Phule Shahu Ambedkar फुले - शाहू - आंबेडकर
Phule Shahu Ambedkar
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लाहौर जातपांत तोड़क मंडल १९३६ के वार्षिक सम्मेलन के लिए डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा तैयार किया गया भाषण

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    जातिप्रथा से आर्थिक उन्नति नहीं होती। जातिप्रथा से न तो नस्ल या प्रजाति में सुधार हुआ है और न ही होगा। लेकिन इससे एक बात अवश्य सिद्ध हुई है कि इससे हिन्दू समाज पूरी तरह छिन्न-भिन्न और हताश हो गया है।

    सबसे पहले हमें यह महत्वपूर्ण तथ्य समझना होगा कि हिन्दू समाज एक मिथक मात्र हैं हिन्दू नाम स्वयं विदेशी नाम है। यह नाम मुसलमानों ने भारतवासियों को दिया था, ताकि वे उन्हें अपने से अलग कर सकें। मुसलमानों के भारत पर आक्रमण से पहले लिखे गए किसी भी संस्कृत ग्रंथ में इस नाम का उल्लेख नहीं मिलता। उन्हें अपने लिए किसी समान नाम की जरूरत महसूस नहीं हुई थी, क्योंकि उन्हें ऐसा नहीं लगता था कि वे किसी विशेष समुदाय के हैं। वस्तुतः हिन्दू समाज नामक कोई वस्तु है ही नहीं यह अनेक जातियों का समवेत रूप है। प्रत्येक जाति अपने अस्तित्व से परिचित है। वह अपने सभी समुदायों में व्याप्त है और सबको स्वयं में समाविष्ट किए हुए है और इसी में उसका अस्तित्व है। जातियों का कोई मिला जुला संघ भी नहीं है। किसी भी जाति को यह महसूस नहीं होता कि वह अन्य जातियों से जुड़ी हुई है सिर्फ उस समय को छोड़कर, जब हिन्दू-मुस्लिम दंगे होते हैं। अन्य सभी अवसरों पर तो प्रत्येक जाति यह कोशिश करती है कि वह अपनी अलग सत्ता को ठीक से बनाए रखे ओर दूसरों से स्पष्ट रूप से अलग रहे। प्रत्येक जाति अपनों में ही खान-पान और शादी ब्याह का संबंध रखती है, यहां तक कि हर जाति अपना एक अलग पहनावा तक निश्चित करती है। इस बात से अलग दूसरा कारण क्या हो सकता है कि भारत के नर-नारी असंख्य किस्मों के परिधान पहनते हैं, जो कि पर्यटकों के लिए हैरानी का कारण है। दरअसल, हर आदर्श हिन्दू उस चूहे की तरह है जो अपने ही बिल में घुसा रहता है और दूसरों के संपर्क में नहीं आना चाहता। हिन्दुओं में उस चेतना का सर्वथा अभाव है, जिसे समाजविज्ञानी - 'समग्र वर्ग की चेतना' कहते हैं। उनकी चेतना समग्र वर्ग से संबंधित नहीं है। हरके हिन्दू में जो चेतना पाई जाती है, वह उसकी अपनी ही जाति के बारे में होती है। किसी कारण यह कहा जाता है कि हिन्दू लोग अपना समाज या राष्ट्र नहीं बना सकते। लेकिन अनेक भारतीयों की देशभक्ति की भावना उन्हें यह मानने की अनुमति नहीं देती कि वे एक राष्ट्र नहीं है अथवा वह विभिन्न समुदायों का मात्र एक अव्यवस्थित समूह है। वे इस पर आग्रह करते हैं कि ऊपर से अलग-अलग दिखने वाली हमारी जनता में एक मूलभूत एकता है, जो हिन्दुओं के जीवन की विशेषता है, क्योंकि उनकी आदतों, प्रथाओं, विश्वासों ओर विचारों में एकरूपता है, जो भारत में सर्वत्र दृष्टिगत होती है। इसमें संदेह नहीं कि उनके स्वभाव, रीति-रिवाजों, धारणाओं और विचारों में समानता है, लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकाल लेना स्वीकार्य नहीं होगा कि हिन्दू जनता को हिन्दू समाज की स्थिति प्राप्त है, ऐसा मान लेने का अर्थ है - समाज रचना के अपरिहार्य तत्त्वों को सही रूप में न समझना। केवल भौतिक दृष्टि से पास-पास रहने के कारण लोगों को उस व्यक्ति से अधिक समाज की संज्ञा नहीं दी जा सकती जो अपने समाज से मीलों दूर रहने पर अपने समाज का सदस्य नहीं रहता है। दूसरी बात यह है कि केवल आदतों, रीति-रिवाजों, धारणाओं और विचारों की समानता होने से ही व्यक्तियों को 'समाज' नहीं कहा जा सकता। चीजें भौतिक रूप से एक से दूसरे व्यक्ति के पास पहुंच सकती हैं जैसे ईंटें इसी तरह एक समुदाय की आदतें, रीति-रिवाज धारणाएं और विचार भी दूसरे समुदाय द्वारा अपनाए जा सकते हैं और इस तरह दोनों समुदायों में समानता प्रतीत हो ।

