१. देवदत्त भगवान् बुद्ध का चचेरा भाई था । लेकिन आरम्भ से ही उसे उनसे ईर्षा थी और वह अन्तिम दर्जे की घुणा करता था ।
२. जब बुद्ध घर छोड़ कर चले गये तो देवदत्त ने यशोधरा से प्रेम बढाने का प्रयास किया ।
३. एक बार जब यशोधरा के सोने का समय हो गया था, वह किसी से रोका नही गया और भिक्षु रुप में वह यशोधरा के शयनागार में पहुच गया । यशोधरा ने पूछा - "श्रमण ! तू क्या चाहता है? क्या तू मेरे लिये मेरे स्वामी के पास से कोई सन्देश लेकर आया है?"
४. “तुम्हारा पति, उसे तुम्हारी क्या खाक चिन्ता है । वह तुम्हें निर्दयता पूर्वक सुख - निवास में छोड़ कर चला गया है ।”
५. यशोधरा ने उत्तर दिया-- “लेकिन ऐसा उन्होंने बहुतों के कल्याण के लिये किया ।"
६. “जो भी हो, अब समय है, उससे इस कूर निर्दयता का बदला लो ।”
७.”श्रमण! जबान बन्द कर । तेरे विचार और वाणी दुर्गन्धि से भरी है।”
८. “यशोधरा! “क्या तूने मुझे पहचाना नहीं ? मैं तेरा प्रेमी देवदत्त हूँ ।”
९ . "देवदत्त! मैं तुझे झूठा और दुष्ट समझती थी । मैं ने कभी यह नहीं सोचा था कि तू कोई अच्छा श्रमण बन सकेगा, लेकिन मुझे पता नहीं था कि तू इतना कमीना है ।"
१०. देवदत्त चिल्लाया-- “यशोधरा ! यशोधरा ! मैं तुझसे प्रेम करता हूँ। तेरे पति के मन में तो मेरे लिये घुणा छोड़ कर और कुछ नहीं । तुम्हारे प्रति वह निर्दयी रहा है। मुझसे प्रेम कर और उससे बदला ले ।”
११. यशोधरा का खिंचा हुआ पीला चेहरा रंजित हो उठा । उसकी आंखों से आंसू बहने लगे ।
१२. “देवदत्त! क्रूर तुम हो । यदि तुम्हारे प्रेम में कुछ सचाई भी होती तो भी यह मेरा अपमान होता । तुम्हारा यह कहना कि मुझसे प्रेम करते हो तो महज तुम्हारा मृषावाद है ।
१३. “जब मैं तरुण और सुन्दर थी, तब तो तुमने मेरी ओर आंख उठा कर देखा नहीं । अब मैं जरा जीर्ण हो चली हूँ, रंज से दुःखी हूँ, और तू रात के समय अपने पाप - पूर्ण प्रेम की बात करने आया है! तू नीच है । तू कायर है ।" तू
१४. और वह जोर से चिल्लाई- "देवदत्त ! निकल यहाँ से ।"देवदत्त चला गया ।
१५. देवदत्त भगवान् बुद्ध से बडा अप्रसन्न था क्योंकि उन्होंने संघ में उसे प्रधान पद न देकर सारिपुत्र को प्रधान बना दिया था । देवदत्त ने तीन बार तथागत के प्राणों का अन्त कर देने का प्रयास किया । लेकिन सफल नहीं हुआ ।
१६. एक बार भगवान् बुद्ध गृध्रकूट पर्वत की छाया में ऊपर-नीचे चहल कदमी कर रहे थे ।
१७. देवदत्त उपर चढ़ा और जाकर एक बड़ा भारी पत्थर नींचे लुढका दिया ताकि तथागत का प्राणांत ही हो जाय । लेकिन वह पत्थर जाकर एक दूसरी चट्टान पर गिरा और वहीं गड गया । उसकी एक छोटी सी पच्चर आकर तथागत के पांव में लगी, जिससे रक्त बहने लग गया ।
१८. उसने भगवान् बुद्ध की जान लेने का दूसरी बार भी प्रयास किया ।
१९. इस बार देवदत्त राजकुमार अजात शत्रु के पास गया और बोला--"मुझे कुछ आदमी दो ।" और अजात शत्रु ने अपने आदमियों को आज्ञा दी कि देवदत्त का कहना करें ।
२०. तब देवदत्त ने एक आदमी को आज्ञा दी - मित्र ! जाओ, श्रमण गौतम अमुक जगह है । जाकर उसे जान मार आओ । आदमी जाकर वापस लौट आया और बोला “मै तथागत का प्राण लेने में असमर्थ हूँ ।”
२१. उसने तथागत के प्राणांत का एक तीसरा प्रयास भी किया ।
२२. इस समय राजगृह में, नालागिरी नाम का एक बडा भयानक, नर-हत्यारा हाथी था ।
२३. देवदत्त राजगृह पहुंचा और वहाँ हाथियों के अस्तबल में उसने हथवानों और हाथियों की देख भाल रखने वालों को कहा:- “मित्रो! मैं राजा का सम्बन्धी हूँ। मैं जिस आदमी को चाहूँ उसका पद बढा सकता हूँ और जिस आदमी का चाहूँ उसकी वेतन वृद्धि या राशन वृद्धि करा सकता हूँ ।
२४. “इसलिये मित्रों! जब श्रमण गौतम इस सडक से गुजरे तो नालागिरी को छोड़ दो ।"
२५. देवदत्त ने भगवान् बुद्ध की हत्या करने के लिये धनुष-बाण धारियों को भी कहा । उसने मदमस्त हाथी भी छुडवाया ।
२६. लेकिन, वह असफल रहा। जब लोगों को उसके इन दुष्ट प्रयासो की जानकारी हो गई तो जनता ने उसका सारा लाभ यश बंद कर दिया और राजा अजातशत्रु ने भी उससे मिलना जुलना बंद कर दिया ।
२७. अब जीवित रहने के लिये उसे घर-घर भीख माँगनी पडती थी । अजातशत्रु से देवदत्त को बहुत प्राप्त होता था । लेकिन यह लाभ-सत्कार बन्द हो गया । नालागिरी की घटना के बाद देवदत्त का रहा सहा प्रभाव भी समाप्त हो गया ।
२८. अपनी करतूतो से अप्रिय बन जाने के कारण देवदत्त मगध छोडकर कोशलजनपद चला गया । वहाँ उसे राजा प्रसेनजित से आशा थी । लेकिन राजा प्रसेनजित ने भी उसे घुणा की दृष्टि से देखा और वहाँ से भगा दिया ।