप, उसके साधन भी बुरे हैं। मेरी भावनाएं इसके बिल्कुल विपरीत हैं। जब मैं मनु का विधान पढ़ता हूं, जो निश्चित ही एक अतुलनीय, अपूर्व बौद्धिक तथा श्रेष्ठ कलाकृति है, उसका बाइबिल के साथ उल्लेख करना भी एक भारी पाप होगा। आप तुरंत जान सकते है, ऐसा क्यों? क्योंकि उसमें उसकी पृष्ठभूमि में एक सच्चा दर्शन है। उसमें केवल ज्यू लोगों के रब्बिनवाद की गंध वाले सार और वहम नहीं हैं, उसमें बड़े-बड़े तुनक मिजाज मनौवैज्ञानिक की बुद्धि के लिए भी भरपूर सामग्री है और अत्यधिक महत्वपूर्ण तथा न भूलने वाली बात यह है कि मनु का विधान मौलिक रूप से बाइबिल से सभी प्रकार से भिन्न है, उसके कारण समाज के प्रतिष्ठित वर्ग, दार्शनिक और योद्धा जनता की रक्षा करते हैं और उनका मार्गदर्शन करते हैं। वह महान आदर्शों से ओत-प्रोत है। वह परिपूर्णता की भावना से भरा हुआ है उसमें जीवन का सार है और अपने स्वयं के प्रति तथा जीवन के प्रति कल्याण की विजयी भावना है। उस संपूर्ण ग्रंथ पर सूर्य की जगमगाहट है। वह प्रजोत्पादन, स्त्री, विवाह आदि सभी बातों को जिन्हें इसाई धर्म अपनी गहरी अश्लीलता से दबा देता है, यहां ईमानदारी, आदर, प्रेम तथा विश्वास के साथ प्रस्तुत किया गया है।
व्यभिचार को टालने के लिए, प्रत्येक पुरुष की अपनी पत्नी होनी चाहिए और प्रत्येक स्त्री का अपना पति होना चाहिए।..... जलने की बजाय विवाह करना उत्तम है ऐसी पुस्तक जिसमें ऐसे शब्दों का समावेश है, बच्चों तथा स्त्रियों के हाथों में कैसे दे सकते हैं और जब मनुष्य की उत्पत्ति को ही ईसाई बना दिया है, अर्थात् निष्कलंक धर्म - धारण की भावना से कलुषित किया है, तब क्या ईसाई बनना उचित होगा ? ........
जिस प्रकार मनु के विधान की पुस्तक में स्त्रियों के प्रति जितनी सुंदर तथा उत्तम बातें कही गई हैं, ऐसी बातें कहने वाली कोई दूसरी पुस्तक मैं नहीं जानता। इन वृद्ध सफेद दाढ़ी वालों और संतों ने स्त्रियों का वर्णन करने में जिस दुस्साहस का परिचय दिया है, उसकी बराबरी कहीं भी नहीं। एक स्थान पर मनु कहता है - स्त्री का मुख, कुमारी का वक्ष, बच्चे की प्रार्थना और यज्ञ का धुआं हमेश शुद्ध होते हैं। एक और स्थान पर वह कहता है- सूर्य का प्रकाश, गाय की छाया, हवा, जल, अग्नि तथा कुमारी की श्वास, इनसे शुद्ध कोई दूसरी वस्तु नहीं है। और अंत में शायद यह बताना भी एक पवित्र झूठ है कि स्त्री के शरीर के नाभि के ऊपर का खुला हिस्सा शुद्ध है और नाभि के नीचे का हिस्सा अशुद्ध है। केवल कुमारी का ही संपूर्ण शरीर शुद्ध होता है।
इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता है कि जरथूस्त मनु का ही एक नया नाम है और दस स्पेक जरथुस्त मनुस्मृति की ही एक नई आवृत्ति है।
अगर मनु और नीत्शे में कोई अंतर है, तो वह इस बात में है कि नीत्शे यथार्थतः एक नई मानवजाति की रचना करना चाहता था जो कि वर्तमान मानव जाति की तुलना में महामानवों की जाति हो। इसके विपरीत मनु एक ऐसी जाति के विशेषाधिकारों की रक्षा में दिलचस्पी रखता था जो अनाधिकार रूप से महामानव बनने की चेष्टा करते थे। नीत्शे के महामानव उनके गुणों से महामानव थे, मनु के महामानव केवल उनके जन्म के कारण महामानव बनते थे। नीत्शे एक सच्चा निस्वार्थी दार्शनिक था । इसके विपरीत मनु एक ऐसा भाड़े का दलाल था, जो एक विशेष समुदाय में जन्मे लोगों के स्वार्थ की रक्षा करने के लिए रखा गया था जो अपने गुणों को खो भी दें तो भी उनका महामानव का स्तर नहीं खोया जा सकेगा। वह ऐसे दर्शन का प्रणेता था । हम मनु के निम्नलिखित उदाहरणों की तुलना करते हैं :