    संस्कृति विकीर्ण होकर फैलती है और इसी कारण पास-पास न रहते हुए भी अनेक आदिम जातियों की आदतों, रीति-रिवाजों, धारणाओं और विचारों में समानता दिखाई देती हैं। लेकिन कोई यह नहीं कह सकता क्योंकि इन आदिम जातियों में समानता है, इसलिए उनका एक समाज है। कुछ बातों में समानता एक समाज के निर्माण के लिए पर्याप्त नहीं है। लोग एक समाज का निर्माण करते हैं, क्योंकि वे समान रूप से व्यवहार करते हैं। व्यवहार में समभाव का होना समानुरूप से व्यवहार करने से सर्वथा भिन्न है। चीजों को समभाव रूप में अपनाने का एकमात्र उपाय यही है कि सभी का एक-दूसरे से पूरा-पूरा संपर्क रहे। इसी बात को दूसरे ढंग से कह सकते हैं कि समाज आपसी संपर्क और आपसी संवाद को सतत जारी रखकर ही अपने अस्तित्व को बनाए रखता है। मूर्तरूप से कहा जाए तो सिर्फ यही काफी नहीं है कि सभी लोग वैसे ही आचरण करें, जैसे अन्य लोग कर रहे हैं। अगर अलग-अलग लोग एक जैसा ही सब कुछ कर रहे हैं, तो भी उन्हें उसी समाज के अंग नहीं माना जा सकता। यह इससे सिद्ध होता है कि हिन्दुओं की विभिन्न जातियों के लोग एक से ही त्यौहार मनाते हैं। लेकिन अलग-अलग जातियों द्वारा उन्हीं त्यौहार के मनाए जाते रहने के बावजूद वे एक समाज में नहीं बंध पाए हैं। इसके लिए यह अनिवार्य है कि सभी लोग किसी सामूहिक कार्य में इस प्रकार मिल-जुलकर बराबरी से हिस्सा लें या भागीदारी करें कि उन सभी में भी वे ही भाव हों जिनसे शेष अन्य लोग अनुप्रमणित होते हैं। लोगों को जो चीज आपस में एक सूत्र में बांधती है और उन्हें एक समाज में पूरी तरह शामिल करती है, वह यह हैं कि हरेक व्यक्ति को सामाजिक गतिविधियों में इस तरह हिस्सेदार या भागीदार बनाया जाए, ताकि उसकी सफलता में उसे स्वयं अपनी सफलता और उसकी विफलता में अपनी विफलता दिखाई दे । जातिप्रथा इस प्रकार की सामूहिक गतिविधियों का आयोजन नहीं होने देती और सामूहिक गतिविधियों को इस प्रकार वर्जित करके ही उसने हिन्दुओं को एक ऐसे समाज के रूप में उभरने से रोका है, जिसमें सभी समुदाय एक होकर जिएं और उनमें एक ही चेतना व्याप्त हो जाए ।

