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जातिप्रथा और उन्मूलन  - डॉ. भीमराव अम्बेडकर

आमुख

    12 दिसम्बर, 1935 को मुझे जातपांत तोड़क मंडल के मंत्री श्री संत राम का पत्र प्राप्त हुआ, जो इस प्रकार है :

प्रिय डाक्टर साहेब,

    आपके 5 दिसम्बर के कृपा पत्र के लिए बहुत - बहुत धन्यवाद । आपकी आज्ञा के बिना मैंने इसे प्रेस को दे दिया है, इसके लिए मैं आपसे क्षमा चाहता हूं। मैं समझता हूं कि इसके प्रचारित करने में कोई हानि नहीं है। आप एक महान चिंतक हैं और मेरा यह सुविचारित मत है कि आपने जाति-समस्या का जितनी गहराई से अध्ययन किया है, उतना किसी और ने नहीं किया। मुझे स्वयं और हमारे मंडल को हमेशा ही आपके विचारों से लाभ पहुंचा है। मैंने अनेक बार 'क्रांति' में इसका प्रचार और स्पष्टीकरण किया है और अनेक सम्मेलनों में इस पर भाषण भी दिए हैं। मैं आपके इस नए सूत्र, अर्थात् 'जिन आर्थिक विश्वासों पर जातिप्रथा की नींव खड़ी है, उनके अस्तित्व की समाप्ति के बिना जातपांत को तोड़ना संभव नहीं होगा की व्याख्या को पढ़ने का बहुत उत्सुक हूं। कृपया अपनी सुविधानुसार यथाशीघ्र विस्तार से इसकी व्याख्या करें, ताकि हम इस विचार पर प्रेस और मंचों से समर्थन कर सकें। फिलहाल, मैं इस संबंध में पूरी तरह स्पष्ट नहीं हूं।

jati Pratha aur Unmulan - Answer given to Mahatma Gandhi - dr bhimrao ambedkar

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    हमारी प्रबंधकारिणी समिति का आग्रह है कि आप हमारे वार्षिक सम्मेलन का अध्यक्ष बनना स्वीकार करें। हम आपकी सुविधानुसार इस सम्मेलन की तारीखों में परिवर्तन कर सकते हैं। पंजाब के स्वतंत्र विचारों वाले हरिजनों की आपसे मिलने और अपनी योजनाओं पर आपसे विचार-विमर्श करने की बड़ी इच्छा है। अतः यदि आप लाहौर आकर सम्मेलन की अध्यक्षता करने की कृपा करें तो दो काम हो जाएंगे ।

    हम सभी विचारधाराओं के हरिजन नेताओं को आमंत्रित करेंगे और इससे आपको उन्हें अपने विचारों से अवगत कराने का अवसर मिल सकेगा।

    मंडल ने अपने सहायक मंत्री श्री इन्द्र सिंह को क्रिसमस के अवसर पर बंबई में आपसे मिलने और सारी स्थिति पर आपसे चर्चा करने के लिए नियुक्त किया है, जिससे आपको हमारे अनुरोध को स्वीकार करने के लिए राजी किया जा सके ।

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    मुझे बताया गया था कि जातपांत तोड़क मंडल सवर्ण हिन्दू समाज सुधारकों का एक संगठन है, जिसका एकमात्र उद्देश्य हिन्दुओं में जातिप्रथा का उन्मूलन करना है। सैद्धांतिक रूप से मैं ऐसे किसी आंदोलन में भाग लेना पसंद नहीं करता, जो सवर्ण हिन्दुओं द्वारा चलाया गया हो। सामाजिक सुधार के प्रति उनका रवैया मुझसे इतना भिन्न है कि मेरे लिए उनके साथ काम करना कठिन है। वास्तव में, मेरे और उनके विचारों में विभिन्नताओं के कारण मुझे उनके साथ काम करना अनुकूल नहीं लगता। इसलिए जब मंडल ने पहली बार मुझसे अध्यक्षता करने का अनुरोध किया था तो मैंने उसे अस्वीकार कर दिया था। फिर भी, मंडल ने इसे मेरी अस्वीकृति नहीं माना और अपने एक सदस्य को मुझ पर निमंत्रण स्वीकार करने के लिए दबाव डालने के उद्देश्य से बंबई भेजा। अंत में, मैं अध्यक्षता करने के लिए तैयार हो गया। वार्षिक सम्मेलन मंडल के मुख्यालय लाहौर में होना था। सम्मेलन का आयोजन ईस्टर के अवसर पर होना था, किन्तु बाद में इसे 1936 के मई मास के मध्य तक के लिए स्थगित कर दिया गया। मंडल की स्वागत समिति ने अब इस सम्मेलन को रद्द कर दिया है। इस सम्मेलन के रद्द होने की सूचना मेरे अध्यक्षीय भाषण के छप जाने के बहुत बाद में आई । इस भाषण की प्रतियां अब मेरे पास पड़ी हैं। चूंकि मुझे अध्यक्षीय पद से यह भाषण देने का अवसर नहीं मिला, इसलिए जनता को जातिप्रथा से उत्पन्न समस्याओं पर मेरे विचारों को जानने का अवसर नहीं मिल सका। जनता मेरे विचारों को जान सके और भाषण की जो छपी प्रतियां मेरे पास पड़ी हैं उनका सदुपयोग हो सके, इस उद्देश्य से मैंने छपी प्रतियों को बाजार में बेच देने का फैसला किया है। संलग्न पृष्ठों में उसी भाषण का मूल पाठ है।