10.81. ब्राह्मण यदि अपने कर्म से जीवन निर्वाह कर सके, तो क्षत्रिय का कर्म करता हुआ जीवन निर्वाह करे क्योंकि क्षत्रिय वर्ग उसका समीपवर्ती है।
10.82 यदि वह दोनों (ब्राह्मण कर्म तथा क्षत्रिय कर्म) से जीवन निर्वाह नहीं कर सकता तो ब्राह्मण किस प्रकार रहे? यदि ऐसा संदेह हो जाए, तो
वह वैश्य के कर्म, खेती, गौ-पालन और व्यापार से जीविका करे। मनु आगे कहता है
9.317 ब्राह्मण चाहे मूर्ख हो या बुद्धिमान, वह महान पूज्य व्यक्ति होता है, ठीक उसी प्रकार जैसे अग्नि, चाहे शास्त्र विधि से स्थापित है अथवा सामान्य अग्नि है,
9.319 इस प्रकार ब्राह्मण यदि कोई नीच व्यवसाय भी करे, उनका प्रत्येक प्रकार से सम्मान होना चाहिए, क्योंकि, वह उत्तम देवता है।
इस प्रकार नीत्शे की तुलना में मनु के महामानव का दर्शन अधिक नीच तथा भ्रष्ट है, नीत्शे के दर्शन से अधिक घृणित एवं निर्दनीय है ।
इससे पता चलता है कि हिंदुत्व का दर्शन न्याय और उपयोगिता की कसौटी पर किस प्रकार से खरा नहीं उतरता। हिंदू धर्म की रुचि सर्वसाधारण लोगों में नहीं है। हिंदू धर्म की रुचि पूरे समाज में नहीं है। उसकी रुचि एक वर्ग के हित में केंद्रित है और उसके दर्शन का संबंध भी केवल उस वर्ग के अधिकारों की रक्षा और समर्थन करने से है। इसलिए हिंदू धर्म के दर्शन में सामान्य मनुष्य तथा उसके साथ-साथ संपूर्ण समाज के हितों को महामानवों (ब्राह्मणों) के वर्ग हितों के लिए नकारा गया है, दबाया गया है और उनकी बलि चढ़ाई गई है।
ऐसे धर्म का मनुष्य के लिए क्या महत्व है?
धर्म के प्रत्यक्षवाद के गुणों के विषय में बाल्फोर महोदय ने प्रत्यक्षवादियों से कुछ प्रश्न पूछे थे, जिनका उल्लेख आवश्यक है। उन्होंने स्पष्टतया पूछा :
समाज के अनगिनत महत्वहीन लोग जो अपनी दैनिक जरूरतों तथा छोटी-छोटी चिंताओं के साथ निरंतर संघर्ष करने में इतने अधिक उलझे हुए हैं और बहुत ही व्यस्त हैं जिनके पास सुख चैन के लिए कोई समय नहीं अथवा जिन लोगों को मानवता के नाम के नाटक में उनकी निश्चित भूमिका के विचार की आवश्यकता नहीं है और वैसे ही जो लोग इसके महत्व तथा हित समझने में भ्रमित हो जाएंगे, ऐसे लोगों के संबंध में प्रत्यक्षवाद के क्या विचार हैं? क्या वे उन्हें ऐसा आश्वासन दे सकते हैं। कि उस ईश्वर की नजर में, जिसने स्वर्ग का निर्माण किया है, कोई भी व्यक्ति ऐसा महत्वहीन नहीं है कि उनके कार्य की ईश्वर की नजर में कोई कद्र नहीं होगी या वह इतना कमजोर है कि उसके कार्य का परिणाम संसार का विनाश होगा। क्या यह उन दीन-दुखी लोगों को सांत्वना दे सकता है? क्या दुर्बलों को शक्ति दे सकता है ? क्या पापी लोगों को क्षमा कर सकता है? और जो लोग थके हैं तथा किसी बोझ के नीचे दबे हैं, उन्हें आराम दे सकता है?"
यही प्रश्न मनु से पूछे जा सकते हैं और इनमें से प्रत्येक प्रश्न का उत्तर सकारात्मक होना चाहिए।