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     हिन्दू लोग प्रायः यह शिकायत करते हैं समाज में अलग से असामाजिक तत्त्वों का कोई दल है जो असामाजिक बुराईयों या भावना का कारण है, लेकिन वे अपनी सुविधा के लिए यह भूल जाते हैं कि यह असामाजिक भावना उनकी अपनी जातिप्रथा का ही एक सबसे घृणित पक्ष है। एक जाति के लोग आनंद लेकर ऐसे गीत गाते हैं, जिनमें दूसरी जाति के प्रति नफरत छिपी रहती है। पिछले विश्व युद्ध में जर्मन लोगों ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध ऐसे ही अपमान भरे गीत गाए थे। हिन्दुओं के साहित्य में जाति विशेषों के उद्गम के संबंध में ऐसे अनेक गीत आदि हैं, जिनमें एक जाति को सर्वोच्च और दूसरी को निंदा का पात्र बनाने का प्रयास किया गया है। ऐसे साहित्य का एक घृणित नमूना 'सह्याद्रिखंड है। यह असामाजिक भावना जाति तक ही सीमित नहीं है। इसकी जड़ें और भी गहरी हैं और इसने उप-जातियों के आपसी संबंधों को भी विकृत कर दिया है। मेरे अपने प्रांत में स्वयं ब्राह्मणों की ही अनेक उप-शाखाएं हैं, जैसे गोलक ब्राह्मण, देवरुख ब्राह्मण, कराड ब्राह्मण, पाल्श ब्राह्मण और चितपावन ब्राह्मण। लेकिन इनमें परस्पर जो असामाजिकता की भावना है, वह उतनी ही अधिक एवं उतनी ही उग्र है, जैसे कि ब्राह्मणों और अन्य गैर-ब्राह्मण जातियों के बीच में है। लेकिन इसमें कोई विचित्रता नहीं है। जब भी कोई समुदाय अपने स्वार्थ से प्रेरित हो जाता है तो उसमें असामाजिकता की भावना उत्पन्न हो जाती है। इसके कारण वह समुदाय अन्य समुदायों से पूरा संवाद और संपर्क करना बंद कर देता है, क्योंकि वह अपने स्वार्थ की सुरक्षा करना ही अपना उद्देश्य मान बैठता है। यह असामाजिक भावना, अर्थात् अपने स्वार्थ की रक्षा की भावना ही विभिन्न जातियों के एक-दूसरे से अलग होने का एक वैसा ही विशिष्ट लक्षण है, जैसा कि अलग-अलग राष्ट्रों का ब्राह्मणों का मुख्य उद्देश्य यह है कि गैर-ब्राह्मणों के विरुद्ध अपने स्वार्थ की रक्षा करें और गैर-ब्राह्मणों का मुख्य उद्देश्य यह है कि ब्राह्मणों के विरुद्ध अपने स्वार्थ की रक्षा करें। इसलिए हिन्दू समुदाय विभिन्न जातियों का एक संग्रह मात्र नहीं है, बल्कि वह शत्रुओं का समुदाय है। उसका हर विरोधी वर्ग स्वयं अपने लिए और अपने स्वार्थपूर्ण उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही जीवित रहना चाहता है। इस जातिप्रथा का एक और निंदनीय पक्ष भी है। अंग्रेजों के पूर्वजों ने 'वार ऑफ द रोजेज' और 'क्रॉमवेलियन वार' से एक पक्ष की ओर से या दूसरे पक्ष की ओर से (युद्ध में) भाग लिया था। लेकिन जिन लोगों ने इनमें से किसी एक के पक्ष में युद्ध में भाग लिया, उनके आज के वंशज दूसरे पक्ष की आरे से भाग लेने वालों के वंशजों के विरुद्ध किसी प्रकार की बदले की भावना नहीं रखते। वे इस आपसी लड़ाई को भूल चुके हैं। लेकिन आजकल के गैर-ब्राह्मण आजकल के ब्राह्मणों को इसलिए क्षमा नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि उनके पूर्वजों ने शिवाजी का अपमान किया था। इसी तरह आजकल के कायस्थ भी आजकल के ब्राह्मणों को इसीलिए माफ नहीं कर रहे हैं, क्योंकि ब्राह्मणों के पूर्वजों के पूर्वजों ने उनके पूर्वजों के पूर्वजों का अपमान किया था। अंग्रेजों और भारतीयों में ऐसा अंतर क्यों? स्पष्ट है कि यह जातिप्रथा के कारण ही है। विभिन्न जातियों के होने के कारण और जातिगत चेतना के कारण ही विभिन्न जातियों के आपस के अतीत के विरोध भुलाए नहीं जा सके हैं। और इसी कारण जातियों में एकात्मता नहीं आ पाई है।

Speech prepared by Dr Bhimrao Ambedkar for the annual conference of Lahore Jatpant Todak Mandal 1936