    जनता को यह जानने की जिज्ञासा होगी कि किन कारणों से सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में मेरी नियुक्ति को रद्द किया गया। शुरू में भाषण की छपाई को लेकर विवाद खड़ा हुआ। मैं चाहता था कि भाषण बंबई में छपे । मंडल की यह इच्छा थी कि यह भाषण लाहौर में छपे, क्योंकि वहां छापने में बचत होगी। मैं इस पर सहमत नहीं हुआ और मैंने इसे बंबई में ही छापे जाने का आग्रह किया। मेरे प्रस्ताव पर सहमति बजाए, मुझे एक पत्र प्राप्त हुआ, जिस पर मंडल के कई सदस्यों के हस्ताक्षर थे। इसमें से आगे दिए गए उद्धरण मैं यहां प्रस्तुत करता हूं :

27-3-36

सम्मानीय डाक्टर जी,

    श्री संत राम को लिखे गए इस मास की 24 तारीख के आपके पत्र को हमें दिखाया गया है। हमें इसे पढ़कर थोड़ी निराशा हुई। यहां जो स्थिति उत्पन्न हुई है, शायद आप इससे पूरी तरह अवगत नहीं हैं। पंजाब के प्रायः सभी हिन्दू आपको इस प्रांत में आमंत्रित किए जाने के विरुद्ध हैं। जातपांत तोड़क मंडल की बड़ी तीखी आलोचना हुई है और सभी ओर से झाड़-फटकार मिली है। सभी हिन्दू नेताओं ने जिनमें भाई परमानंद, एम.एल.ए. (हिन्दू महासभा के पूर्व अध्यक्ष ), महात्मा हंसराज, डॉ. गोकल चंद नारंग (स्थानीय स्वशासन मंत्री), राजा नरेन्द्र नाथ, एम.एल.सी, आदि शामिल हैं, मंडल के इस निर्णय से अपने आपको अलग कर लिया है।

    इस सबके बावजूद, जातपांत तोड़क मंडल, जिसके प्रमुख नेता श्री संत राम हैं, के सभी सदस्य किसी भी स्थिति में एकजुट रहकर चलने के लिए दृढ़-प्रतिज्ञ हैं और अध्यक्ष- पद पर आपकी नियुक्ति के विचार को नहीं छोड़ेंगे। मंडल की बदनामी हुई है ।

*   *   *   *   *

    इन परिस्थितियों में आपका कर्तव्य हो जाता है कि आप मंडल के साथ सहयोग करें। ऐसे समय में जब उन्हें हिन्दुओं की ओर से बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है, आप भी उनकी परेशानियों को बढ़ाएं तो यह बहुत ही दुभाग्यपूर्ण होगा ।

हमें आशा है कि आप मामले पर विचार करेंगे और वही करेंगे, जिसमें हम सभी की भलाई हो ।

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     इस पत्र ने मुझे भारी परेशानी में डाल दिया है। मैं नहीं समझ पाया कि मंडल मेरे भाषण की छपाई के मामले में कुछ रुपयों की खातिर मुझे क्यों रुष्ट कर रहा है। मुझे इस पर भी विश्वास नहीं होता कि सर गोकल चंद नारंग जैसे व्यक्तियों ने मेरे अध्यक्ष चुने जाने के विरोध स्वरूप त्यागपत्र दे दिया है, क्योंकि मुझे सर गोकल चंद का निम्नलिखित पत्र प्राप्त हुआ है।

 

5. मोन्टगुमरी रोड,
लाहौर, 7-2-36

 

प्रिय डॉ. अम्बेडकर,

    मुझे जातपांत तोड़क मंडल के कार्यकर्ताओं से यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि आपने ईस्टर की छुट्टियों के दौरान लाहौर में होने वाले उनके आगामी वार्षिक सम्मेलन की अध्यक्षता करना स्वीकार कर लिया है। यदि आप लाहौर में अपने प्रवास के दौरान मेरे यहां ठहरें तो मुझे बड़ी प्रसन्न्ता होगी। शेष मिलने पर ।

