द्वितीय संस्करण की प्रस्तावना
लाहौर के जातपांत तोड़क मंडल के लिए जो भाषण मैंने तैयार किया था, उसका हिन्दू जनता द्वारा अपेक्षाकृत भारी स्वागत किया गया। यह भाषण मैंने मुख्य रूप से इन्हीं लोगों के लिए तैयार किया था। एक हजार पांच सौ प्रतियों का अंग्रेजी संस्करण इसके प्रकाशन के दो महीनों के भीतर ही समाप्त हो गया। इसका गुजराती और तमिल में अनुवाद किया गया। अब इस भाषण का मराठी, हिन्दी पंजाबी और मलयालम में अनुवाद किया जा रहा है। अंग्रेजी पाठ की मांग अभी भी निरंतर बनी हुई है। इसलिए इस मांग को पूरा करने के लिए दूसरा संस्करण निकालना आवश्यक हो गया है। इतिहास की दृष्टि और अनुरोध को ध्यान में रखते हुए मैंने निबंध के मौलिक स्वरूप, अर्थात् भाषण के स्वरूप को यथावत् बनाए रखा, हालांकि मुझसे कहा गया था कि मैं इसे सीधी वर्णनात्मक शैली में नया रूप दूं। इस संस्करण में मैंने दो परिशिष्ट जोड़े हैं। परिशिष्ट I में मैंने 'हरिजन' में अपने भाषण की समीक्षा के रूप में श्री गांधी द्वारा लिखे गए दो लेख और जातपांत तोड़क मंडल के एक सदस्य श्री संत राम को लिखा गया उनका पत्र संकलित किया है। परिशिष्ट II में मैंने परिशिष्ट I में संकलित श्री गांधी के लेखों के उत्तर में अपने विचारों को प्रकाशित किया है। श्री गांधी के अलावा अन्य अनेक लोगों ने मेरे उन विचारों की तीखी आलोचना की है जो मैंने अपने भाषण में व्यक्त किए थे। किन्तु मैंने यह महसूस किया है कि इस प्रकार की प्रतिकूल टिप्पणियों पर ध्यान देते हुए मैं अपने को केवल श्री गांधी तक ही सीमित रखूं। मेरे ऐसा करने का कारण यह नहीं है कि इनकी बात में इतना वजन है कि इसका उत्तर दिया जाना चाहिए, बल्कि कारण यह है कि अनेक हिन्दुओं की दृष्टि में श्री गांधी एक आप्त पुरुष हैं और इतने महान् हैं कि जब वे किसी बात पर कुछ कहने लगते हैं तो यह आशा की जाती है कि सब बहस खत्म हो जानी चाहिए और इस पर किसी को कुछ भी नहीं बोलना चाहिए, किन्तु संसार ऐसे विद्रोहियों का ऋणी है, जिन्होंने धर्म गुरुओं के मुंह पर ही तर्क करने का साहस किया है और जोर देकर कहा है कि आप जो कहते हैं, वही सही नहीं है। मुझे ऐसा श्रेय नहीं चाहिए, जो प्रत्येक प्रगतिशील समाज को अपने विद्रोहियों को देना चाहिए। यदि मैं हिन्दुओं को इस बात का अहसास करा दूं कि वे भारत के ऐसे व्यक्ति हैं, जिनमें दोष व्याप्त हैं और उनके दोषों से अन्य भारतीयों की खुशहाली और प्रगति को खतरा उत्पन्न हो रहा है, तो मुझे संतोष होगा ।
भीमराव अम्बेडकर
तीसरे संस्करण की प्रस्तावना
इस निबंध का दूसरा संस्करण 1937 में प्रकाशित हुआ था और बहुत थोड़े ही समय में वह बिक गया। काफी समय से इसके नए संस्करण की मांग आ रही थी। मेरी मंशा थी कि मैं इस निबंध को नया रूप दूं और इसमें अपने एक अन्य निबंध 'भारत में जातियां, उनका उद्गम और उनकी संरचना को भी शामिल कर दूं। मेरा यह निबंध 'इंडियन एंटीक्वेरी' जरनल के मई 1917 के अंक में प्रकाशित हुआ था । किन्तु मुझे समय नहीं मिल सका और ऐसा करने की संभावना भी बहुत कम है और चूंकि जनता भी लगातार इसकी मांग कर रही है, इसलिए प्रस्तुत संस्करण को इसके दूसरे संस्करण के मात्र पुनर्मुद्रण के रूप में ही प्रकाशित करके ही मुझे संतोष है।
मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि यह निबंध इतना अधिक लोकप्रिय रहा। मुझे आशा है कि यह अपने अपेक्षित उद्देश्य की पूर्ति कर सकेगा।
भीमराव अम्बेडकर
22. पृथ्वीराज रोड,
नई दिल्ली,
1 दिसम्बर, 1944