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     देश के विभिन्न असम्मिलित क्षेत्रों और अंशतः सम्मिलित क्षेत्रों के बारे में आजकल जो चर्चा चल रही है, उससे भारत में मूल जन-जातियों की स्थिति पर लोगों का ध्यान गया है। इन जातियों के लोगों की संख्या कम से कम लगभग एक करोड़ तीस लाख होगी। यदि हम इस प्रश्न को छोड़ दें कि नए संविधान में उन्हें सम्मिलित न करना सही है या गलत, सच यह है कि हालांकि हमारा देश इस बात पर गर्व करता है कि हमारी सभ्यता हजारों वर्ष पुरानी है, ये मूल आदिम जातियां इसी पुरानी असभ्य स्थिति में रह रही है। न केवल वे असभ्य स्थिति में हैं, बल्कि कुछ जातियों के काम-धंधे भी इसी प्रकार के हैं कि उन सबको आपराधिक जातियों में वर्गीकृत कर दिया गया है। इसी तरह हमारी आज की भरी-पूरी सभ्यता की अवस्था में भी एक करोड़ तीस लाख आदमी अभी भी जंगलियों की तरह रह रहे हैं और वंश परंपरागत अपराधियों का जीवन बिता रहे हैं। लेकिन हिन्दुओं को इसमें कभी कोई शर्म महसूस नहीं हुई। मैं समझता हूं कि यह एक ऐसी घटना है, जो अन्यत्र कहीं नहीं है। इस शर्मनाक स्थिति का क्या कारण है? इन आदिम जातियों को सभ्य बनाने का और उन्हें सम्मानजक ढंग से जीविका दिलाने का प्रयास क्यों नहीं किया गया ? हिन्दू लोग उनकी इस बर्बर अवस्था का यह कारण बताएंगे कि वे जन्म से ही जंगली हैं। वे यह कभी नहीं मानेंगे कि ये आदिम जातियां इस कारण जंगली की जंगली रह गई है, क्योंकि हिन्दू लोगों ने उन्हें सभ्य बनाने, उन्हें चिकित्सीय सहायता देने, उन्हें सुधारने और उन्हें अच्छा नागरिक बनाने का कोई प्रयास ही नहीं किया। अब मान लें कि कोई हिन्दू भी इन मूल निवासियों के लिए वह सब कुछ करना चाहता है, जो ईसाई प्रचारक कर रहा है तो क्या वह वैसा कर पाता? मैं कहता हूं, नहीं। मूल निवासियों को सभ्य बनाने का आशय होगा, अपने ही लोगों की तरह उन्हें अपना बनाना, उनके बीच जाकर रहना और उनके बीच बंधुता की भावना विकसित करने की कोशिश करते रहना किसी हिन्दू के लिए ऐसा करना कैसे संभव है? उसकी पूरी जिंदगी अपनी जाति को बनाए रखने की भरसक कोशिश तक ही सीमित है। जाति ही उसकी वह अमूल्य निधि है, जिसकी उसे हर कीमत पर रक्षा करनी है। उसे यह कभी सहन नहीं हो सकता कि वह उस निधि को उन मूल आदिम जातियों से संपर्क करने में गंवा दे, जिन्हें वैदिक काल से ही नीच अनार्यों का अंश माना जाता रहा है। ऐसा नहीं है कि हिन्दुओं को पतित मानवता के उत्थान की कर्तव्य - भावना सिखाई ही नहीं जा सकती। लेकिन कठिनाई यह है कि चाहे उनमें कितनी ही कर्तव्य - भावना क्यों न भर दी जाए, उनकी अपनी जाति की रक्षा की उनकी कर्तव्य-भावना उन पर हमेशा विजय पा लेगी। इसलिए जाति ही वह मुख्य स्पष्टीकरण है, जिसके कारण हिन्दुओं ने स्वयं सभ्य हो जाने के बावजूद जंगली जातियों को जंगली ही बने रहने दिया है और इसमें उन्हें न तो लज्जा का अनुभव होता है, न ही बुरा लगता है और न कोई पश्चात्ताप होता है। हिन्दू यह नहीं समझ पाए हैं कि इन मूल निवासियों से उन्हें कभी खतरा हो सकता है। अगर ये जंगली लोग जंगली ही बने रहे, तो शायद उनसे हिन्दुओं को कोई खतरा न हो। लेकिन अगर गैर-हिन्दू उन्हें अपना लें और अपने धर्म में उनका धर्म-परिवर्तन कर लें, तो हिन्दुओं के शत्रुओं की संख्या बढ़ जाएगी। अगर ऐसा हुआ तो उसका कारण स्वयं हिन्दू लोग और उनकी जातिप्रथा होगी।



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