आपका,
 गोकल चंद नारंग
 

    सच्चाई चाहे जो कुछ भी हो, मैं इस दबाव के आगे नहीं झुका। जब मंडल ने देखा कि मैं अपना भाषण बंबई में ही छपवाने के लिए बराबर आग्रह कर रहा हूं तो मंडल ने मेरे प्रस्ताव को स्वीकार करने की बजाए मुझे तार द्वारा सूचित किया कि वे श्री हर भगवान को 'इस मामले पर व्यक्तिगत रूप से बात करने के लिए बंबई भेज रहे हैं। श्री हर भगवान 9 अप्रैल को बंबई आए ।

    जब मैं श्री हर भगवान से मिला तो मैंने देखा कि वह इस मुद्दे पर कुछ भी नहीं कहना चाहते हैं। वास्तव में, उन्हें भाषण की छपाई से कोई लेना-देना नहीं था, चाहे वह बंबई में छपे या लाहौर में और इसीलिए विचार-विमर्श के दौरान इस बात का कोई उल्लेख भी नहीं किया। हां वह यह जानने के लिए उत्सुक थे कि भाषण की विषय- वस्तु क्या है। इससे मुझे विश्वास हो गया कि भाषण के लाहौर में छपवाने से मंडल का उद्देश्य धन बचाना नहीं, अपितु भाषण की विषय-वस्तु को जानना था। मैंने उन्हें भाषण की एक प्रति दे दी। वह भाषण के कुछ अंशों को देखकर प्रसन्न नहीं हुए। उन्होंने लाहौर पहुंच कर मुझे जो पत्र लिखा, वह इस प्रकार है :

लाहौर
14 अप्रैल, 1936


प्रिय डाक्टर साहेब,

     मैं 12 तारीख को बंबई से यहां लौटा हूं और तभी से मैं लगातार रेल में बताई 5-6 रातों तक सो न सकने के कारण अस्वस्थ हूं। यहां पहुंचने पर मुझे पता चला कि आप अमृतसर आए थे। यदि मैं बाहर आने-जाने के लिए ठीक रहता तो मैं वहां आपसे मिलता। मैंने आपका भाषण अनुवाद के लिए श्री संत राम को दे दिया है। उन्होंने इसे बहुत पंसद किया है, किन्तु उन्हें विश्वास नहीं है कि 25 तारीख से पहले इसे छापे जाने के लिए वह इसका अनुवाद कर सकेंगे। कुछ भी हो, इसका व्यापक प्रचार होगा और हमें विश्वास है कि यह सोए हुए हिन्दुओं को जगाएगा ।

    बंबई में जिस लेखांश की ओर मैंने संकेत किया था, उसे हमारे कुछ मित्रों ने पढ़ा। इस पर उनकी कुछ शंकाएं हैं और हममें से जो लोग बिना किसी अप्रिय घटना के सम्मेलन को समाप्त करना चाहते हैं, उनकी इच्छा है कि कम से कम वेद शब्द को फिलहाल छोड़ दिया जाए। इसका निर्णय मैं आप पर छोड़ता हूं। फिर भी, मुझे आशा है कि आप अपने अंतिम पैरे में इस बात को स्पष्ट करेंगे कि भाषण में व्याप्त विचार आपके अपने हैं और मंडल उनके लिए जिम्मेदार नहीं है। मुझे आशा है कि मेरी इस बात का आप अन्यथा न लेंगे और हमें भाषण की एक हजार प्रतियां उपलब्ध करा देंगे । हम अवश्य ही इनकी कीमत आपको चुका देंगे। इस आशय का एक तार आज मैंने आपको भेजा है। सौ रुपए का एक चैक इस पत्र के साथ संलग्न है। कृपया इसकी पावती भेजें और हमें यथासमय अपने बिल भी भेज दें।

    मैंने स्वागत समिति की एक बैठक बुलाई है। मैं उसके निर्णय से तत्काल आपको सूचित करूंगा। आपने भाषण को तैयार करने में जो भारी कष्ट उठाया है, उसके लिए कृपया मेरा हार्दिक धन्यवाद स्वीकार करें। आपकी कृतज्ञता के लिए हम निश्चय ही बहुत ऋणी हैं।

आपका
हर भगवान


    पुनःश्च, कृपया भाषण के छपते ही तत्काल उसकी प्रतियां यात्री गाड़ी से भेज दें, ताकि उन प्रतियों को प्रकाशन के लिए समाचार-पत्रों को भेज दिया जाए।

    तदनुसार मैंने एक हजार प्रतियां छापने के आदेश के साथ अपनी पांडुलिपि मुद्रक को सौंप दी। आठ दिन के बाद मुझे श्री हर भगवान का एक और पत्र प्राप्त हुआ, जिसकी प्रतिलिपि नीचे प्रस्तुत है :

