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भाषावार राज्यों के संबंध में विचार - डॉ. भीमराव अम्बेडकर

1955 में पहली बार प्रकाशित 1955 में संस्करण का पुनर्मुद्रण

प्रस्तावना

     भाषायी राज्यों का निर्माण आज एक ज्वलंत प्रश्न है। मुझे खेद है कि बीमारी के कारण मैं उस बहस में भाग नहीं ले सका, जो संसद में हुई थी । न ही मैं उस अभियान में सम्मिलित हो सका, जो देश में लोगों ने अपनी-अपनी विचारधारा के समर्थन में चलाया था। यह प्रश्न इतना महत्वपूर्ण है कि मैं इसका मूल दर्शक नहीं रह सकता । अनेक लोगों ने बिना कारण जाने मुझे पर चुप्पी साधने का दोष लगाया है। इसलिए मैंने दूसरा विकल्प अपनाया है, यानी यह कि मैं अपने विचार लिखित रूप में व्यक्त करूं ।

Thoughts on Linguistic States Book by Dr Bhimrao Ramji Ambedka

    संभव है कि इस पुस्तिका में प्रस्तुत मेरे विचारों और उन सार्वजनिक वक्तव्यों में जो मैंने विगत में दिए हैं, पाठकों को कुछ असंगतियां दिखाई दें। लेकिन मुझे विश्वास है। कि मेरे दृष्टिकोण से इस प्रकार के परिवर्तन बहुत ही कम हुए हैं। पहले मैंने जो बयान दिए हैं, वे बिखरे हुए आंकड़ों पर आधारित थे। उस समय इस मसले की पूरी तस्वीर मेरे मस्तिष्क में नहीं थी। इस पर पहली बार मेरी दृष्टि तब पड़ी, जब राज्य पुनर्गठन आयोग की रिपोर्ट प्रकाशित हुई। आलोचकों को मेरे विचारों में जो भी परिवर्तन दिखाई दे, उसका यही औचित्य है।

    ऐसे आलोचक के लिए जिसका रवैया शत्रुतापूर्ण है और जो द्वेषभाव रखता है तथा जो मेरे वक्तव्यों की असंगतियों का अनुचित लाभ उठाना चाहता है, मेरा उत्तर सीधा - सच्चा है। इमरसन ने कहा था कि हठ करना गधे का स्वभाव है और मैं गंधा नहीं कहलाना चाहता। कोई भी विचारशील व्यक्ति दृढ़ता के नाम पर किसी ऐसे मत से बंधा नहीं रह सकता, जो एक बार व्यक्त कर दिया गया हो। दृढ़ता से कहीं अधिक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती है। जिम्मेदार व्यक्ति में यह खूबी होनी चाहिए कि जो कुछ उसने सीखा है, उसे भुलाना भी सीख सके। हर जिम्मेदार व्यक्ति में पुनर्विचार करने और अपने विचारों में परिवर्तन लाने का साहस होना चाहिए। यह सही है कि जो कुछ उसने सीखा है, उसे भुला देने और अपने विचारों को नया रूप देने के लिए समुचित तथा पर्याप्त कारणों का होना जरूरी है । सोच-विचार में किसी प्रकार के अंतिम शब्द की गुंजाइश नहीं हो सकती।

    भाषावार राज्यों का गठन कितना ही आवश्यक हो, उसका निर्णय किसी प्रकार की जोर-जबरदस्ती से नहीं किया जा सकता। न ही वह किसी ऐसे ढंग से किया जाना चाहिए, जिससे केवल दलगत हित ही सिद्ध होता हो। इसका समाधान निर्मम तर्कणा से किया जाना चाहिए। मैंने यही किया है और मैं चाहता हूं कि ऐसा ही मेरे पाठक करें।

भीमराव अम्बेडकर

23 दिसम्बर, 1995,
मिलिंद महाविद्यालय,
नागसेन वन, कालिज मार्ग,
औरंगाबाद (दक्षिण)



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