लाहौर,
22.4.36


प्रिय डाक्टर अम्बेडकर,

     हमें आपका तार और पत्र प्राप्त हुआ। इसके लिए कृपया हमारा धन्यवाद स्वीकार करें। आपकी इच्छानुसार हमने सम्मेलन को फिर स्थगित कर दिया है, किन्तु हम महसूस करते हैं कि इसे 25 तथा 26 तारीख को आयोजित करना अधिक बेहतर होगा, क्योंकि पंजाब में मौसम दिन-प्रतिदिन गर्म होता जा रहा है। मई के मध्य में यहाँ बहुत गर्म हो जाएगा और दिन के समय बैठकें करना बहुत सुखद है और आरामदायक नहीं रहेगा। फिर भी, यदि यह सम्मेलन मई के मध्य में होता है तो हम इसे यथासंभव आरामदायक बनाने के लिए भरसक प्रयत्न करेंगे।

    किन्तु एक बात है, जिसे हम आपकी जानकारी में लाने के लिए विवश हैं। आपको याद होगा कि जब मैंने धर्म परिवर्तन के विषय पर आपकी घोषणा के संबंध में अपने कुछ लोगों द्वारा उठाई आशंकाओं की ओर आपका ध्यान आकर्षित किया था तो आपने बताया था कि यह बात निःसंदेह मंडल के कार्यक्षेत्र से बाहर है और उसके संबंध में आपका हमारे मंच से कुछ भी कहने का इरादा नहीं है। इसके साथ ही जब आपने भाषण की पांडुलिपि मुझे दी तो आपने आश्वासन दिया था कि वही आपके भाषण का मुख्य अंश है और आप केवल दो या तीन अंतिम पैरे उसमें जोड़ना चाहते हैं। आपके भाषण की दूसरी किस्त मिलने पर यह देखकर हम दंग रह गए कि यह भाषण इतना लंबा हो जाएगा कि बहुत कम लोग ही इस सारे भाषण को पढ़ना चाहेंगे। इसके अलावा, आपने अपने भाषण में एक से अधिक बार यह कहा है कि मैंने हिन्दू समाज से अलग होने का निर्णय कर लिया है और एक हिन्दू के रूप में यह मेरा अंतिम भाषण है। आपने अनावश्यक रूप से वेदों और हिन्दुओं के अन्य धार्मिक ग्रंथों की नैतिकता तथा उनके औचित्य पर प्रहार किया है और हिन्दू धर्म के तकनीकी पक्ष पर विस्तारपूर्वक चर्चा की है, जिनका विवादास्पद समस्या से कतई कोई संबंध नहीं है। इससे कुछ परिच्छेद तो असंगत और अप्रासंगिक हो गए हैं। यदि आप अपने भाषण को उसी अंश तक सीमित रखते, जो आपने मुझे दिया था या अगर उसमें कोई वृद्धि करना आवश्यक ही था तो वह भी वहीं तक सीमित रहती, जो आपने ब्राह्मणवाद आदि पर लिखा है, तो इससे हमें बड़ी प्रसन्नता होगी। अंतिम अंश जो हिन्दू धर्म के पूर्ण उन्मूलन के संबंध में है और हिन्दुओं के पवित्र ग्रंथों की नैतिकता पर संदेह व्यक्त करता है तथा हिन्दू समाज को छोड़ देने के आपके इरादे की ओर संकेत करता है, मुझे संगत प्रतीत नहीं होता ।

    अतः मैं सम्मेलन के लिए उत्तरदायी लोगों की ओर से बड़ी विनम्रता के साथ आपसे अनुरोध करता हूं कि आप ऊपर संदर्भित परिच्छेदों को छोड़ दें और भाषण को वहीं समाप्त कर दें, जहां तक आपने मुझे दिया था, या आप चाहें तो ब्राह्मणवाद तक कुछ पैरे उसमें जोड़ दें। हम नहीं समझते कि भाषण को अनावश्यक रूप से उत्तेजनात्मक और कष्टकारी बनाने में कोई बुद्धिमानी है। हममें से कई लोग आपकी भावनाओं का समर्थन करते हैं और हिन्दू धर्म के पुनर्निर्माण हेतु आपका मार्गदर्शन चाहते हैं। यदि आप अपने विचारों के लोगों को आपस में मिलाने का निर्णय करते तो बड़ी संख्या में लोग आपके सुधारवादी कार्यकर्ताओं में शामिल हो जाते।

    वास्तव में, हमने सोचा था कि आप जातिप्रथा की बुराइयों को समाप्त करने में हमारा मार्ग-दर्शन करेंगे, विशेषकर जब आपने इस विषय का इतना गहन अध्ययन किया है। हमारा विचार था कि आप एक क्रांति लाकर इस दिशा में किए जा रहे महान प्रयासों के केंद्र बिन्दु बनकर हमारे हाथ मजबूत करेंगे, किन्तु आपने घोषणा जिस रूप में की है, उसके दोहराए जाने से इसकी शक्ति समाप्त हो जाती है और यह एक घिसी-पिटी चीज बनकर रह जाती है। ऐसी परिस्थितियों में मैं आपसे अनुरोध करूंगा कि आप सारे मामले पर फिर से विचार करें और यह कहकर अपने भाषण को अधिक प्रभावी बनाएं कि यदि हिन्दू लोग जातिप्रथा को समाप्त करने की दिशा में ईमानदारी से काम करने के इच्छुक हैं, चाहे उन्हें इसके लिए अपने सगे-संबंधियों और धार्मिक मान्यताओं को ही तिलांजलि क्यों न देनी पड़े, तो मुझे इस कार्य की अगुवाई करने में प्रसन्नता होगी।' यदि आप ऐसा करते हैं तो मुझे आशा है कि आपको ऐसे प्रयास में पंजाब से तत्काल अनुकूल प्रतिक्रिया प्राप्त होगी ।

     यदि आप ऐसे समय पर हमारी सहायता करेंगे तो मैं आपका आभारी रहूंगा, क्योंकि हम पहले ही भारी खर्च कर चुके हैं और बड़े असमंजस की स्थिति में हैं। कृपया हमें वापसी डाक से सूचित करें कि क्या आपने भाषण को उपर्युक्तानुसार सीमित करने की कृपा की है। यदि आप फिर भी भाषण को संपूर्ण रूप में छापने का आग्रह करते हैं, तो हमें खेद है कि हमारे लिए सम्मेलन का आयोजन करना संभव और कदाचित उपयुक्त नहीं होगा और हम चाहेंगे कि इसे अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया जाए। हालांकि ऐसा करने में हमें लोगों की सद्भावना से हाथ धोना पड़ेगा, क्योंकि यह सम्मेलन बार-बार स्थगित करना पड़ा है। फिर भी हम यह उल्लेख करना चाहते हैं कि आपने जातिप्रथा पर ऐसा बढ़िया प्रबंध लिखकर हमारे हृदय में एक स्थान बना लिया है। मैं कह सकता हूं कि यह अब तक लिखे गए अन्य सभी शोध प्रबंधों से बढ़कर है और यह एक मूल्यवान विरासत के रूप में सिद्ध होगा। आपने इसके तैयार करने में जो कष्ट उठाया है, उसके लिए हम सदा आपके ऋणी रहेंगे।

    आपकी कृपा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद ।

    शुभकामनाओं सहित,

आपका
हर भगवान


    इस पत्र के उत्तर में मैंने जो उत्तर भेजा, वह इस प्रकार है  :

27 अप्रैल, 1936

प्रिय श्री हर भगवान,

     मुझे आपका 22 अप्रैल का पत्र प्राप्त हुआ। मुझे खेद है कि यदि मैंने अपने भाषण को संपूर्ण रूप में छापे जाने का आग्रह किया तो जातपांत तोड़क मंडल की स्वागत समिति "सम्मेलन को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर देगी। इसके उत्तर में मैं सूचित करना चाहता हूं कि यदि मंडल मेरे भाषण में अपनी परिस्थितियों के अनुकूल काट-छांट करने पर जोर देगा तो मैं भी सम्मेलन को रद्द कराना चाहूंगा। मैं अस्पष्ट शब्दों का प्रयोग करना पसंद नहीं करता। आप मेर इस निर्णय को पसंद नहीं करेंगे, किन्तु मैं सम्मेलन की अध्यक्षता करने के सम्मान की खातिर उस आजादी का परित्याग नहीं कर सकता, जो प्रत्येक अध्यक्ष को अपने भाषण को तैयार करने में मिलनी चाहिए । मैं मंडल को खुश करने के लिए अपने उस कर्तव्य को भी तिलांजलि नहीं दे सकता, जो किसी सम्मेलन की अध्यक्षता करने वाले व्यक्ति को सही और उचित मार्गदर्शन करने के लिए प्राप्त होती है। यह एक सिद्धांत का प्रश्न है और मैं महसूस करता हूं कि मुझे किसी भी प्रकार से इससे समझौता नहीं करना चाहिए ।

    स्वागत समिति ने जो निर्णय लिया है, मैं उसके औचित्य के बारे में किसी विवाद में नहीं पड़ता चाहता था, किन्तु चूंकि आपने ऐसे कुछ कारण दिए हैं जिनसे मुझ पर दोष आरोपित होता है, इसलिए मै उनका उत्तर देने के लिए बाध्य हूं। सर्वप्रथम, मुझे उस धारणा को दूर कर देना चाहिए कि भाषण के उस अंश में व्यक्त विचार, जिन पर समिति ने आपत्ति की हैं, मंडल के सामने अचानक ही उपस्थित हुए हैं। मुझे विश्वास है। कि श्री संत राम इस बात की पुष्टि करेंगे। मेरा कहना है कि उनके एक पत्र के उत्तर में मैंने कहा था कि जातिप्रथा को तोड़ने का वास्तविक तरीका अंतर्जातीय भोज और अंतर्जातीय विवाह नहीं है, बल्कि उन धार्मिक धारणाओं को नष्ट करना है, जिन पर जातिप्रथा की नींव रखी गई है और श्री संत राम ने इसके प्रत्युत्तर में मुझसे उस बात को स्पष्ट करने को कहा था और माना था कि यह एक नवीन दृष्टिकोण है। श्री संत राम के इस अनुरोध के उत्तर में मैंने सोचा कि उनको लिखे गए अपने पत्र के एक वाक्य में जो बात मैंने कही थी, उसे अपने भाषण में विस्तार से समझा देना चाहिए। इसलिए आप यह नहीं कह सकते कि जो विचार मैंने व्यक्त किए हैं, वे नए हैं। किसी भी प्रकार से ये विचार श्री संत राम, जो आपके मंडल की जान और उसके प्रमुख मार्गदर्शक हैं, के लिए नए नहीं हैं, परंतु मैं इससे भी आगे यह कहता हूं कि मैंने अपने भाषण का यह अंश केवल इसलिए नहीं लिखा है कि मैंने ऐसा करना वांछनीय समझा है, बल्कि इसलिए लिखा है कि तर्क को पूरा करने के लिए ऐसा करना नितांत आवश्यक है। मुझे यह पढ़कर आश्चर्य हुआ कि भाषण के जिस अंश पर आपकी समिति को आपत्ति है, उसे आप "अंसगत और अप्रासंगिक" बताते हैं। मैं बताना चाहता हूं कि मैं एक वकील हूं और प्रासंगिकता के नियमों को उतनी अच्छी तरह जानता हूं, जितना आपकी समिति का कोई सदस्य जानता है मैं जोर देकर कहता हूं कि जिस अंश पर आपत्ति की गई है, वह न केवल सबसे अधिक प्रासंगिक है, बल्कि महत्वपूर्ण भी है। भाषण के उसी अंश में मैंने जातिप्रथा को नष्ट करने के सर्वोत्तम उपायों का विवेचन किया है। यह हो सकता है कि मैं जातिप्रथा को नष्ट करने के सर्वोत्तम उपाय के रूप में जिस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं, वह चौंकाने वाला और कष्टकारी हो । आपको यह कहने का अधिकार है कि मेरा विश्लेषण गलत है। किन्तु आप यह नहीं कह सकते कि जातिप्रथा की समस्या से संबंधित किसी भाषण में मुझे इस बात की छूट नहीं है कि मैं इस मुद्दे पर विचार करूं कि जातिप्रथा को कैसे नष्ट किया जा सकता है।

     आपकी अन्य शिकायत भाषण की लंबाई को लेकर है। मैंने स्वयं भाषण में ही इस आरोप के दोष को स्वीकार किया है। किन्तु इसके लिए वास्तविक जिम्मेदार कौन है ? मुझे खेद है कि आप से देर में संपर्क हुआ, नहीं तो आपको इस बात की जानकारी हो जाती कि मूल रूप से मैंने अपनी ही सुविधा के लिए एक संक्षिप्त भाषण लिखा था, क्योंकि एक विस्तृत शोध-प्रबंध तैयार करने का न तो मेरे पास समय ही था, और न ही शक्ति थी। मंडल ने ही मुझसे इस विषय पर विस्तार से प्रकाश डालने का अनुरोध किया था और मंडल ने ही जातिप्रथा के संबंध में प्रश्नों की एक सूची मुझे दी थी तथा मुझसे अनुरोध किया था कि मैं अपने भाषण में इनका उत्तर दूं, क्योंकि प्रायः इन्हीं प्रश्नों को मंडल तथा उसके विरोधियों के बीच विवाद में उठाया जाता है और मंडल को इनका संतोषजनक उत्तर देने में कठिनाई होती है। इस संबंध में मंडल की इच्छाओं की पूर्ति करने के प्रयास में भाषण इस सीमा तक लंबा हो गया है। जो कुछ मैंने कहा है, उसे देखते हुए मुझे विश्वास है कि आप इस बात से सहमत होंगे कि भाषण के लंबा होने का दोष मेरा नहीं है।

     मुझे यह आशा नहीं थी कि आपका मंडल इससे इतना परेशान होगा, क्योंकि मैंने हिन्दू धर्म के विनाश की बात कही है। मैं समझता था कि केवल मुर्ख ही शब्दों से घबराते हैं। किन्तु ऐसा न हो कि लोगों के मन में कोई गलत धारणा उत्पन्न हो, इसके लिए मैंने इस बात को स्पष्ट करने का भारी प्रयास किया है कि धर्म और धर्म के विनाश से मेरा क्या अभिप्रायः है। मुझे विश्वास है कि मेरा भाषण पढ़ने के बाद कोई भी व्यक्ति मुझे गलत नहीं समझ सकेगा। साथ में दिए गए स्पष्टीकरण के बावजूद आपका मंडल मात्र 'धर्म के विनाश आदि शब्दों से इतना भयभीत हो गया, इससे मंडल के प्रति मेरी श्रद्धा में कोई वृद्धि नहीं हुई। ऐसे व्यक्तियों के प्रति किसी को भी कोई श्रद्धा या सम्मान नहीं हो सकता, जो सुधारक बनकर भी उस स्थिति के तर्कपूर्ण परिणामों को देखना भी पसंद नहीं करते। इन्हें अकेला ही चलने दो।

    आप मानेंगे कि मैंने अपने भाषण को तैयार करने में किसी भी प्रकार से सीमित होना कभी स्वीकार नहीं किया और इस प्रश्न पर कि भाषण में क्या होना चाहिए और क्या नहीं, मेरे और मंडल के बीच विचार-विमर्श नहीं हुआ। मैं सदा यह मानकर चला हूं कि मैं अपने भाषण में उस विषय पर अपने विचारों को व्यक्त करने में स्वतंत्र हूं। वास्तव में, 9 अप्रैल को बंबई में आपके आने तक मंडल को यह पता नहीं था कि किस प्रकार का भाषण तैयार कर रहा हूं। आप जब बंबई आए तो मैंने स्वेच्छा से बताया था कि मुझे इस बात की कोई इच्छा नहीं है कि मैं दलित जातियों द्वारा धर्मांतरण के संबंध में अपने विचारों की वकालत करने के लिए मंच का उपयोग करूं। मैं समझता हूं कि मैंने भाषण को तैयार करने में ईमानदारी से उस वायदे को निभाया है । अप्रत्यक्ष रूप से एक सरसरी तौर पर दिए गए इस संदर्भ के अलावा कि 'मुझे अफसोस है कि मै। यहां नहीं रहूंगा.....आदि मैंने अपने भाषण में विषय के बारे में कुछ नहीं कहा है। जब मैं यह देखता हूं कि आपको इस प्रकार के सरसरी और इतने अप्रत्यक्ष संदर्भ पर भी आपत्ति है तो मैं यह प्रश्न पूछने के लिए बाध्य हूं कि क्या आपने यह सोचा है कि मैं आपके सम्मेलन की अध्यक्षता करने की खातिर दलित वर्गों द्वारा धर्म-परिवर्तन संबंधी अपने विचारों को छोड़ने या स्थगित रखने के लिए सहमत हो जाऊंगा? यदि आपने ऐसा सोचा है; तो मैं आपसे कहूंगा कि यह आपकी भूल है और इसके लिए मैं किसी भी प्रकार से जिम्मेदार नहीं हूं। यदि आपमें से कोई इस बात का संकेत भी कर देता है कि आप मुझे अध्यक्ष चुनकर जो सम्मान दे रहे हैं, उसके बदले में मुझे धर्म-परिवर्तन के अपने कार्यक्रम में अपने विश्वास का संत्याग करना पड़ेगा, तो मैं आपको स्पष्ट शब्दों में बता देता कि मुझे आपके द्वारा दिए जाने वाले किसी सम्मान की अपेक्षा, अपने विश्वास की कहीं अधिक परवाह है।

    आपके 14 तारीख के पत्र के बाद आपका यह पत्र मेरे लिए एक आश्चर्य है । मुझे विश्वास है कि जो कोई भी इन्हें पढ़ेगा, ऐसा ही महसूस करेगा। स्वागत समिति द्वारा इस प्रकार के अचानक अपने रुख में परिवर्तन करने के लिए मैं उत्तरदायी नहीं हो सकता। जब 14 तारीख को आपने पत्र लिखा था तो उस समय समिति के सामने जो कच्चा प्रारूप था, उसमें और अंतिम प्रारूप, जिस पर आपने अपने पत्र में स्वागत समिति का निर्णय सूचित किया था, के सार रूप में कोई अंतर नहीं है। आप अंतिम प्रारूप  में एक भी ऐसा नया विचार नहीं बता सकते, जो पहले वाले प्रारूप में न हो। वे ही समान विचार हैं। अंतर केवल यह है कि उन्हें अंतिम प्रारूप में अधिक विस्तार के साथ रखा गया है। यदि भाषण में कोई आपत्तिजनक बात थी तो आप उसे 14 तारीख को बता सकते थे। किन्तु आपने ऐसा नहीं किया। उल्टे आपने मुझसे एक हजार प्रतियां छपवाने के लिए कहा और यह बात मुझ पर छोड़ दी कि मैं आपके द्वारा सुझाए गए मौलिक परिवर्तनों को स्वीकार करूं या न करूं। तदनुसार, मैंने एक हजार प्रतियां छपवा लीं, जो अब मेरे पास पड़ी हैं। आठ दिन बाद आप यह बताने के लिए लिखते हैं कि आपको भाषण पर ऐतराज है और यदि उसमें संशोधन नहीं किया गया, तो सम्मेलन रद्द कर दिया जाएगा। आपको ज्ञात होना चाहिए था कि भाषण में परिवर्तन की कोई आशा नहीं है। जब आप बंबई में थे तो मैंने आपको बताया था कि मैं उसमें एक विराम का भी परिवर्तन नहीं करूंगा और अपने भाषण को किसी भी तरह सेंसर किए जाने की अनुमति नहीं दूंगा। आपको मेरे भाषण को जैसा वह मेरे पास से आयेगा, वैसा ही स्वीकार करना होगा। मैंने आपको यह भी कहा था कि भाषण में व्यक्त विचारों की जिम्मेदारी पूर्णतः मेरी होगी और यदि सम्मेलन उन्हें पसंद नहीं करेगा और उनकी निंदा करने का प्रस्ताव पास करेगा कोई हर्ज न होगा। मैं आपके मंडल को अपने विचारों की जिम्मेदारी के भार से मुक्त करने और साथ ही अपने आपको सम्मेलन के साथ अधिक न उलझाने के लिए इतना आतुर था कि मैंने आपको सुझाव दिया था कि मेरी इच्छा है। कि मेरे भाषण को अध्यक्षीय भाषण के रूप में नहीं, बल्कि उद्घाटन भाषण के रूप में माना जाए और मंडल की अध्यक्षता के लिए किसी और व्यक्ति की तलाश कर लें तथा प्रस्तावों से निबट लें। 14 तारीख को आपकी समिति के अलावा और कोई भी व्यक्ति निर्णय लेने की बेहतर स्थिति में नहीं था । किन्तु समिति ऐसा नहीं कर सकी और इस दौरान मुझे छपाई की लागत उठानी पड़ गई, जिसे मुझे विश्वास है कि आपकी समिति को थोड़ी अधिक दृढ़ता से बचाया जा सकता था ।

    मेरा विश्वास है कि मेरे भाषण में जो विचार व्यक्त किए गए हैं, उनकी आपकी समिति से कोई लेना-देना नहीं है। अनेक कारणों से मुझे विश्वास करना पड़ रहा है कि अमृतसर में आयोजित सिख प्रचार कांग्रेस में मेरी मौजूदगी स्वागत समिति द्वारा किए गए निर्णय का एक बड़ा कारण थी। समिति ने 14 और 22 अप्रैल के बीच अपने रुख में जो अचानक परिवर्तन किया, उसका और कोई संतोषजनक स्पष्टीकरण नहीं हो सकता। फिर भी, मैं अब इस विवाद को अधिक लंबा नहीं खींचना चाहता और आपसे अनुरोध करता हूं कि आप तत्काल घोषणा कर दें कि मेरी अध्यक्षता में होने वाले सम्मेलन का अधिवेशन रद्द हो गया है। अब सारी गरिमा समाप्त हो चुकी है और यदि आपकी समिति मेरे भाषण को इसके वर्तमान संपूर्ण रूप में स्वीकार करने के लिए सहमत भी हो जाए, तब भी मैं इसकी अध्यक्षता नहीं करूंगा। भाषण तैयार करने में उठाए गए मेरे कष्टों के लिए आपने जो सराहना की है, उसके लिए मैं धन्यवाद देता हूं। अगर किसी को नहीं तो मुझे इस श्रम से निश्चय ही लाभ मिला है। मुझे खेद केवल इसलिए है कि मुझे ऐसे समय पर इतना कठोर परिश्रम करना पड़ा, जिसे मेरा स्वास्थ्य सहन नहीं कर सकता था।

आपका

भीमराव अम्बेडकर

 

     इस पत्राचार से उन कारणों का पता चल जाएगा, जिनकी वजह से मंडल द्वारा अध्यक्ष के रूप में मेरी नियुक्ति रद्द की गई थी और पाठक यह जानने की स्थिति में होंगे कि इसका दोष किसको दिया जाना उचित है। मैं समझता हूं कि यह पहला अवसर है जब कि स्वागत समिति द्वारा किसी अध्यक्ष की नियुक्ति को इसलिए रद्द किया गया है, क्योंकि वह अध्यक्ष के विचारों का अनुमोदन नहीं करती। चाहे ऐसा हो या न हो, किन्तु निश्चय ही मेरे जीवन में यह पहला अवसर है, जब कि सवर्ण हिन्दुओं के किसी सम्मेलन की अध्यक्षता करने के लिए मुझे आमंत्रित किया गया था। मुझे अफसोस है कि एक त्रासदी में इसका अंत हुआ। किन्तु ऐसे कठोर संबंधों से कोई भी क्या आशा कर सकता है, जहां सवर्ण हिन्दुओं के सुधारवादी और अछूतों के आत्म-सम्मानी वर्ग के बीच संबंध इतने कठोर हों कि सवर्ण हिन्दुओं को अपने कट्टरपंथी साथियों से अलग होने की कोई इच्छा न हो और आत्म-सम्मानी अछूत वर्ग के पास सुधारों पर जोर देने के अलावा कोई विकल्प न हो।

राजगृह, दादर, बंबई. 14,
15 मई, 1936

भीमराव अम्बेडकर



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